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Saturday, July 30, 2016

मृत्यु

एक महान सम्राट को स्वप्न आया कि उसके सामने एक काली छाया खड़ी है। यहां तक कि स्वप्न में भी वह भय से कांप उठा। उसने छाया से पूछा, मेरी नींद में मुझे इतना भयभीत करने में क्या सार है

छाया बोली, यह तुम्हारे ही हित में है। मैं तुम्हारी मौत हूं। और कल शाम जब सूरज डूबने लगेगा तब मैं फिर तुमसे मिलने आऊंगी। केवल करुणावश मैं तुम्हें आगाह करने आयी हूं। तुम भले आदमी हो, इसलिए तुम्हारे लिए यह अपवाद किया गया है। मैं लोगों को यह कभी नहीं बताती कि वे कब मरने वाले हैं। तो यदि तुम कुछ करना चाहते हो, तो तुम्हारे पास अब भी बारह घंटे का समय है। तुम्हारी कुछ करने की इच्छा रह गई हो तो कर लो। यह तुम्हारा आखिरी दिन है। 

वह इतना घबड़ा गया कि उस घबराहट में उसकी नींद खुल गई। वह स्वप्न खो गया। वह पसीने से तर बतर था। वह स्वप्न नहीं, दुःस्वप्न था और उसके मन में बड़ा संभ्रम था कि इसमें कोई तथ्य है या नहीं? उस आधी रात में उसने राजधानी के सारे ज्योतिषियों को बुलाया—यह जानने के लिए कि उस स्वप्न का मतलब क्या है। वे सब ज्योतिष शास्त्र के विभिन्न मतों के ग्रंथ लेकर आए। और आपसे में चर्चा करने लगे लड़ने लगे।  

जब सूर्यास्त होने के करीब था, उसका बूढ़ा नौकर, जो उसके पिता तुल्य था...क्योंकि जब उसके पिता की मृत्यु हुई थी तब वह बिलकुल छोटा था, और इस बूढ़े नौकर ने उसकी सब तरह से देखभाल की थी, उसकी सुरक्षा की, उसके साम्राज्य का संरक्षण किया, उसका राज्याभिषेक किया। उस बूढ़े आदमी का वह सम्राट बहुत समादर करता था। उस बूढ़े आदमी ने उसके कानों में धीरे से कहा मेरा सुझाव मानें तो...आपने ये जो मूढ़ इकट्ठे किए हैं यहां पर, वे समय के अंत तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे। वे सदियों—सदियों से चर्चा करते रहे हैं। उनकी चर्चा शालीन है। चर्चा करने में उनकी निपुणता वर्णनातीत है। लेकिन अभी आपको उनके प्रकांड पांडित्य की जरूरत नहीं है। इस समय आपको जरूरत है एक खास निर्णय की। और हमारे पास ज्यादा समय नहीं है। मेरा सुझाव तो यह है कि आपके पास विश्व का श्रेष्ठतम घोड़ा है। यह घोड़ा लो, और कम से कम इस महल से और इस राजधानी से जितना दूर भाग सको, उतना भाग सको, उतना भाग जाओ। 


यह बात राजा को जंच गई। उसने उन ज्योतिषियों को उसी  तरह चर्चा करते हुए छोड़ दिया और वह उस महल से भाग गया। जब तुम्हारे सामने मौत खड़ी हो तो न तुम्हें भूख लगती है, न प्यास लगती है और न ही विश्राम करने की जरूरत महसूस होती है। वह राजधानी से जितना दूर हो सके उतनी दूर भागना चाहता था। उसने अपने राज्य की सीमाएं पार कर लीं। सूरज डूबते डूबते वह एक सुंदर बगीचे में, राज्य से सैकड़ों मील दूर पहुंच गया था। जब वह अपना घोड़ा एक वृक्ष से बांध रहा था, तो उसने घोड़े को धन्यवाद देते हुए कहा, मैं जानता था कि तुम दुनिया के श्रेष्ठतम घोड़े हो, लेकिन आज तुमने इसे सिद्ध कर दिया है। तुम हवा की गति से दौड़े हो और तुमने मुझे सारे भय से बाहर कर दिया है। जो ये ज्योतिषी नहीं कर सके, तह तुमने कर दिखाया। 

और ठीक उसी क्षण सूरज डूबा, और अचानक उसने अपने कंधे पर किसी हाथ का अनुभव किया। उसने पीछे देखा। वही पुरानी काली छाया, जिसे उसने स्वप्न में देखा था। वहां खड़ी थी। उसने कहा, तुम्हारा घोड़ा तो सचमुच सर्व श्रेष्ठ है। न केवल तुम्हें बल्कि मुझे भी उसे धन्यवाद देना चाहिए। 
क्योंकि मुझे बड़ी फिकर थी। क्योंकि इसी स्थान में, इसी समय तुम्हें करना था। तुझे चिंता थी कि तुम यहां किस तरह पहुंचोगे। लेकिन तुम्हारा घोड़ा एक चमत्कार है। वह तुम्हें ठीक जगह, ठीक समय पर ले आया। 

