अंग्रेज विचारक ब्रैडले की एक प्रसिद्ध कृति है : एपियरैंस एंड
रिएलिटी: आभास और सत्य, या कहें माया और ब्रह्म। जो दिखाई पड़ता है, वह केवल
आभास है। जो दिखाई पड़ने के भीतर छिपा है। और दिखाई नहीं पड़ता, वहीं सत्य
है। तो यथार्थ के दो रूप है। एक तो जैसा दिखाई पड़ता है ऊपर-ऊपर; और एक,
जैसा है भीतर।
मैं आपको देखता हूं, तो रूप दिखाई पड़ता है, आकार दिखाई पड़ता है, शरीर
दिखाई पड़ता है, लेकिन आप दिखाई नहीं पड़ते। इस सबके भीतर छिपे हैं आप। यह सब
जो रूप है, यह सब जो दृश्य हो रहा है, यह सिर्फ बाहर की परिधि है, यह भीतर
का केंद्र नहीं है। इसलिए अगर कोई मान ले कि आपको देखकर उसने आपको जान
लिया, तो भूल हो जाएगी। जो उसने देखा, वह केवल परिधि थी।
जैसे कोई किसी के घर के बाहर की दीवालों को देखकर लौट आए। ऐसे ही आपके
शरीर को, आप में जो दृश्य है उसे देखकर जो समझ ले कि आपसे परिचित हो गया,
वह भ्रांति में पड़ गया। आप तो भीतर गहरे में छिपे हैं, जो आंख की पकड़ में
नहीं आता, हाथ के स्पर्श में नहीं आता, कान जिसे सुन नहीं सकते। इसलिए गहन
प्रेम के क्षण में ही आपको जाना जा सकता है। क्योंकि प्रेम ही वहां तक
पहुंच पाएगा, जहां तक इंद्रियां नहीं पहुंच पातीं।
यह पूरा जगत ही ऐसा है। और स्वाभाविक है कि ऐसा हो, क्योंकि किसी भी
वस्तु की परिधि होगी और केंद्र होगा, सरकमफ्रेंस होगी और सेंटर होगा। जो
बाहर से देखा जा सकता है, वह एक। और जो भीतर से ही गहन हृदय में प्रवेश
करके जाना जा सकेगा, वह दो। वही सत्य है, जो केंद्र पर है। परिधि तो रोज
बदलती रहती है।
आप मां के पेट में थे तो एक छोटे से अणु थे। अगर वह अणु आज आपके सामने
रख दिया जाए तो आप पहचान भी न सकेंगे कि कभी मैं यह था। लेकिन भीतर के
केंद्र पर उस क्षण भी आप यही थे जो आज हैं। परिधि बदल गई। आप बच्चे थे कभी,
‘कभी जवान थे, कभी के हुए परिधि बदलती चली गई। अगर आप अपने ही चित्रों को
बचपन से लेकर बुढ़ापे तक देखें, तो आप पहचान न पाएंगे कि ये एक ही आदमी के
चित्र हैं। सब बदलता चला गया है।
शरीर शास्त्री कहते हैं, शरीर प्रतिपल बदल रहा है और सात वर्ष में पूरा
शरीर बदल जाता है। अगर आप सत्तर साल जीएंगे, तो दस बार आपको नया शरीर मिल
चुका होगा।
प्रतिपल शरीर में कुछ मर रहा है। भोजन से आप नया शरीर अपने में निर्मित
करते जा रहे हैं। मल से, मूत्र से, पसीने से, बाल से, नाखून से, मरे हुए
हिस्से बाहर निकलते जा रहे हैं। इसलिए तो बाल काटने से पीड़ा नहीं होती, वह
शरीर का मरा हुआ हिस्सा है। शरीर उसे बाहर फेंक रहा है। नाखून काटने से
पीड़ा नहीं होती, वह मरा हुआ हिस्सा है।
आप जानकर चकित होंगे कि मुर्दे के भी बाल और नाखून बढ़ते हैं। मुर्दा भी
रखा रहे, तो उसके बाल और नाखून बढ़ते रहते हैं, क्योंकि बाल और नाखून से
जीवन का कोई संबंध नहीं है। वह शरीर का मरा हुआ हिस्सा है। मुर्दे का शरीर
भी उस मरे हुए हिस्से को फेंकता रहता है।
सात वर्ष में आपके शरीर के सारे कोष्ठ बदल जाते हैं, नए हो जाते हैं। यह
परिधि है आपकी। जो नदी की धार की तरह बहती चली जाती है। किसी दिन यह जन्मी
थी और किसी दिन यह समाप्त भी हो जाएगी। लेकिन भीतर जो केंद्र है, वह जब आप
एक छोटे से अणु थे, जो खाली आंख से देखा भी नहीं जा सकता, जिसे देखने के
लिए खुर्दबीन चाहिए… फिर कभी आप बच्चे थे, फिर जवान थे, कभी के थे और कभी
फिर मिट्टी में गिर गए। वह सब शरीर के तल पर हो रहा है; केंद्र अछूता है।
वह केंद्र ही सत्य है, यह परिधि आभास है। आभास इसे इसलिए कहते हैं कि इसको
ही बहुत से लोग सत्य मान लेते हैं। सत्य होने का भ्रम इससे पैदा होता है।
और ऐसा व्यक्ति के संबंध में ही नहीं, जीवन के समस्त रूपों के संबंध में
सत्य है। ये जो वृक्ष खड़े हैं, इनको आप देखते हैं। इनके पत्ते हैं, इनकी
शाखाएं है: ये वृक्ष का मूल नहीं हैं और न इस वृक्ष का केंद्र हैं, न ये
इसकी आत्मा हैं। ये भी इसकी देह हैं। इस देह के भीतर छिपी है वैसी ही
आत्मा, जैसी आपके भीतर छिपी है।
और भारत के मनीषी कहते रहे हैं कि कभी आप भी वृक्ष थे। आज आप मनुष्य
हैं, वह परिधि का परिवर्तन है। आज जो वृक्ष है, कभी वह भी मनुष्य हो जाएगा।
और यहां इतने वृक्ष खड़े हैं, ये भी सब एक जैसे नहीं हैं। इनके भी
व्यक्तित्वों में भेद है। इनमें भी मूढ़ वृक्ष हैं, इनमें भी बुद्धिमान
वृक्ष हैं। इनमें जो बुद्धिमान वृक्ष हैं, वे तीव्रता से गति कर रहे हैं,
वृक्ष की परिधि को पार करके जीवन के और ऊंचे आयाम में प्रवेश करने के लिए।
मनुष्यों में भी सभी मनुष्य एक जैसे नहीं हैं। मूढ़ हैं, जो जहां हैं वहीं
ठहरे हुए हैं। जिन्होंने परिधि को पकड़ लिया है और उसी को सत्य मान लिया है।
उनमें ज्ञानीजन हैं, जो उस परिधि को छोड्कर और श्रेष्ठतर जीवन के आयाम में
प्रवेश का प्रयत्न कर रहे हैं।
रूपों के संबंध में ही नहीं, पूरे अस्तित्व को इकट्ठा भी लें, तो
परमात्मा की जो परिधि है, उसका नाम माया है आभास, एपियरेंस। संसार उसी
परिधि का नाम है। और इस संसार के गहन गुह्य में छिपा हुआ जो केंद्र है, वही
ब्रह्म है।
कठोपनिषद
ओशो
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