एक बादल हट जाए तो आकाश का टुकड़ा दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। छिद्र हो
जाएं बादलों में तो प्रकाश की रोशनी आनी शुरू हो जाती है, सूरज के दर्शन
होने लगते हैं। ठीक ऐसे ही बुद्धि जब तक विचार से बहुत ज्यादा आवृत है.. और
एक पर्त नहीं है विचार की, हजारों पर्तें हैं। जैसे कोई प्याज को छीलता
चला जाए तो पर्त के भीतर पर्त, पर्त के भीतर पर्त। ठीक ऐसे विचार प्याज की
तरह हैं। एक विचार की पर्त को हटाएं दूसरी पर्त सामने आ जाती है। दूसरे को
हटाएं, तीसरी आ जाती है। एक विचार को हटाएं दूसरा विचार मौजूद है, दूसरे को
हटाएं तीसरा मौजूद है।
यह पर्त दर पर्त विचार है। यह हमने जन्मों में इकट्ठे किए हैं,
जन्मों जन्मों में। यह धूल है जो हमारी लंबी यात्रा में हमारे मन पर इकट्ठी
हो गई है। जैसे कोई यात्री रास्ते पर चले तो धूल इकट्ठी होती चली जाए। और
उसने कभी स्नान न किया हो और यात्रा करता ही रहा हो, तो बहुत धूल इकट्ठी हो
जाए, यात्री का पता ही न चले कि वह कहौ खो गया।
ध्यान स्नान है बुद्धि का। और जो ध्यान नहीं सम्हाल पा रहा है, उसकी
बुद्धि कचरे से लद जाएगी, स्वाभाविक। प्रतिपल संस्कार पड़ रहे हैं, हर घड़ी।
पूरे दिन में, वैज्ञानिक कहते हैं, कोई दस लाख संस्कार बुद्धि पर पड़ते हैं।
आप सोच भी नहीं सकते कि दस लाख कहां से पड़ते होंगे। हर चीज का संस्कार पड़
रहा है। अभी मैं बोल रहा हूं यह संस्कार पड़ रहा है। पक्षी आवाज कर रहा है,
वह संस्कार पड़ रहा है। एक कार का हार्न बजा, वह संस्कार पड़ा। वृक्ष में हवा
दौड़ी, वह संस्कार पड़ा। पैर में एक चींटी ने काटा, वह संस्कार पड़ा। सिर में
थोड़ी पीड़ा हुई, वह संस्कार पड़ा। पड़ रहे हैं दस लाख संस्कार दिनभर में,
चौबीस घंटे में। और ये सब इकट्ठे होते जा रहे हैं।
यह संस्कार धूल है। और यह हम जन्मों से इकट्ठे कर रहे हैं। इसलिए बहुत
पर्तें इकट्ठी हो गई हैं। जब आप सोए हैं, तब भी संस्कार पड़ रहे हैं। नींद
लगी है आपकी, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि बुद्धि पूरे वक्त काम
कर रही है। बाहर कोई आवाज होगी, नींद में भी संस्कार पड़ रहा है। गर्मी
पड़ेगी, संस्कार पड़ रहा है। मच्छड़ आवाज कर रहे हैं, संस्कार पड़ रहा है। करवट
बदली, संस्कार पड़ रहा है। गर्मी है, सर्दी है, पूरे समय बुद्धि इकट्ठा कर
रही है, हर चोट। बुद्धि की क्षमता बहुत ज्यादा है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि अनंत संस्कार बुद्धि इकट्ठा कर सकती है। आपके इस
छोटे से सिर के भीतर कोई सात करोड़ सेल हैं। और एक एक सेल अरबों संस्कार
इकट्ठा कर सकता है। इसलिए कोई अंत नहीं है। सारी दुनिया का जितना ज्ञान है,
वह एक आदमी की बुद्धि में समाया जा सकता है।
ये जो इकट्ठी होती पर्तें हैं, इनके कारण आप आच्छादित हैं। इस आच्छादन
को तोडना पड़ेगा। इस तोड़ने का प्रारंभ बुद्धिमान साधक को चाहिए, पहले वाक्
आदि समस्त इंद्रियों को मन में निरुद्ध करे।
इसलिए मौन का इतना मूल्य है। मौन का अर्थ है, आप बाहर और भीतर बोलना बंद
कर रहे हैं। क्योंकि बोलना बुद्धि की बड़ी गहरी प्रक्रिया है। बोलने के
द्वारा बुद्धि बहुत कुछ इकट्ठा करती रहती है। और जो भी आप बोलते हैं, वह आप
सिर्फ बोलते नहीं हैं, बोला हुआ आप सुनते भी हैं, उसके संस्कार और सघन हो
जाते हैं।
जब आप एक ही बात बार बार बोलते रहते हैं, तो आपको पता नहीं कि आप
बार बार सुन भी रहे हैं। संस्कार गहरे होते जा रहे हैं। और आप कचरा बोलते
रहते हैं। सुबह अखबार पढ़ लिया, फिर दिनभर उसी को लोगों को बोले चले जा रहे
हैं। कोई व्यर्थ की बात, जिसका कोई भी मूल्य नहीं, जिससे किसी को कोई लाभ
नहीं होगा, उसको आप बोले चले जा रहे हैं। अगर आप अपने चौबीस घंटे का
विश्लेषण करें, तो आप पाएंगे कि निन्यानबे प्रतिशत तो कचरा था, जो आप न
बोलते तो किसी का कोई हर्ज न था।
ध्यान रहे, जिसे बोलने से किसी को कोई लाभ नहीं हुआ है, उसे बोलने से
हानि निश्चित हुई है। क्योंकि न केवल आपने दूसरे के मन में कचरा डाला है जो
कि हिंसा है, जिसका कोई मूल्य नहीं है वह आप बोलकर दूसरे के मन में डाल
दिए हैं जब आप बोल रहे थे तो आपने फिर से सुन लिया है। वह आपके भीतर दुबारा
गहरा हो गया। उसके फिर से संस्कार पड़ गए, फिर कंडीशनिंग हो गई।
अगर आप एक असत्य को भी बार बार बोलते रहें, तो आप खुद ही भूल जाएंगे कि
वह असत्य है। इतने संस्कार भीतर पड़ जाएंगे कि वह लगने लगेगा कि सत्य है।
एडोल्फ हिटलर ने कहा है कि कोई भी असत्य को सत्य करना हो तो एक ही तरकीब
है, उसे बोले चले जाओ। दूसरे ही मान लेंगे ऐसा नहीं है, आप खुद भी मान
लेंगे।
आप अपनी जिंदगी में देखें, कई असत्य आपको सत्य मालूम पड़ने लगे हैं,
क्योंकि आप इतने दिनों से बोल रहे हैं कि अब आपको भी स्मरण नहीं रहा कि
पहले दिन यह बात असत्य थी। बहुत बार संस्कार पड़ जाने से गहरे हो जाते हैं;
लीक बन जाती है।
पहला काम है साधक के लिए कि वह वाणी को संयत कर ले। वही बोले जो बिलकुल अनिवार्य हो, अपरिहार्य हो, जिसके बिना चल ही न सकेगा।
कठोपनिषद
ओशो
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