तुम्हारे जीवन भर तुम मृत्यु से डरते हो। तुम अपन को उलझाए रखते हो। तुम इस तथ्य को स्वीकार करना नहीं चाहते कि मौत छाया की तरह तुम्हारा पीछा कर रही है। और कोई नहीं जानता, अगले क्षण क्या होने वाला है। लोग इस तरह जगत में जीते हैं जैसे वे यहां सदा रहने वाले हैं। और वे अच्छी तरह जानते हैं कि यहां कोई सदा के लिए नहीं है। लेकिन ये सारे भयभीत लोग—मृत्यु से भयभीत, बीमारी से भयभीत, असफलता से भयभीत—धूर्त लोगों के शिकार हो जाते हैं। 
 
फिर अमीरत की बून्द पड़ी 
 
ओशो 

Monday, July 18, 2016

विवेक रक्षा

इन दो छोटे शब्दों में बहुत कुछ छिपा है। सब साधना का सार छिपा है। एक ढंग तो है व्यवस्था से जीने का। क्या करना है, यह हम पहले ही तय कर लेते हैं। कहां से जाना है, कैसे गुजरना है, यह हम पहले ही तय कर लेते हैं। क्योंकि हमारा अपनी ही चेतना पर कोई भरोसा नहीं। इसलिए हम सदा ही भविष्य का चिंतन करते रहते हैं और इसीलिए हम सदा ही अतीत की पुनरुक्ति करते रहते हैं। क्योंकि जो हमने कल किया था, उसी को आज करना सुगम पड़ता है, क्योंकि उसे हम जानते हैं, परिचित हैं, पहचाना हुआ है।

लेकिन संन्यासी जीता है क्षण में अभी और यहीं। अतीत को दोहराता नहीं, क्योंकि अतीत को केवल मुर्दे दोहराते हैं। भविष्य की योजना नहीं करता, क्योंकि भविष्य की योजना केवल अंधे करते हैं। इस क्षण में उसकी चेतना जो उसे कहती है, वही उसका कृत्य बन जाता है। इस क्षण के साथ ही सहज जीता है। खतरनाक है यह।

इसलिए उपनिषद कहता है, विवेक ही उसकी रक्षा है।

होशपूर्वक जीता है, बस इतनी ही उसकी रक्षा है। और उसके पास कोई उपाय नहीं है। होशपूर्वक जीता है। पहले से तय नहीं करता कि कसम खाता हूं क्रोध नहीं करूंगा।

जो आदमी ऐसी कसम खाता है, पक्का ही क्रोधी है। एक तो तय है बात कि वह क्रोधी है। यह भी तय है कि वह जानता है कि मैं क्रोध कर सकता हूं। यह भी वह जानता है कि अगर कसमों का कोई आवरण खड़ा न किया जाए, तो क्रोध की धारा कभी भी फूट सकती है। इसलिए अपने ही खिलाफ इंतजाम करता है कसम खाता है, क्रोध नहीं करूंगा। फिर कल कोई गाली देता है और क्रोध फूट पड़ता है। फिर और गहरी कसमें खाता है, नियम बांधता है, संयम के उपाय करता है, लेकिन क्रोध से छुटकारा नहीं होता। क्योंकि जिस मन ने नियम लिया था और मर्यादा बांधी थी और जिस मन ने कसम खाई थी उतना ही मन नहीं है; मन और बड़ा है, बहुत बड़ा है।

तो जो मन तय करता है कि क्रोध नहीं करेंगे, जब गाली दी जाती है तो मन के दूसरे हिस्से क्रोध करने के लिए बाहर आ जाते हैं। वह छोटा सा हिस्सा जिसने कसम खाई थी, पीछे फेंक दिया जाता है। थोड़ी देर बाद जब क्रोध जा चुका होगा, वह हिस्सा, जिसने कसम खाई थी, फिर दरवाजे पर आ जाएगा मन के। पछताएगा, पश्चात्ताप करेगा, कहेगा, बहुत बुरा हुआ। कसम खाई थी, फिर कैसे किया क्रोध! लेकिन क्रोध के क्षण में इस हिस्से का कोई भी पता नहीं था।
 
मन का बहुत छोटा सा हिस्सा हमारा जागा हुआ है। शेष सोया हुआ है। क्रोध आता है सोए हुए हिस्से से और कसम ली जाती है जागे हुए हिस्से से। जागे हुए मन की कोई खबर सोए हुए मन को नहीं होती। सांझ आप तय कर लेते हैं, सुबह चार बजे उठ आना है। और चार बजे आप ही करवट लेते हैं और कहते हैं, आज न उठें तो हर्ज क्या है! कल से शुरू कर देंगे। छह बजे उठकर आप ही पछताते हैं कि मैंने तो तय किया था चार बजे उठने का, उठा क्यों नहीं। निश्चित ही आपके भीतर एक मन होता, तो ऐसी दुविधा पैदा न होती।

लगता है, बहुत मन हैं। मल्टी साइकिक है आदमी। ऐसा भी कह सकते हैं कि एक आदमी एक आदमी नहीं, बहुत आदमी हैं एक साथ, भीड़ है, क्राउड़ है। उसमें एक आदमी भीतर कसम खा लेता है सुबह चार बजे उठने की, बाकी पूरी भीड़ को पता ही नहीं चलता। सुबह उस भीड़ में से जो भी निकट होता है, वह कह देता है, सो जाओ, कहो की बातों में पड़े हो! ऐसी हमारी जिंदगी नष्ट होती है।


