धर्म कहता है. श्रद्धा करो। श्रद्धा का अर्थ है: संदेह नहीं। संदेह गया
कि विचार अपने से ही शांत होने लगते हैं। संदेह के बिना विचार करने को कुछ
बचता ही नहीं। प्रश्न ही नहीं बचता तो विचार कैसे बचेगा?
जो लोग सोचते हैं विचार को शांत कर लें और श्रद्धा करने को राजी नहीं,
वे कभी सफल न होंगे। वे जड़ों को तो बचाये रखना चाहते हैं, पत्तों को तोड़ना
चाहते हैं। जड़ें नये पत्ते भेज देंगी। जड़ें यही काम कर रही हैं नये पत्तों
को जन्माने का काम कर रही हैं। जड़ें तो गर्भ हैं, जहां से नये पत्तों का
आगमन होता रहेगा।
श्रद्धा का अर्थ है. मेरा कोई प्रश्न नहीं। और प्रश्न नहीं तो विचार की
तरंग नहीं उठती। जैसे झील के किनारे तुम बैठे, एक पत्थर उठा कर शांत झील
में फेंक दो। फेंकते तो एक पत्थर हो, लेकिन अनंत लहरें उठ आती हैं, लहर पर
लहर उठती चली जाती है। एक संदेह अनंत विचारों का जन्मदाता हो जाता है।
प्रश्न उठा कि यात्रा शुरू हुई।
श्रद्धा का अर्थ है : प्रश्न को गिरा दो, प्रश्न मत उठाओ। जो है, है; जो नहीं है, नहीं है; इस भाव में राजी हो जाओ। इस राजीपन में ही साक्षी का जन्म होगा। इस परम
स्वीकारभाव में ही साक्षी के भाव का उदय होता है। तो श्रद्धा के क्षितिज
पर ही साक्षी का सूरज निकलता है, साक्षी की सुबह होती है। श्रद्धा के बिना
तो साक्षी जन्म ही नहीं सकता।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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