अक्सर ऐसा होता है कि गरीब को तो थोड़ी आशा भी रहती है, अमीर की आशा भी
टूट जाती है। गरीब को तो लगता है कि एक मकान होगा अपना, तो शांति होगी।
थोड़ा धन-संपत्ति होगी; सुविधा होगी; फिर सुख और चैन से रहेंगे। उसे यह पता
ही नहीं है कि सुख-चैन यहां हो नहीं सकता। धर्मशाला में कैसा सुख-चैन? कब
उठा लिए जाओगे…! आधी रात में पुकार लिए जाओगे! कब मौत का दूत द्वार पर खड़ा
हो जाएगा और दस्तक देने लगेगा–कुछ भी तो नहीं कहा जा सकता! यहां चैन कैसे
हो सकता है? बेचैनी यहां स्वाभाविक है।
फिर भी गरीब को थोड़ी आशा होती है। लगता है: मकान ठीक नहीं, कैसे चैन
करूं? पास धन नहीं, कैसे सुखी होऊं? लेकिन अमीर तो बिलकुल निराश हो जाता
है। धन भी है, पद भी, प्रतिष्ठा भी, महल भी, साम्राज्य भी, सब है–और उतना
का उतना ही परदेश। परदेश रत्ती भर कम नहीं हुआ। और अब तो आशा भी करनी
व्यर्थ है। जिससे आशा हो सकती थी वह तो है हाथ में।
तो धनी से ज्यादा निराश कोई भी नहीं होता।
जिनके पास है वे भी सुखी कहां हैं!
जिनके पास नहीं है, वे तो दुखी हैं–यह समझ में आता है; लेकिन जिनके पास है वे भी दुखी हैं–शायद और भी घने दुख में हैं।
आदमी सुख की तलाश करता है, लेकिन सुख शाश्वत में ही हो सकता है। इस
सूत्र पर ध्यान करना। सुख शाश्वत का लक्षण है। क्षणभंगुर में सुख नहीं हो
सकता। यह जो पानी के बबूले जैसा जीवन है, इसमें तुम कितने ही भ्रम पैदा करो
और कितने ही सपने देखो, सुख नहीं हो सकता।
और तुम कैसे अपने को धोखा दोगे! तुम रोज देखते हो कोई चला, किसी की अरथी
उठी। तुम रोज देखते हो किसी की चिता जली। तुम रोज देखते हो लोगों को
गिरते–जो क्षण भर पहले तक ठीक थे, तुम जैसे थे, चलते थे, दौड़ते थे, वासनाओं
से भरे थे, बड़ी महत्वाकांक्षाएं थीं–और अब धूल भरी रह गई मुंह में। तुम
कैसे झुठलाओगे इस सत्य को? यह इतना चारों तरफ खुदा हुआ है। इस सत्य की सब
तरफ प्रामाणिकता है।
रोज कोई मरता है। फूल वृक्ष से गिरता है, कि फल वृक्ष से गिरता है, कि
आदमी पृथ्वी पर गिर जाता है। यहां हम भी ज्यादा देर नहीं हो सकते। लाख अपने
मन को समझाएं, लाख अपने मन को बुझाएं, और कहें कि और मरते हैं, मैं थोड़े
ही मरता हूं, सदा कोई और मरता है, मैं थोड़े ही मरता हूं, फिर मैं अपवाद
हूं, कौन जाने मैं कभी न मरूं!–मगर कैसे तुम धोखा दोगे? इतने प्रमाणों के
विपरीत तुम कैसे अपने को धोखा दोगे? सारे मरघट, सारे कब्रिस्तान प्रमाण हैं
इस बात के कि यह जगह घर नहीं है।
जैसे ही यह खयाल बहुत स्पष्ट हो जाता है, कांटे की तरह चुभने लगता है
प्राणों में कि यह हमारा घर नहीं तब एक खोज शुरू होती है असली घर की खोज।
पद घुंघरू बाँध
ओशो
No comments:
Post a Comment