नियम से बंधकर जीने वाला व्यक्ति कभी भी, कभी भी परम सत्य के जीवन की तरफ कदम नहीं उठा पाता है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि नियम तोड़कर जीएं। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि मर्यादाएं छोड़ दें। उस फकीर ने भी उस अंधे को नहीं कहा था कि जब तक आंख ठीक न हो जाए, तो तू अपनी लकड़ी फेंक दे। मैं भी नहीं कहता हूं। लकड़ी रखनी ही पड़ेगी, जब तक आंख फूटी है; लेकिन लकडी को ही आंख समझ लेना नासमझी है। और यह जिद करना कि आंख खुल जाएगी, तब भी हम लकड़ी को सम्हालकर ही चलेंगे, पागलपन है।


संन्यासी वह है, जो अपने को जगाने में लगा है। और इतना जगा लेता है अपने भीतर सारे सोए हुए अंगों को, अपने सारे खंडों को जगाकर एक कर लेता है। उस अखंड चेतना का नाम विवेक है इंटीग्रेटेड कांशसनेस। जब मन टुकड़े—टुकड़े नहीं रह जाता, इकट्ठा हो जाता है और एक ही व्यक्ति भीतर हो जाता है, ही का मतलब हो और न का मतलब न होने लगता है। उस एक सुर से बंध गई चेतना का नाम विवेक है। जागी हुई चेतना का नाम विवेक है। होश से भर गई चेतना का नाम विवेक है।

निर्वाण उपनिषद 

ओशो 

ग्यारहवीं दिशा

ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन हज यात्रा के लिए गया, मक्का गया। साथ में दो मित्र और थे; एक था नाई और एक था गांव का महामूर्ख। वह महामूर्ख गंजा था। एक रात वे भटक गए रेगिस्तान में; गांव तक न पहुंच पाए। रात रेगिस्तान में गुजारनी पड़ी। तो तीनों ने तय किया कि एक एक पहर जागेंगे, क्योंकि खतरा था। अनजान जगह थी। चारों तरफ सुनसान रेगिस्तान था। पता नहीं डाकू हों, लुटेरे हों, जानवर हों।

पहली ही घड़ी, रात का पहला हिस्सा, नाई के जुम्मे पड़ां। दिनभर की थकान थी: उसे नींद भी सताने लगी, डर भी लगने लगा। रात का गहन अंधकार! चारों तरफ रेगिस्तान की सांय सांय! से कुछ सूझा न कि कैसे अपने को जगाए रखे। तो उसने सिर्फ अपने को काम में लगाए रखने के लिए मुल्ला नसरुद्दीन की खोपड़ी के बाल साफ कर दिए सिर्फ काम में लगाए रखने को! और वह कुछ जानता भी नहीं था; नाई था। नंबर दो पर मुल्ला नसरुद्दीन की बारी थी। तो जब उसका समय पूरा हो जगया तो नसरुद्दीन को उठाया कि बड़े मियां। तो नसरुद्दीन ने जागने के लिए अपने सिर पर हाथ फेरा, पाया कि सिर सपाट है। उसने कहा, जरूर कोई भूल हो गई है। तुमने मेरी जगह उस गंजे मूर्ख को उठा लिया है।

हमारी पहचान बाहर से है। हम जानते हैं अपने संबंध में वही जो दूसरे कहते हैं। भीतर से अपने को हमने कभी जाना नहीं। हमारी सब पहचान झूठी है। जिस दिन हम अपने को अपने ही तईं जानेंगे, उसी दिन सच्ची पहचान होगी। उसे ही आत्मज्ञान कहा है।


फिर चूंकि इंद्रियां बाहर हैं, इसलिए हम सोच लेते हैं कि सभी कुछ बाहर है। तो हम प्रेम को भी बाहर खोजते हैं और प्रेम का झरना भीतर बह रहा है; हम धन को भी बाहर खोजते हैं और भीतर परम धन अहर्निश बरस रहा है; हम आनंद को भी बाहर खोजते हैं और भीतर एक क्षण को भी आनंद से हमारा संबंध नहीं टूटा है। प्यासे हम तड़पते हैं; रेगिस्तानों में भटकते हैं; द्वार द्वार भीख मांगते हैं और भीतर अमृत का झरना बहा जा रहा है। भीतर हम सम्राट हैं। इंद्रियों के साथ ज्यादा जुड़ जाने के कारण और तादात्म्य बाहर बन जाने के कारण, हम भिखारी हो गए हैं। यही नहीं कि हम धन बाहर खोजते हैं, यश बाहर खोजते हैं, स्वयं को बाहर खोजते हैं; हम परमात्मा तक को बाहर खोजने लगते हैं जो कि हद हो गई अज्ञान की। तो हम मंदिर बनाते हैं, मस्जिद बनाते हैं, गुरुद्वारा बनाते हैं, परमात्मा की प्रतिमा बनाते हैं हम बाहर से इस भांति आंक्रांत हो गए हैं कि हमें याद ही नहीं आती कि भीतर का भी एक आयाम है।


अगर किसी से पूछो, कितनी दिशाएं हैं, तो वह कहता है, दस। आठ चारों तरफ, एक ऊपर, एक नीचे; ग्यारहवीं दिशा की कोई बात ही नहीं करता भीतर। और वही हमारा स्वभाव है, क्योंकि हम भीतर से ही बाहर की तरफ आए हैं। हमारा घर तो भीतर है। गंगोत्री तो भीतर है जहां से बही है जीवन की धारा।

