स्वाभाविक है। जो मिल रहा है वह ऐसा नहीं जिसे तुम आसानी से
शब्दों में बांध सको। लेकिन कोशिश करो। धीरे-धीरे कुशलता आएगी। नये-नये
अनुभव हैं तो हमारे पास उन अनुभवों को प्रकट करने के शब्द नहीं होते।
जब पहली दफे तुम्हें ध्यान होता है तो बड़ी मुश्किल हो जाती है: कैसे कहें? क्या कहें? क्या हुआ है?
जब पहली दफे प्रेम होता है, तब भी मुश्किल हो जाती है। जबान लड़खड़ाती है:
क्या कहें? कैसे कहें? और जो भी कहो, लगता है, कुछ पूरा नहीं। जो भी कहो,
लगता है कुछ चूका-चूका। जो भी कहो, लगता है कि निशाना नहीं लगा।
मगर धीरे-धीरे कोशिश करो। मेरे पास जिन मित्रों को भी कुछ हो रहा है, उन
सभी को बांटना है। बांटना ही है क्योंकि तुम अगर बांटोगे, तो ही यह बढ़ेगा।
तुम बांटोगे तो और मिलेगा। तुम जितना बांटोगे उतना मिलेगा। अगर तुमने जरा
कंजूसी की और बांटा नहीं, या जरा सुस्ती की और बांटा नहीं–तो तुम पाओगे कि
बढ़ना बंद हो गया। यह कुंआ ऐसा है कि जितना उलीचोगे उतने ही नये झरने इसको
भरते जाएंगे। मगर तकलीफ तो होती है।
कठिनाइयां हैं। जो खूब कहने में कुशल हैं, वे भी सफल नहीं हुए।
रवींद्रनाथ मर रहे थे। और किसी ने कहा कि आप तो धन्यभागी हैं, आपने छह
हजार गीत लिखे हैं। इतने गीत दुनिया में किसी और महाकवि ने नहीं लिखे हैं।
पश्चिम में बड़ा महाकवि हुआ शैली, उसने भी तीन हजार लिखे हैं। और आपके सब
गीत ऐसे हैं कि संगीत में बंध जाते हैं। आप अपूर्व हैं। आप शांति से विदा
लें।
लेकिन रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा: कैसी शांति? मैं तो परमात्मा से
प्रार्थना कर रहा हूं कि हे प्रभु, यह तू क्या कर रहा है? अभी तो मैं साज
बिठा पाया था और यह मेरे जाने की घड़ी आ गई! किन गीतों की बात कर रहे हो? जो
गीत मैंने गाए, वे, वे गीत नहीं हैं जो मैं गाना चाहता था। जो मैं गाना
चाहता था। वह तो अभी भी अनगाया मेरे भीतर पड़ा है। जो मैं गाना चाहता था, वह
अभी भी मैं गाना चाहता हूं। अभी कहा कहां!
रवींद्रनाथ कहते हैं: अभी तो मैंने साज बिठाया था। अभी तो यह जो
ठोंक-पीट, तबला इत्यादि ठोंक रहा था, तार कस रहा था, इसकी जो आवाज हो रही
थी–यही वे छह हजार गीत हैं। अब तार कस गए थे, तबला ठीक बैठ गया था, अब घड़ी
करीब आ रही थी कि लगता था अब गा सकूंगा जो गाना है, और यह जाने की घड़ी आ
गई।
लेकिन मैं तुमसे कहना चाहूंगा, कि रवींद्रनाथ अगर और भी सौ साल जी जाते
तो भी बात ऐसी की ऐसी रहती, क्योंकि जो गाना है वह तो कभी गाया ही नहीं
जाता। हमेशा ऐसा ही लगता है कि बस साज तैयार है, अब तैयार है, अब तैयार है,
और तैयार हो गया। बस साज तैयार होता जाता है, लेकिन जो कहना है वह कहा
नहीं जा सकता।
तो तुम्हारी अड़चन मेरी समझ में है। रवींद्रनाथ जैसे व्यक्ति की भी अड़चन
थी–जो कहने में बड़ा कुशल था; जो गाने में कुशल था; जिसकी अभिव्यक्ति अपूर्व
थी; जिसकी अभिव्यक्ति वैसी ही थी जैसे वेद के ऋषियों की है। उतनी ही
कुशलता। उतना ही माधुर्य। लेकिन वे भी इतना ही कहते हैं कि मैं साज बिठा
पाया था।
तो गा तो तुम न पाओगे, मगर फिर भी गाना है। और नाच तो तुम न पाओगे, फिर
भी नाचना है। इसकी फिकर मत करना कि तुम्हारा नाच कितना कुशल है। तुम इसकी
ही फिकर करना कि तुम्हारे नाच को देख कर किसी को नाचने की धुन आ जाए। बस
पर्याप्त हो गया।
तुम यह मत सोचना कि मेरा गीत कितना पूर्ण है। कोई गीत पूर्ण नहीं है।
पूर्ण भाषा में आता ही नहीं। तुम इतनी ही फिक्र करना कि तुम्हें गीत गाते
देख कर किसी का कंठ खुल जाए। इतनी ही फिकर करना कि तुम्हारा गीत किसी पर
चोट कर दे; किसी के तार कंपा दे। तुम्हारे गीत की लय में बंध कर कोई उसी
खोज पर निकल जाए जिस खोज पर तुम मेरा गीत सुन कर निकल गए हो।
जिसको भी मिले, उसके लिए यह अनिवार्य शर्त है कि वह बांटे। जितना मिले
उतना बांटे। जिस तरह बन सके उस तरह बांटे। कोई नाच कर बांटे, कोई गाकर
बांटे। कोई चुप होकर बांटे। कोई शांत होकर बांटे। मगर बांटे। अपना रास्ता
खोजे। क्योंकि बांटने से बढ़ती है यह संपदा; न बांटने से घट जाती है।
संसार की संपदाएं बांटने से घट जाती हैं; न बांटो तो इकट्ठी होती हैं।
परमात्मा की संपदा बिलकुल उलटी है: बांटने से बढ़ती है; न बांटो तो घट जाती
है।
पद घुंघरू बाँध
ओशो
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