समस्त इंद्रियों के रस किसी गहन मूर्च्छा में लिए जाते हैं। जागेंगे तो
इंद्रियों के पार जाने लगेंगे। सोएंगे तो इद्रियों के पास आने लगेंगे।
जितनी होगी निद्रा, उतनी होगी निकटता। इसलिए प्रकृति के उपासक को
मूर्च्छित होना ही होगा। इंद्रियों के उपासक को किसी न किसी तरह की बेहोशी
खोजनी ही पड़ेगी। इसलिए अगर इंद्रियों के उपासक धीरे धीरे मूर्च्छा के
अनेक अनेक उपायों को खोज लेते हैं, इंटाक्सिकेंट्स को खोज लेते हैं, शराब
को खोज लेते हैं, तो आश्चर्य नहीं। असल में इंद्रियों का भक्त बहुत दिन तक
शराब से दूर नहीं रह सकता। इसलिए जहां जितना इंद्रियों का उपासक बढ़ेगा वहां
उतनी ही शराब और बेहोशी के नए नए उपाय बढ़ते चले जाएंगे।
इंद्रियों की साधना के लिए, उपासना के लिए चित्त जितना अजागरूक हो,
जितना विवेकशून्य हो, उतना अच्छा है। क्रोध करना हो, कि लोभ करना हो, कि
काम से भरना हो तो चित्त का मूर्च्छित होना जरूरी है, बेहोश होना जरूरी
है। इस बेहोशी की स्थिति में ही हम प्रकृति की उपासना कर पाते हैं।
तो उपनिषद का यह सूत्र अर्थपूर्ण है। कहता है कि अंधकार में प्रवेश कर
जाते हैं वे लोग, जो प्रगट, दिखाई पड़ रहा है, प्रत्यक्ष है जो, उसकी उपासना
में रत हो जाते हैं। प्रकृति की उपासना में जो रत हैं, वे अंधकार में
प्रवेश करते हैं। लेकिन और भी एक बात कही है कि और महा अंधकार में प्रवेश
करते हैं वे, जो कर्म प्रकृति की उपासना में रत हैं।
एक तो इंद्रियों की सहज उपासना है, जो पशु भी करते हैं। एक पशु है, वह
भी इंद्रियों की उपासना में रहता है। लेकिन कोई पशु कर्म प्रकृति की उपासना
में रत नहीं रहता। अब इसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। यह आदमी की विशेष दिशा है कर्म प्रकृति की उपासना। एक आदमी पद के लिए दौड़ रहा है। किसी भी पद पर
होने से किसी विशेष इंद्रिय के तृप्त होने की सीधी कोई संभावना नहीं है।
परोक्ष संभावना है कि किसी पद पर होने से वह किन्हीं इंद्रियों को परोक्ष
रूप से तृप्त करने के लिए ज्यादा सुविधा पा जाए। लेकिन प्रत्यक्ष, सीधी कोई
संभावना नहीं है। पद पर होने से इंद्रियों का कोई सीधा लेना देना नहीं है।
पद की दौड़ का जो रस है, वह इंद्रियों को नहीं अहंकार को मिलता है मैं
कुछ हूं। हां, मैं कुछ हूं तो जो कुछ भी नहीं हैं, उनसे ज्यादा इंद्रियों
को तृप्त कर लेने में मुझे सुविधा मिल जाएगी। लेकिन मैं कुछ हूं इसका अपना
ही रस है। तो कर्म की उपासना में जो रस हम लेते हैं, वह अहंकार की तृप्ति
का रस है।
उपनिषद कहते हैं कि ऐसा आदमी महा अंधकार में चला जाता है। पशुओं से भी गहन अंधकार में चला जाता है।
ईशावास्य उपनिषद
ओशो
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