सुनो भई साधो 

ओशो 


आंख और आंख के पीछे तुम्हारी देखने की क्षमता

आंख नहीं देखती है; आंख के भीतर से तुम्हारी दृष्टि देखती है। इसलिए कभी कभी ऐसा हो जाता है कि तुम खुली आंख बैठे हो, कोई रास्ते से गुजरता है और दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि तुम्हारी दृष्टि कहीं और थी; तुम किसी और सपने में खोए थे भीतर; तुम कुछ और सोच रहे थे। आंख बराबर खुली थी, जो निकला उसकी तस्वीर भी बनी; लेकिन आंख और दृष्टि का तालमेल नहीं था; दृष्टि कहीं और थी वह कोई सपना देख रही थी, या किसी विचार में लीन थी।

तुम्हारे घर में आग लग गई है। तुम भागे बाजार से चले आ रहे हो। रास्ते पर कोई जयरामजी करता है सुनाई तो पड़ता है, पता नहीं चलता; कान तो सुन लेते हैं, लेकिन कान के भीतर से जो असली सुनने वाला है, वह उलझा है। मकान में आग लगी है दृष्टि वहां है। तुम भागे जा रहे हो, किसी से टकराहट हो जाती है पता नहीं चलता। पैर में कांटा गड़ जाता है दर्द तो होता है, शरीर तो खबर भेजता है; पता नहीं चलता। जिसके घर में आग लगी हो, उसको पैर में गड़े कांटे का पता चलता है?

इसलिए छोटे दुख को मिटाने की एक ही तरकीब है: बड़ा दुख। फिर छोटे दुख का पता नहीं चलता। इसीलिए तो लोग दुख खोजते हैं। बड़े दुख के कारण छोटे दुख का पता नहीं चलता। फिर दुखों का अंबार लगाते जाते हैं। ऐसे ही तो तुमने अनंत जन्मों में अंनत दुख इकट्ठे किए हैं। क्योंकि तुम एक ही तरकीब जानते हो; अगर कांटे का दर्द भुलाना हो तो और बड़ा कांटा लगा लो; घर में परेशानी हो, दुकान की परेशानी खड़ी कर लो घर की परेशानी भूल जाती है; दुकान में परेशानी हो, चुनाव में खड़े हो जाओ दुकान की परेशानी भूल जाती है। बड़ी परेशानी खड़ी करते जाओ। ऐसे ही आदमी नरक को निर्मित करते हैं। क्योंकि एक ही उपाय दिखाई पड़ता है यहां कि छोटा दुख भूल जाता है, अगर बड़ा दुख हो जाए।
 
मकान में आग लगी हो, पैर में लगा कांटा पता नहीं चलता। क्यों? कांटा गड़े तो पता चलना चाहिए। हॉकी के मैदान पर युवक खेल रहा है; पैर में चोट लग जाती है, खून की धारा बहती है पता नहीं चलता। खेल बंद हुआ, रेफरी की सीटी बजी एकदम पता चलता है। अब मन वापस लौट आया दृष्टि आ गई।

तो ध्यान रखना, तुम्हारी आंख और आंख के पीछे तुम्हारी देखने की क्षमता अलग चीजें हैं। आंख तो खिड़की है, जिससे खड़े होकर तुम देखते हो। आंख नहीं देखती; देखनेवाला आंख पर खड़े होकर देखता है। जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि देखनेवाला और आंख अलग हैं; सुननेवाला और कान अलग हैं: उस दिन कान को छोड़कर सुननेवाला भीतर जा सकता है; आंख को छोड़कर देखनेवाला भीतर जा सकता है इंद्रिय बाहर पड़ी रह जाती है। इंद्रिय की जरूरत भी नहीं है। अतीन्द्रिय, तुम अपने परम बोध को अनुभव करने लगते हो; अपनी परम सत्ता की प्रतीति होने लगती है।
  
सुनो भाई साधो 

ओशो

दोनों के पार

ध्यान रहे मन कि आदत विश्‍लेषण करने की है। और योग है संश्‍लेषण, तो जब कभी मन विश्लेष ण करे, उसे उठाकर एक तरफ रख देना। विश्‍लेषण के द्वारा तुम अंतिम छोर तक, छोटे से छोटे, अणु परिमाणु तक पहुंच जाओगे। लेकिन संश्‍लेषण के द्वारा तुम विराट और समग्र तक पहुंच जाओगे। विज्ञान खोज करते-करते अणु तक जा पहुंचा। और योग खोजते-खोजते, आत्‍मा तक पहुंच गया। अणु का अर्थ है: लघु और छोटा, और आत्‍मा का अर्थ है, विराट। योग ने संपूर्ण को जाना है, समग्र हो अनुभव किया है। और विज्ञान ने छोटे और उससे भी छोटे तत्‍व को जाना है। और इसी तरह वह लधु की और चलता जा रहा है।


