ध्यान शून्य लाता है। अगर तुमने जल्दबाजी की तो शून्य को भरने की तृष्णा
पैदा होगी। अगर जल्दबाजी न की और तुम शून्य के साथ रहने को राजी हो गए,
तुमने उसे स्वीकार कर लिया, तो तुम पाओगे धीरे-धीरे शून्य अपने आप भर दिया
गया। क्योंकि प्रकृति शून्य को बरदाश्त नहीं करती; शून्य तुम करो, भर देती
है प्रकृति। न परमात्मा शून्य को बरदाश्त करता है। तुम शून्य पैदा करो,
परमात्मा भर देता है।
शून्य भर चाहिए, पूर्ण तो उतर आता है। जैसे कहीं
गङ्ढा हो, वर्षा हो, तो सारा पानी चारों तरफ से दौड़ कर गङ्ढे में भर जाता
है। ऐसे ही तुम जब शून्य होते हो, परमात्मा चारों तरफ से तुम्हारी तरफ
दौड़ने लगता है। तुमने गङ्ढा बना दिया, अब भरना उसे है। आधा तुम करते हो,
आधा परमात्मा करता है। और तुम्हारा करना कुछ खास नहीं, असली करना तो उसी का
है। तुम्हारा करना इतना ही है कि तुम खाली होने को राजी हो जाओ। इसलिए
सारे बुद्धपुरुष–भरने की तृष्णा से बचो, बटोरने की तृष्णा से बचो–इसका इतना
आग्रह करते हैं। क्योंकि अगर तुमने स्वयं ही भर लिया, तो तुम परमात्मा को
भरने का मौका ही नहीं देते हो।
भज गोविंदम मूढ़ मते
ओशो
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