जीवन में हर चीज एक लय है। तुम प्रसन्न होते हो और फिर पीछे
चली आती है अप्रसन्नता। रात और दिन, गर्मी और सर्दी; जीवन एक लय है दो
विपरीतताओ के बीच की। जब तुम सजग होने का प्रयास करते हो तो वह लय वहा होगी
: कई बार तुम जागरूक हो जाओगे और कई बार नहीं।
समस्या मत खड़ी कर लेना, क्योंकि तुम समस्याएं खड़ी करने में इतने कुशल हो
कि बेबात ही तुम बना सकते हो कोई समस्या। और एक बार जब तुम बना लेते हो
कोई समस्या तब तुम उसे सुलझा लेना चाहते हो। फिर ऐसे लोग हैं, जो तुम्हें
दे देंगे उत्तर। गलत समस्या सदा ही उत्तर पाती है किसी गलत उत्तर द्वारा।
और फिर यही बात चली चल सकती है अनंतकाल तक; एक गलत उत्तर फिर बना लेता है
प्रश्नों को। एकदम आरंभ से ही असम्यक ‘ समस्या न बनने देने के लिए सजग होना
होता है। अन्यथा पूरा जीवन ही चलता चला जाता है असम्यक दिशा की ओर।
समस्या न बनाने की बात को सदा ही समझने की कोशिश करना। हर चीज स्पंदित
होती है लय में। और जब मैं कहता हूं हर चीज, तो मेरा मतलब होता है हर एक
चीज से ही। प्रेम होता है, और मौजूद होती है घृणा, सजगता और मौजूद होती है
असजगता। मत खड़ी कर लेना कोई समस्या; दोनों से आनंदित होना।
जब सजग होते हो, तो आनंद मनाना सजगता का, और जब असजग होते हो तो आनंद
मनाना असजगता का। कुछ गलत नहीं है, क्योंकि असजगता है विश्राम की भांति।
अन्यथा, सजगता हो जाएगी एक तनाव। यदि तुम जागते रहते हो चौबीस घंटे, तो तुम
क्या सोचते कि कितने दिन जी सकते हो तुम? बिना भोजन के आदमी जी सकता है
तीन महीने तक, बिना नींद के वह तीन सप्ताह के भीतर पागल हो जाएगा। वह कोशिश
करेगा आत्महत्या करने की। दिन में तुम जागते रहते, रात में तुम विश्राम
करते और वह विश्राम तुम्हारी मदद करता दिन में ज्यादा सचेत और ज्यादा ताजा
रहने में। ऊर्जाएं गुजर चुकी होती है विश्राम अवधि में से, जिससे कि वे
सुबह फिर ज्यादा जीवंत होती हैं।
यही बात घटेगी ध्यान में कुछ पलों के लिए तुम संपूर्णतया जागरूक होते
हो, शिखर पर होते हो, और कुछ पलों के लिए तुम होते हो घाटी में, विश्राम कर
रहे होते हो जागरूकता समाप्त हो चुकी ‘ होती है, तुम भूल चुके होते हो। पर
क्या गलत है इसमें? यह सीधी साफ बात है। अजागरूकता द्वारा, जागरूकता फिर
से उदित होगी, ताजी, युवा, और यही चलता चला जाएगा। यदि तुम दोनों से आनंदित
हो सकते हो, तो तुम तीसरे बन जाते हो, और यही सारबिंदु है समझने का।
यदि तुम दोनों से आनंदित हो सकते हो, तो इसका मतलब होता है कि तुम न तो
जागरूकता हो और न ही अजागरूकता हो। तुम एक वह हो जो दोनों से आनंदित होता
है। पार का कुछ प्रवेश करता है। वस्तुत: यही है असली साक्षी। प्रसन्नता से
तुम आनंदित होते क्या गलत है इसमें? जब प्रसन्नता चली जाती है और तुम उदास
हो जाते हो, तो क्या गलत है उदासी में? प्रसन्न होओ उससे। एक बार तुम सक्षम
हो जाते हो उदासी का आनंद मनाने में, तब तुम दोनों में से कुछ नहीं होते।
और मैं कहता हूं तुमसे, यदि तुम आनंद मनाते हो उदासी का, तो उसके अपने
सौंदर्य होते हैं। प्रसन्नता थोड़ी सतही होती है; उदासी बड़ी गहन होती है,
उसकी अपनी एक गहराई होती है। जो व्यक्ति कभी उदास नहीं रहा होता, वह सतही
होगा, सतह पर ही होगा। उदासी है अंधेरी रात की भांति बहुत गहन। अंधकार का
अपना एक मौन होता है और उदासी का भी। प्रसन्नता फूटती है बूदबूदाती है;
उसमें एक ध्वनि होती है, वह होती है पर्वतो की नदी की भांति, ध्वनि निर्मित
हो जाती है। लेकिन पर्वतो में नदी कभी नहीं हो सकती बहुत गहरी। वह सदा
उथली होती है। जब नदी पहुंचती है मैदान में, वह हो जाती है गहरी, पर ध्वनि
थम जाती है। वह चलती है, जैसे कि न चल रही हो। उदासी में एक गहराई होती है।
क्यों बनानी अड़चन? जब प्रसन्न होते हो, तो प्रसन्न रहो, आनंद मनाओ उसका।
तादात्म्य मत बनाओ उसके साथ। जब मैं कहता हूं प्रसन्न रहो तो मेरा मतलब
होता आनंदित होओ उससे। उसे होने दो एक आबोहवा, जो गतिमय होगी और
परिवर्तनशील होगी। सुबह परिवर्तित हो जाती है दोपहर में, दोपहर परिवर्तित
हो जाती है सांझ में और फिर आती है रात्रि। प्रसन्नता को तुम्हारे चारों ओर
की एक आबोहवा बनने दो। आनंद मनाओ उसका, और फिर जब उदासी आती है, तो उससे
भी आनंदित होना। जो कुछ भी हो अवस्था मैं तो तुम्हें सिखाता हूं आनंद
मनाना। शांत होकर बैठ जाना और आनंदित होना उदासी से, और अचानक उदासी फिर
उदासी नहीं रहती; वह बन चुकी होती है मौन शांतिमय पल, अपने में
सौंदर्यपूर्ण। कुछ गलत नहीं होता उसमें।
और फिर आती है अंतिम कीमिया, वह स्थल, जहां तुम अकस्मात जान जाते हो कि
तुम न तो प्रसन्नता हो और न ही उदासी। तुम देखने वाले हो, साक्षी हो। तुम
देखते शिखरों को, तुम देखते घाटियों को, लेकिन तुम इनमें से कुछ भी नहीं
हो।
एक बार यह दृष्टि उपलब्ध हो जाती है तो तुम हर चीज का उत्सव मना सकते
हो। तुम उत्सव मनाते हो जीवन का, तुम उत्सव मनाते हो मृत्यु का। तुम उत्सव
मनाते हो प्रसन्नता का और तुम उत्सव मनाते हो अप्रसन्नता का। तुम हर चीज का
उत्सव मनाते हो। तब तुम किसी ध्रुवता के साथ तादात्म्य नहीं बनाते। दोनों
ध्रुवताएं, दोनों छोर साथ साथ उपलब्ध हो गए हैं तुम्हें और तुम आसानी से एक
से दूसरे तक पहुंच सकते हो। तुम हो जाते हो तरल, तुम बहने लगते हो। तब तुम
कर सकते हो उपयोग दोनों का, और दोनों ही तुम्हारे विकास में मदद बन सकते
हैं।
पतंजलि योगसूत्र
ओशो
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