पहले तो विज्ञान ने पदार्थ को अणु में विभाजित किया। फिर विज्ञान ने पाया कि अणु को विभाजित करना कठिन है; फिर जब वे अणु का भी विभाजन करने में सफल हो गए, तो उन्‍होंने उसे परमाणु कहा। अणु का अर्थ ही होता है वह तत्‍व जो अविभाज्‍य जिसे अब और अधिक विभाजित न किया जा सके। लेकिन विज्ञान ने उसे भी विभाजित कर दिया। फिर विज्ञान इलेक्ट्रॉन न न्यूट्रॉन तक जा पहुंचा, और उसने सोचा कि अब और विभाजन संभव नहीं है। क्‍योंकि पदार्थ लगभग अदृश्‍य ही हो गया था। उसे अब देखना संभव नहीं था। जब इलेक्ट्रॉन दिखाई ही नहीं देता, तो कैसे उसका विभाजन संभव हो सकता है। लेकिन अब विज्ञान उसे भी विभाजित करने में सफल हो गया है। बिना इलेक्ट्रॉन को देखे, वैज्ञानिकों के उसको भी विभक्‍त कर दिया है।

वैज्ञानिक इसी तरह से चीजों को विभक्‍त करते चले जाएंगे……अब सभी कुछ हाथ के बाहर हो गया है।

योग ठीक इसके विपरीत प्रक्रिया है: योग संश्‍लेषण की प्रक्रिया है। योग जुड़ते जाने की और अधिकाधिक जुड़ते जाने की प्रक्रिया है, जिससे अंत में व्‍यक्‍ति अपने पूर्ण स्‍वरूप तक जा पहुंचे, स्‍वयं के साथ एक हो जाए। अस्‍तित्‍व एक है।

मन को भी सूर्य-मन, और चंद्र-मन में विभक्‍त किया जा सकता है। सूर्य मन वैज्ञानिक होता है, चंद्र मन काव्यात्मक होता है। सूर्य-मन विश्‍लेषणात्‍मक होता है, चंद्र-मन संश्‍लेषणात्‍मक होता है। सूर्य-मन गणितीय, तार्किक, अरस्‍तुगत होता है। चंद्र-मन बिलकुल अलग ही ढंग का होता है असंगत होता है। अतार्किक होता है। सूर्य-मन और चंद्र-मन दोनों इतने अलग-अलग ढंग से कार्य करते है कि उनके बीच कही कोई संवाद नहीं हो पाता।


तुम कौन से केंद्र पर हो इसको जानने का प्रयत्‍न करो, तुम सूर्य-मन हो तब गणित और तर्क तुम्‍हारे जीवन की शैली है। अगर तुम चंद्र-मन हो तो तो काव्‍य, कल्‍पनाशीलता तुम्‍हारी जीवन-शैली होगी। तो तुम क्‍या हो और तुम्‍हारी क्‍या स्‍थिति है, पहले तो इसे जानना जरूरी है।
 
और ध्‍यान रहे, दोनों मन आधे-आधे होते है, तुम्‍हें दोनों के ही पार जाना है। अगर तुम सूर्य मन हो तो पहले चंद्र मन तक आना होगा। फिर उसके भी आगे जाना है। अगर तुम गृहस्‍थ हो, तो पहले जिप्‍सी हो जाओ।

यही है, संन्‍यास। मैं तुम्‍हें जिप्‍सी बना रहा हूं, घुमक्कड़ बना रहा हूं। अगर तुम बहुत ज्‍यादा तार्किक हो, तो मैं तुमसे कहता हूं, श्रद्धा करो, समर्पण करो, त्‍याग करो, सर्व-स्‍वीकार भाव से झुको। अगर तुम बहुत ज्‍यादा तार्किक हो, तो मैं तुम से कहूंगा कि यहां तर्क की कोई जरूरत नहीं है, बस मेरी और देखो और प्रेम में डूब जाओ। अगर ऐसा कर सको तो अच्‍छा है, क्‍योंकि यह एक प्रेम का नाता है। अगर तुम श्रद्धा में जी सकते हो, तो तुम्‍हारी ऊर्जा सूर्य से चंद्र की और सरक जाएगी।

पतंजलि योगसूत्र 

ओशो 
जब तुम्‍हारी ऊर्जा सूर्य से चंद्र की और सरक जाती है। तो एक नयी ही संभावना का द्वार खुलता है। तुम फिर चंद्र के भी पार जा सकत हो, तब तुम साक्षी हो जाते हो, और वही है उद्देश्‍य, वही है मंजिल।

परमात्मा असीम है

कुछ ही दिन पहले एक महिला पश्चिम से आयी। यहाँ छः महीने से आकर है। मेरे पास आने से डरती रही। फिर हिम्मत जुटाकर आयी भी तो कहा कि मैं आपके संग साथ हो नहीं सकती, क्योंकि मैं केथॅलिक ईसाई हूँ। मैं कैसे आपके संग साथ हो सकती हूँ? मैं क्राइस्ट को नहीं छोड़ सकती। मैंने उससे कहा पागल, तुझसे कहा किसने है कि क्राइस्ट को छोड़! मुझे छोड़ने में ही क्राइस्ट को छोड़ देगी, मुझे पकड़ने में क्राइस्ट को पा लेगी। नहीं, लेकिन वह सुनने को भी राजी नहीं थी। उसने सुना भी नहीं कि मैं क्या कह रहा हूँ। वह अपनी ही कहे गयी कि यह कभी नहीं हो सकता। मैं अपने धर्म को नहीं छोड़ सकती। ईसाइयत तो श्रेष्ठतम धर्म है।

