ऐसी उपनिषद में प्यारी कथा है। याज्ञवल्क्य छोड़ कर जा रहा है। जीवन के
अंतिम दिन आ गए हैं और अब वह चाहता है कि दूर खो जाए किन्हीं पर्वतों की
गुफाओं में। उसकी दो पत्नियां थीं और बहुत धन था उसके पास। वह उस समय का
प्रकांड पंडित था। उसका कोई मुकाबला नहीं था पंडितों में। तर्क में उसकी
प्रतिष्ठा थी। ऐसी उसकी प्रतिष्ठा थी कि कहानी है कि जनक ने एक बार एक बहुत
बड़ा सम्मेलन किया और एक हजार गौएं, उनके सींग सोने से मढ़वा कर और उनके ऊपर
बहुमूल्य वस्त्र डाल कर महल के द्वार पर खड़ी कर दीं और कहा: जो पंडित
विवाद जीतेगा, वह इन हजार गौओं को अपने साथ ले जाने का हकदार होगा। यह
पुरस्कार है।
बड़े पंडित इकट्ठे हुए। दोपहर हो गई। बड़ा विवाद चला। कुछ तय भी नहीं हो
पा रहा था कि कौन जीता, कौन हारा। और तब दोपहर को याज्ञवल्क्य आया अपने
शिष्यों के साथ। दरवाजे पर उसने देखा–गौएं खड़ी-खड़ी सुबह से थक गई हैं, धूप
में उनका पसीना बह रहा है। उसने अपने शिष्यों को कहा, ऐसा करो, तुम गौओं को
खदेड़ कर घर ले जाओ, मैं विवाद निपटा कर आता हूं।
जनक की भी हिम्मत नहीं पड़ी यह कहने की कि यह क्या हिसाब हुआ, पहले विवाद
तो जीतो! किसी एकाध पंडित ने कहा कि यह तो नियम के विपरीत है–पुरस्कार
पहले ही!
लेकिन याज्ञवल्क्य ने कहा, मुझे भरोसा है। तुम फिक्र न करो। विवाद तो
मैं जीत ही लूंगा, विवादों में क्या रखा है! लेकिन गौएं थक गई हैं, इन पर
भी कुछ ध्यान करना जरूरी है।
शिष्यों से कहा, तुम फिक्र ही मत करो, बाकी मैं निपटा लूंगा।
शिष्य गौएं खदेड़ कर घर ले गए। याज्ञवल्क्य ने विवाद बाद में जीता।
पुरस्कार पहले ले लिया। बड़ी प्रतिष्ठा का व्यक्ति था। बहुत धन उसके पास था।
बड़े सम्राट उसके शिष्य थे। और जब वह जाने लगा, उसकी दो पत्नियां थीं, उसने
उन दोनों पत्नियों को बुला कर कहा कि आधा-आधा धन तुम्हें बांट देता हूं।
बहुत है, सात पीढ़ियों तक भी चुकेगा नहीं। इसलिए तुम निश्चिंत रहो, तुम्हें
कोई अड़चन न आएगी। और मैं अब जंगल जा रहा हूं। अब मेरे अंतिम दिन आ गए। अब
ये अंतिम दिन मैं परमात्मा के साथ समग्रता से लीन हो जाना चाहता हूं। अब
मैं कोई और दूसरा प्रपंच नहीं चाहता। एक क्षण भी मैं किसी और बात में नहीं
लगाना चाहता।
एक पत्नी तो बड़ी प्रसन्न हुई, क्योंकि इतना धन था याज्ञवल्क्य के पास,
उसमें से आधा मुझे मिल रहा है, अब तो मजे ही मजे करूंगी। लेकिन दूसरी पत्नी
ने कहा कि इसके पहले कि आप जाएं, एक प्रश्न का उत्तर दे दें। इस धन से
आपको शांति मिली? इस धन से आपको आनंद मिला? इस धन से आपको परमात्मा मिला?
अगर मिल गया तो फिर कहां जाते हो? और अगर नहीं मिला तो यह कचरा मुझे क्यों
पकड़ाते हो? फिर मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं।
और याज्ञवल्क्य जीवन में पहली बार निरुत्तर खड़ा रहा। अब इस स्त्री को
क्या कहे! कहे कि नहीं मिला, तो फिर बांटने की इतनी अकड़ क्या! बड़े गौरव से
बांट रहा था कि देखो इतने हीरे-जवाहरात, इतना सोना, इतने रुपये, इतनी जमीन,
इतना विस्तार! बड़े गौरव से बांट रहा था। उसमें थोड़ा अहंकार तो रहा ही होगा
उस क्षण में कि देखो कितना दे जा रहा हूं! किस पति ने कभी अपनी पत्नियों
को इतना दिया है! लेकिन दूसरी पत्नी ने उसके सारे अहंकार पर पानी फेर दिया।
उसने कहा, अगर तुम्हें इससे कुछ भी नहीं मिला तो यह कचरा हमें क्यों
पकड़ाते हो? यह उलझन हमारे ऊपर क्यों डाले जाते हो? अगर तुम इससे परेशान
होकर जंगल जा रहे हो तो आज नहीं कल हमें भी जाना पड़ेगा। तो कल क्यों, आज ही
क्यों नहीं? मैं चलती हूं तुम्हारे साथ।
तो जो धन बांट रहा है वह क्या खाक बांट रहा है! उसके पास कुछ और
मूल्यवान नहीं है। और जो ज्ञान बांट रहा है, पाठशालाएं खोल रहा है,
धर्मशास्त्र समझा रहा है, अगर उसने स्वयं ध्यान और समाधि में डुबकी नहीं
मारी है, तो कचरा बांट रहा है। उसका कोई मूल्य नहीं है। बांटने योग्य तो
बात एक ही है: परमात्मा। मगर उसे तुम तभी बांट सकते हो जब पाओ, जब जानो, जब
जीओ।
और जिस दिन तुम उसे जानोगे, जीओगे, अनुभव करोगे, उस दिन चकित होओगे:
तुमसे पहले बहुत लोग उसे जान चुके हैं! तुम नये नहीं हो। वह अनुभव नया नहीं
है। इस अर्थ में नया है कि तुमने उसे पहली दफा जाना। इस अर्थ में तो
प्राचीन है, सनातन है, क्योंकि बुद्ध सदा होते रहे, सदियों-सदियों में होते
रहे।
कुछ मिटे से नक्शे-पा भी हैं जुनूं की राह में
हमसे पहले कोई गुजरा है यहां होते हुए
जब तुम परमात्मा को जानोगे तब तुम पाओगे कि अरे यहां तो कुछ चरण-चिह्न
बने हुए हैं! हमसे पहले भी लोग यहां गुजरे हैं! एस धम्मो सनंतनो! यह धर्म
तो सनातन है! यह कुछ मेरा नहीं, तेरा नहीं, यह किसी का नहीं। इस घाट से
कितने ही तरे हैं, कितने ही तरते रहेंगे। अनंत-अनंत लोग आए हैं और इस नाव
से पार गए हैं, यह नाव किसी की भी नहीं है।
इसलिए धर्म न हिंदू का है, न मुसलमान का, न ईसाई का, न जैन का। धर्म तो
उनका है जिनका ध्यान है। धर्म तो उन दावेदारों का है जिन्होंने अपने ऊपर
मालकियत पा ली है।
काहे होत अधीर
ओशो
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