जनक ने एक बहुत बड़े शास्त्रार्थ का आयोजन किया है। एक हजार गौओं, सुंदर
गौओं को, उनके सींगों को सोने से मढ़ कर, हीरे-जवाहरात जड़ कर महल के द्वार
पर खड़ा किया है कि जो भी शास्त्रार्थ में विजेता होगा वह इन गौओं को ले
जाएगा।
ऋषि-मुनि आए हैं, बड़े विद्वान पंडित आए हैं। विवाद चल रहा है, कौन
जीतेगा पता नहीं! दोपहर हो गई, गौएं धूप में खड़ी हैं। तब याज्ञावल्क्य
आया–उस समय का एक अदभुत ऋषि, रहा होगा मेरे जैसा आदमी! आया अपने शिष्यों के
साथ–रहे होंगे तुम जैसे संन्यासी। महल में प्रवेश करने के पहले अपने
शिष्यों से कहा कि सुनो, गौओं को घेरकर आश्रम ले जाओ, गौएं थक गई,
पसीने-पसीने हुई जा रही हैं। रहा विवाद, सो मैं जीत लूंगा।
हजार गौएं, सोने से मढ़े हुए उनके सींग, हीरे-जवाहरात जुड़े हुए
याज्ञवल्क्य की हिम्मत देखते हो! यह कोई अभौतिकवादी है? और इसकी हिम्मत
देखते हो, और इसका भरोसा देखते हो! यह भरोसा केवल उन्हीं को हो सकता है
जिन्होंने जाना है। पंडित विवाद कर रहे थे। वे तो आंखें फाड़े, मुंह फाड़े रह
गए–जब उन्होंने देखा कि गौएं तो याज्ञवल्क्य के शिष्य घेर कर ले ही गए!
उनकी तो बोलती बंद हो गई। किसी ने खुसफुसाया जनक कोकि यह क्या बात है, अभी
जीत तो हुई नहीं है! लेकिन याज्ञवल्क्य ने कहा कि जीत होकर रहेगी, मैं आ
गया हूं। जीत होती रहेगी, लेकिन गौएं क्यों तड़फें?
और याज्ञवल्क्य जीता। उसकी मौजूदगी जीत थी। उसके वक्तव्य में बल था
क्योंकि अनुभव था। अब जिसके आश्रम में हजार गौएं हों, सोने के मढ़े हुए सींग
हों, उसका आश्रम कोई दीन-हीन आश्रम नहीं हो सकता। उसका आश्रम सुंदर रहा
होगा, सुरम्य रहा होगा, सुविधापूर्ण रहा होगा।
आश्रम समृद्ध थे। उपनिषद और वेदों में दरिद्रता की कोई प्रशंसा नहीं है,
कहीं भी कोई प्रशंसा नहीं है। दरिद्रता पाप है, क्योंकि और सब पाप
दरिद्रता से पैदा होते हैं। दरिद्र बेईमान हो जाएगा, दरिद्र चोर हो जाएगा,
दरिद्र धोखेबाज हो जाएगा। स्वाभाविक है, होना ही पड़ेगा।
समृद्धि से सारे सदगुण पैदा होते हैं, क्योंकि समृद्धि तुम्हें अवसर
देती है कि अब बेईमानी की जरूरत क्या है? जो बेईमानी से मिलता है वह मिला
ही हुआ है।
लेकिन एक समय आया इस देश का, जब पश्चिम से लुटेरे आए, सैकड़ों हमलावर
आए–हूण आए, तर्क आए, मुगल आए, फिर अंग्रेज, पुर्तगीज–और यह देश लुटता ही
रहा, लुटता ही रहा! और यह देश दीन होता चला गया।
और ध्यान रखना, मनुष्य का मन हर चीज के लिए तर्क खोज लेता है। जब यह देश
बहुत दीन हो गया तो अब अपने अहंकार को कैसे बचाएं! तो हमने दीनता की
प्रशंसा शुरू कर दी। हम कहने लगे: अंगूर खट्टे हैं। जिन अंगूरों तक हम
पहुंच नहीं सकते उनको हम खट्टे कहने लगे! और हम कहने लगे अंगूरों में हमें
रस ही नहीं है। जैसे हम दरिद्र हुए वैसे ही हम दरिद्रता का यशोगान करने
लगे। यह अपने अहंकार को समझाना था, लीपा-पोती करनी थी। और अब भी यह
लीपा-पोती चल रही है। इसे तोड़ना होगा।
यह देश समृद्ध हो सकता है, इस देश की भूमि फिर सोना उगल सकती है। मगर
तुम्हारी दृष्टि बदले तो। तुम्हारे भीतर वैज्ञानिक सूझ-बूझ पैदा हो तो। कोई
कारण नहीं है दरिद्र रहने का और एक बार तुम समृद्ध हो जाओ तो तुम्हारे
भीतर भी आकाश को छूने की आकांक्षा बलवती होने लगेगी। फिर करोगे क्या? जब धन
होता, पद होता, प्रतिष्ठा होती, सब होता है, फिर तुम प्रश्न जीवन के–
आत्यंतिक प्रश्न–उठने शुरू होते हैं…
मैं कौन हूं? ये भरे पेट ही उठ सकते
हैं। भूखे भजन न होइ गोपाला। यह भजन, यह कीर्तन, यह गीत, यह आनंद यह उत्सव
भरे पेट ही हो सकता है। और परमात्मा ने सब दिया है। अगर वंचित हो तो तुम
अपने कारण से वंचित हो। अगर वंचित हो तो तुम्हारी गलत धारणाओं के कारण तुम
वंचित हो।
एमी झरत बिसगत कँवल
ओशो
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