अब यह महिला मधुशाला के द्वार से ही लौट जाएगी। यह कहती है मैं भीतर नहीं आ सकती, क्योंकि मैं ईसाई हूँ। जो ईसाई है, वह परमात्मा में नहीं आ सकता। और जो हिंदू है, वह भी नहीं आ सकता। और जो जैन है, वह भी नहीं आ सकता। जो सीमाओं को पकड़े हुए है, वह परमात्मा में नहीं जा सकता। परमात्मा न हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई। परमात्मा असीम है।
 
और मजा ऐसा है कि हिंदुओं के शास्त्र कहते परमात्मा असीम है, और मुसलमानों के शास्त्र कहते परमात्मा असीम है, मगर हमने सीमाएँ बना ली हैं। हम हर चीज से सीमा बना लेते हैं। हम हर चीज से सीमित हो जाते हैं। हमें कारागृहों से कुछ ऐसा मोह है, हमें जंजीरों से कुछ ऐसा लगाव है, हम जंजीरों को आभूषण समझते हैं और हम उनको खूब सजा लेते हैं। सोने की बना ली हैं जंजीरें और उन पर बहुमूल्य हीरे जड़ लिए हैं, अब उनको छोड़ें भी तो कैसे छोड़ें, जीवन भर तो उन पर बरबाद कर दिया है। हम कहते हैं कि नहीं नहीं, ये जंजीरें नहीं हैं, ये मेरी सीमा नहीं हैं, यह मेरा सत्व है। ब्राह्मण मेरा सत्व है, शूद्र मेरा सत्व है, यह मेरी सीमा नहीं है। फिर सीमा और क्या होती?


आदमी पर सीमाएँ क्या हैं? यही क्षुद्र बातें। इन सारी क्षुद्रताओं को जो गिरा देता है, उसने सीमाएँ गिरा दीं। और जिसने सीमाएँ गिरा दीं, उसने घोषणा की कि परमात्मा असीम है। शास्त्र में लिखने से कुछ भी न होगा, तुम्हारे अस्तित्व से घोषणा होनी चाहिए।

संतो मगन भया मन मेरा 

ओशो 


वासनाएं आपके सहयोग से जीती हैं

एक अमेरिकन यात्री ने लिखा है कि वह पहली दफा जापान गया और जब वह टोकियो के एअरपोर्ट के बाहर आया कोई तीस साल पहले की घटना है तो उसने देखा कि वहां दो आदमी लड़ रहे हैं। लड़ नहीं रहे हैं, सिर्फ एक दूसरे को गालियां देते हैं, घूसे दिखाते हैं, मुंह बनाते हैं, जैसे जान ले लेंगे। और बड़ी एक भीड़ खड़ी हुई देख रही है। यह बड़ी देर तक चलता रहा। वह भी खड़े होकर देखता रहा। उसे तो कुछ समझ में न आया कि मामला क्या है! जब लड़ाई ही होनी है और इतने जोर शोर से तैयारी चल रही है, तो होती क्यों नहीं? वे बिलकुल पास आ जाते हैं एक दूसरे के और फिर दूर हट जाते हैं।


तो उसने एक आदमी से पूछा कि मामला क्या है? यह इतनी देर से चल रहा है शोरगुल। इतनी भूमिका बांधी जा रही है! इतनी देर में तो कभी का मामला खतम हो जाता। और आप सब लोग खड़े होकर देख क्या रहे हैं?

उस आदमी ने कहा, हम यह देख रहे हैं कि इनमें से पहले कौन हारता है? मतलब इनमें से पहले कौन क्रोधित होता है! ये दोनों एक दूसरे को क्रोधित करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अभी दोनों क्रोधित नहीं हैं। सिर्फ यह देख रहे हैं। जो क्रोधित हो गया, वह हार गया। भीड़ हट जाएगी, क्योंकि उसने संयम खो दिया। वह आदमी गया; उसका कोई मूल्य नहीं है। मारपीट की जरूरत नहीं है। क्रोधित कौन पहले होता है? ये अभी दोनों संयत हैं और ये सब गालियां वगैरह दूसरे को उकसाने के लिए दी जा रही हैं! जैसे ही एक आदमी इनमें से फूट पड़ेगा, वस्तुत: क्रोधित हो जाएगा, भीड़ विदा हो जाएगी। हार हो चुकी। कौन जीतता है, यह सवाल नहीं है; कौन पहले क्रोध से हार जाता है, यह सवाल है।


जापान ने श्वास के ऊपर बड़े प्रयोग किए हैं। और बड़े से बड़ा प्रयोग यह है कि जब भी कोई वासना मन को पकड़े, तो आप गहरी श्वास लें। सिर्फ गहरी श्वास न लें, श्वास को होशपूर्वक भी लें श्वास भीतर गई, बाहर गई और उतने में ही आप पाएंगे कि सारी वासना तिरोहित हो गई। उसे दमन भी नहीं करना पड़ा। उससे लड़ना भी नहीं पड़ा। उसे हटाने के लिए भी कोई प्रयास नहीं करना पड़ा। सिर्फ चित्त कहीं और चला गया। और जब चित्त हट जाता है, तो संपर्क टूट जाता है। जब चित्त हट जाता है, तो सहयोग टूट जाता है। जब चित्त हट जाता है, तो जो ऊर्जा आप दे रहे थे वासना को, वह उसे नहीं मिलती, वह मर जाती है।


