खंजर है कोई, तो तेगे-उरियां कोई
सरसर है कोई, तो बादेत्तूफां कोई
इंसान कहां है? किस कुर्रे में गुम है?
यां तो कोई हिंदू है, मुसलमां कोई
मुसलमान मिल जाएगा, हिंदू मिल जाएगा, ईसाई मिल जाएगा, जैन मिल जाएगा,
बौद्ध मिल जाएगा; मगर आदमी! आदमी मिलना बहुत कठिन है। और जो आदमी है वह
हिंदू नहीं हो सकता, मुसलमान नहीं हो सकता। आदमियत उतनी छोटी सीमाओं में
बंध नहीं सकती। आकाश को कैसे बंद करोगे आंगनों में? सत्य को कैसे जंजीरें
पहनाओगे शब्दों की? अनिर्वचनीय के कैसे शास्त्र निर्मित करोगे? हार्दिक को
बुद्धि से कैसे समझोगे? कैसे समझाओगे?
सब शास्त्र ओछे पड़ जाते हैं। सब मंदिर-मस्जिद छोटे पड़ जाते हैं।
परमात्मा इतना बड़ा है, उस बड़े परमात्मा को तो सिर्फ आकाश जैसा हृदय ही
सम्हाल सकता है। और आकाश जैसे हृदय पैदा हो सकते हैं; संभावना हमारी है;
बीज हममें है।
जिस वक्त झलकती है मनाजिर की जबीं
रासिख होता है जाते-बारी का यकीं
करता हूं जब इंसान की तबाही पे नजर
दिल पूछने लगता है, खुदा है कि नहीं?
आज अगर परमात्मा पर संदेह उठा है तो उसका कारण यह नहीं है कि परमात्मा
नहीं है; उसका कारण यह है कि आदमी परमात्मा का कोई प्रमाण ही नहीं दे रहा
है। आदमी को देख कर परमात्मा के अस्तित्व की आशा नहीं बंधती। आदमी को देख
कर, कुछ आशा रही भी हो, तो बुझ जाती है; कोई दीया टिमटिमाता भी हो भीतर, तो
समाप्त हो जाता है, अमावस की रात घिर जाती है।
जीना है तो जीने की मुहब्बत में मरो
आदमी होने की कला एक ही है और वह है प्रेम जीवन से प्रेम इतना कि मरना
भी पड़े उस प्रेम के लिए तो कोई हंसते हुए मर जाए, कोई गीत गाते हुए मर जाए,
कोई नाचते हुए मर जाए!
जीना है तो जीने की मुहब्बत में मरो
और जीने की भी कला यही है। बड़ा उलटा लगेगा: जीने की कला है जीने की
मुहब्बत में मरना। जो जीवन को जोर से पकड़ता है उसका जीवन नष्ट हो जाता है।
जो जीवन को भी जीवन के लिए छोड़ने को तत्पर होता है उसके ऊपर विराट जीवन उतर
आता है।
जीना है तो जीने की मुहब्बत में मरो
गारे-हस्ती को नेस्त हो हो के भरो
अभी तो तुम्हारी जिंदगी क्या है? गारे-हस्ती! एक गङ्ढा है अस्तित्व का!
एक खालीपन! एक सूनापन! एक रिक्तता! जहां न फूल खिलते हैं, न पक्षियों के
गीत गूंजते हैं, न आकाश के तारे झलकते हैं। तुम्हारे भीतर अभी है क्या?
सिर्फ एक उदासी है, एक ऊब है! किसी तरह जिंदगी को ढोए जाते हो, यह दूसरी
बात है। सिर्फ श्वास लेते रहने का नाम जीना नहीं है। जब तक जीवन एक नृत्य न
हो, एक रक्स न बने, एक उत्सव न हो, एक समारोह न हो; जब तक जीवन फूलों की
एक माला न बन जाए; जब तक जीवन तारों की एक दीपावली न बन जाए–तब तक तुमने
जीवन जाना ही नहीं जानना; समझ रखना कि जीवन समझा ही नहीं अभी; अभी जीवन में
प्रवेश ही नहीं हुआ, जीवन के मंदिर के बाहर ही बाहर घूमते रहे हो।
जीना है तो जीने की मुहब्बत में मरो
गारे-हस्ती को नेस्त हो हो के भरो
और जीवन का यह जो गङ्ढा तुम्हें अनुभव होता है–यह खालीपन, यह रिक्तता,
यह अर्थहीनता, यह शून्यता इसे भरने का उपाय जानते हो? इसे भरने का उपाय बड़ा
अनूठा है। इसलिए संतों की वाणी अटपटी है। अपने को मिटा मिटा कर ही इसको
भरा जा सकता है। और तुम अपने को बचा-बचा कर भरना चाहते हो।
बचाओगे तो खाली रह जाओगे–जीसस कहते हैं–और मिट सको तो आज ही भर जाओ।
मिटने को मैंने संन्यास का नाम दिया है मिटने की कला, मरने की कला।
लेकिन मरने की कला केवल कदम है जीवन की कला की तरफ। मिटने की कला होने की
कला का सूत्र है।
नौ-ए-इन्सां का दर्द अगर है दिल में
अपने से बुलंदतर की तखलीक करो
और अगर सच में ही मनुष्य होना चाहते हो, मनुष्य को जन्म देना चाहते हो
अपने भीतर, एक नये मनुष्य का आविर्भाव करना चाहते हो…क्योंकि पुराना तो
सड़-गल गया। तुम्हें जो पाठ पढ़ाए गए थे सब व्यर्थ साबित हुए। तुम्हें जो
सूत्र समझाए गए थे वे काम नहीं आए। जिन्हें तुम सेतु समझ कर चले थे वे ही
तुम्हें डुबाने का कारण हो गए हैं। तुमने कागज की नावों पर सवारी की है।
तुमने शब्दों और ज्ञान के जाल से ही जीवन को जीने की कोशिश की है। और इसलिए
जीवन तो तुम्हारे हाथ में नहीं है; जीवन के नाम पर एक धोखा है, एक
आत्मवंचना है। अगर सच्चे जीवन को जीना हो, अगर अपने भीतर एक नये मनुष्य को
जन्म देना हो तो एक काम करना पड़ेगा:
अपने से बुलंदतर की तखलीक करो
जो तुमसे विराट है उसका आविष्कार करो। और तुमसे विराट तुम्हें घेरे हुए
है। उसी का नाम परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा उस
विराट का नाम है जो तुम्हें घेरे हुए है; जो तुममें श्वास बन कर आता है; जो
तुममें रक्त बन कर बहता है; जो तुम्हारे हृदय की धड़कन है; जो तुम्हारी
आंखों की ज्योति है, चमक है; जो तुम्हारा प्रेम है, प्रार्थना है, तुम्हारा
काव्य है, तुम्हारा संगीत है; जो तुम्हारा अस्तित्व है; जो तुम्हारे
प्राणों का प्राण है; जिसने तुम्हें बाहर और भीतर सब तरफ से घेरा है उस
विराट का नाम ही परमात्मा है!
काहे होत अधीर
ओशो
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