अर्जुन को पता हो या न पता हो, ये कृष्ण के वचन जन्मों जन्मों तक भी वह
सुनता रहे, तो भी इनको सुनकर ही संतोष नहीं मिलेगा। इनके अनुकूल रूपांतरित
होना पड़ेगा, इनके अनुकूल अर्जुन को बदलना पड़ेगा। और अगर इनके अनुकूल अर्जुन
बदल जाए, तो अर्जुन स्वयं कृष्ण हो जाएगा। कृष्ण हो जाए, तो ही संतुष्ट हो
सकेगा। उसके पहले कोई संतोष नहीं है। उसके पहले अतृप्ति बढ़ती चली जाएगी।
अगर कोई वचनों से ही तृप्त होना चाहे, तो कभी तृप्त न हो सकेगा। चलना पड़ेगा
उस ओर, जिस ओर ये वचन इशारा करते हैं, इंगित करते हैं। जहां ये ले जाना
चाहते हैं, वहां कोई पहुंचे तो तृप्ति होगी।
यहां अर्जुन को मैं मानकर चल रहा हूं कि वह जैसे आदमी के भीतर का, सबके भीतर का, सार संक्षिप्त है। है भी। और कृष्ण को मानकर चल रहा हूं कि जैसे वे आज तक इस जगत में जितनी भगवत्ता के लक्षण प्रकट हुए हैं, उन सबका सार संक्षिप्त हैं। कृष्ण जैसे इस जगत में जो भी भगवान होने जैसा हुआ है, उस सबका निचोड़ हैं। और अर्जुन जैसे इस जगत में जितने भी डावाडोल आदमी हुए हैं, उन सबका निचोड़ है।
यहां अर्जुन को मैं मानकर चल रहा हूं कि वह जैसे आदमी के भीतर का, सबके भीतर का, सार संक्षिप्त है। है भी। और कृष्ण को मानकर चल रहा हूं कि जैसे वे आज तक इस जगत में जितनी भगवत्ता के लक्षण प्रकट हुए हैं, उन सबका सार संक्षिप्त हैं। कृष्ण जैसे इस जगत में जो भी भगवान होने जैसा हुआ है, उस सबका निचोड़ हैं। और अर्जुन जैसे इस जगत में जितने भी डावाडोल आदमी हुए हैं, उन सबका निचोड़ है।
इसलिए गीता जो है, वह दो व्यक्तियों के बीच ही चर्चा नहीं है; दो अस्तित्वों के बीच, दो दुनियाओं के बीच, दो लोकों के बीच, दो अलग अलग आयाम जो समानांतर दौड़ रहे हैं, उनके बीच चर्चा है। इसलिए दुनिया में गीता जैसी दूसरी किताब नहीं है, क्योंकि इतना सीधा डायलाग, ऐसा सीधा संवाद नहीं है।
रामायण है, वह राम के जीवन की लंबी कथा है। बाइबिल है, वह जीसस के
अनेक अनेक अवसरों पर अनेक अनेक अलग अलग लोगों को दिए गए वक्तव्य हैं। कुरान
है, वह ईश्वर का संदेश है मनुष्यजाति के प्रति, मोहम्मद के द्वारा
निवेदित। लेकिन कोई भी डायलाग नहीं है सीधा।
गीता सीधा डायलाग है। मैं तू की हैसियत से दो दुनियाए सामने खड़ी हैं। एक तरफ सारी मनुष्यता का डांवाडोल मन अर्जुन में खडा है और एक तरफ सारी भगवत्ता अपने सारे निचोड में कृष्ण में खड़ी है। और इन दोनों के बीच सीधी मुठभेड़ है, सीधा एनकाउंटर है। यह बहुत अनूठी घटना है। इसलिए गीता एक अनूठा अर्थ ले ली है। वह फिर साधारण धार्मिक किताब नहीं है। उसको हम और किसी किताब के साथ तौल भी नहीं सकते। वह अनूठी है।
गीता दर्शन
ओशो
No comments:
Post a Comment