सब वासनाएं आपके सहयोग से जीती हैं। जो व्यक्ति किसी भी तरह की सुरति को साध ले, उस व्यक्ति का हृदय निर्मल हो जाएगा। बुद्धि शुद्ध हो जाएगी। विवेक साफ सुथरा हो जाएगा। और ऐसे विवेक, ऐसे हृदय और ऐसी सुरति के सध गए चित्त में परमात्मा की प्रतीति होती है।

जो इसको जानते हैं वे अमृतस्वरूप हो जाते हैं।

कठोपनिषद 

ओशो 

अंधकार

समस्त इंद्रियों के रस किसी गहन मूर्च्छा में लिए जाते हैं। जागेंगे तो इंद्रियों के पार जाने लगेंगे। सोएंगे तो इद्रियों के पास आने लगेंगे। जितनी होगी निद्रा, उतनी होगी निकटता। इसलिए प्रकृति के उपासक को मूर्च्‍छित होना ही होगा। इंद्रियों के उपासक को किसी न किसी तरह की बेहोशी खोजनी ही पड़ेगी। इसलिए अगर इंद्रियों के उपासक धीरे धीरे मूर्च्छा के अनेक अनेक उपायों को खोज लेते हैं, इंटाक्सिकेंट्स को खोज लेते हैं, शराब को खोज लेते हैं, तो आश्चर्य नहीं। असल में इंद्रियों का भक्त बहुत दिन तक शराब से दूर नहीं रह सकता। इसलिए जहां जितना इंद्रियों का उपासक बढ़ेगा वहां उतनी ही शराब और बेहोशी के नए नए उपाय बढ़ते चले जाएंगे।

इंद्रियों की साधना के लिए, उपासना के लिए चित्त जितना अजागरूक हो, जितना विवेकशून्य हो, उतना अच्छा है। क्रोध करना हो, कि लोभ करना हो, कि काम से भरना हो तो चित्त का मूर्च्‍छित होना जरूरी है, बेहोश होना जरूरी है। इस बेहोशी की स्थिति में ही हम प्रकृति की उपासना कर पाते हैं।

तो उपनिषद का यह सूत्र अर्थपूर्ण है। कहता है कि अंधकार में प्रवेश कर जाते हैं वे लोग, जो प्रगट, दिखाई पड़ रहा है, प्रत्यक्ष है जो, उसकी उपासना में रत हो जाते हैं। प्रकृति की उपासना में जो रत हैं, वे अंधकार में प्रवेश करते हैं। लेकिन और भी एक बात कही है कि और महा अंधकार में प्रवेश करते हैं वे, जो कर्म प्रकृति की उपासना में रत हैं।


एक तो इंद्रियों की सहज उपासना है, जो पशु भी करते हैं। एक पशु है, वह भी इंद्रियों की उपासना में रहता है। लेकिन कोई पशु कर्म प्रकृति की उपासना में रत नहीं रहता। अब इसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। यह आदमी की विशेष दिशा है कर्म प्रकृति की उपासना। एक आदमी पद के लिए दौड़ रहा है। किसी भी पद पर होने से किसी विशेष इंद्रिय के तृप्त होने की सीधी कोई संभावना नहीं है। परोक्ष संभावना है कि किसी पद पर होने से वह किन्हीं इंद्रियों को परोक्ष रूप से तृप्त करने के लिए ज्यादा सुविधा पा जाए। लेकिन प्रत्यक्ष, सीधी कोई संभावना नहीं है। पद पर होने से इंद्रियों का कोई सीधा लेना देना नहीं है। पद की दौड़ का जो रस है, वह इंद्रियों को नहीं अहंकार को मिलता है  मैं कुछ हूं। हां, मैं कुछ हूं तो जो कुछ भी नहीं हैं, उनसे ज्यादा इंद्रियों को तृप्त कर लेने में मुझे सुविधा मिल जाएगी। लेकिन मैं कुछ हूं इसका अपना ही रस है। तो कर्म की उपासना में जो रस हम लेते हैं, वह अहंकार की तृप्ति का रस है।

उपनिषद कहते हैं कि ऐसा आदमी महा अंधकार में चला जाता है। पशुओं से भी गहन अंधकार में चला जाता है।

ईशावास्य उपनिषद 

ओशो 

असली घर

अक्सर ऐसा होता है कि गरीब को तो थोड़ी आशा भी रहती है, अमीर की आशा भी टूट जाती है। गरीब को तो लगता है कि एक मकान होगा अपना, तो शांति होगी। थोड़ा धन-संपत्ति होगी; सुविधा होगी; फिर सुख और चैन से रहेंगे। उसे यह पता ही नहीं है कि सुख-चैन यहां हो नहीं सकता। धर्मशाला में कैसा सुख-चैन? कब उठा लिए जाओगे…! आधी रात में पुकार लिए जाओगे! कब मौत का दूत द्वार पर खड़ा हो जाएगा और दस्तक देने लगेगा–कुछ भी तो नहीं कहा जा सकता! यहां चैन कैसे हो सकता है? बेचैनी यहां स्वाभाविक है।


फिर भी गरीब को थोड़ी आशा होती है। लगता है: मकान ठीक नहीं, कैसे चैन करूं? पास धन नहीं, कैसे सुखी होऊं? लेकिन अमीर तो बिलकुल निराश हो जाता है। धन भी है, पद भी, प्रतिष्ठा भी, महल भी, साम्राज्य भी, सब है–और उतना का उतना ही परदेश। परदेश रत्ती भर कम नहीं हुआ। और अब तो आशा भी करनी व्यर्थ है। जिससे आशा हो सकती थी वह तो है हाथ में।

तो धनी से ज्यादा निराश कोई भी नहीं होता।

जिनके पास है वे भी सुखी कहां हैं!

जिनके पास नहीं है, वे तो दुखी हैं–यह समझ में आता है; लेकिन जिनके पास है वे भी दुखी हैं–शायद और भी घने दुख में हैं।

आदमी सुख की तलाश करता है, लेकिन सुख शाश्वत में ही हो सकता है। इस सूत्र पर ध्यान करना। सुख शाश्वत का लक्षण है। क्षणभंगुर में सुख नहीं हो सकता। यह जो पानी के बबूले जैसा जीवन है, इसमें तुम कितने ही भ्रम पैदा करो और कितने ही सपने देखो, सुख नहीं हो सकता।

और तुम कैसे अपने को धोखा दोगे! तुम रोज देखते हो कोई चला, किसी की अरथी उठी। तुम रोज देखते हो किसी की चिता जली। तुम रोज देखते हो लोगों को गिरते–जो क्षण भर पहले तक ठीक थे, तुम जैसे थे, चलते थे, दौड़ते थे, वासनाओं से भरे थे, बड़ी महत्वाकांक्षाएं थीं–और अब धूल भरी रह गई मुंह में। तुम कैसे झुठलाओगे इस सत्य को? यह इतना चारों तरफ खुदा हुआ है। इस सत्य की सब तरफ प्रामाणिकता है।

रोज कोई मरता है। फूल वृक्ष से गिरता है, कि फल वृक्ष से गिरता है, कि आदमी पृथ्वी पर गिर जाता है। यहां हम भी ज्यादा देर नहीं हो सकते। लाख अपने मन को समझाएं, लाख अपने मन को बुझाएं, और कहें कि और मरते हैं, मैं थोड़े ही मरता हूं, सदा कोई और मरता है, मैं थोड़े ही मरता हूं, फिर मैं अपवाद हूं, कौन जाने मैं कभी न मरूं!–मगर कैसे तुम धोखा दोगे? इतने प्रमाणों के विपरीत तुम कैसे अपने को धोखा दोगे? सारे मरघट, सारे कब्रिस्तान प्रमाण हैं इस बात के कि यह जगह घर नहीं है।

जैसे ही यह खयाल बहुत स्पष्ट हो जाता है, कांटे की तरह चुभने लगता है प्राणों में कि यह हमारा घर नहीं तब एक खोज शुरू होती है असली घर की खोज।

पद घुंघरू बाँध 

ओशो 

धर्म तो उनका है जिनका ध्यान है

ऐसी उपनिषद में प्यारी कथा है। याज्ञवल्क्य छोड़ कर जा रहा है। जीवन के अंतिम दिन आ गए हैं और अब वह चाहता है कि दूर खो जाए किन्हीं पर्वतों की गुफाओं में। उसकी दो पत्नियां थीं और बहुत धन था उसके पास। वह उस समय का प्रकांड पंडित था। उसका कोई मुकाबला नहीं था पंडितों में। तर्क में उसकी प्रतिष्ठा थी। ऐसी उसकी प्रतिष्ठा थी कि कहानी है कि जनक ने एक बार एक बहुत बड़ा सम्मेलन किया और एक हजार गौएं, उनके सींग सोने से मढ़वा कर और उनके ऊपर बहुमूल्य वस्त्र डाल कर महल के द्वार पर खड़ी कर दीं और कहा: जो पंडित विवाद जीतेगा, वह इन हजार गौओं को अपने साथ ले जाने का हकदार होगा। यह पुरस्कार है।


बड़े पंडित इकट्ठे हुए। दोपहर हो गई। बड़ा विवाद चला। कुछ तय भी नहीं हो पा रहा था कि कौन जीता, कौन हारा। और तब दोपहर को याज्ञवल्क्य आया अपने शिष्यों के साथ। दरवाजे पर उसने देखा–गौएं खड़ी-खड़ी सुबह से थक गई हैं, धूप में उनका पसीना बह रहा है। उसने अपने शिष्यों को कहा, ऐसा करो, तुम गौओं को खदेड़ कर घर ले जाओ, मैं विवाद निपटा कर आता हूं।


जनक की भी हिम्मत नहीं पड़ी यह कहने की कि यह क्या हिसाब हुआ, पहले विवाद तो जीतो! किसी एकाध पंडित ने कहा कि यह तो नियम के विपरीत है–पुरस्कार पहले ही!


लेकिन याज्ञवल्क्य ने कहा, मुझे भरोसा है। तुम फिक्र न करो। विवाद तो मैं जीत ही लूंगा, विवादों में क्या रखा है! लेकिन गौएं थक गई हैं, इन पर भी कुछ ध्यान करना जरूरी है।


शिष्यों से कहा, तुम फिक्र ही मत करो, बाकी मैं निपटा लूंगा।


शिष्य गौएं खदेड़ कर घर ले गए। याज्ञवल्क्य ने विवाद बाद में जीता। पुरस्कार पहले ले लिया। बड़ी प्रतिष्ठा का व्यक्ति था। बहुत धन उसके पास था। बड़े सम्राट उसके शिष्य थे। और जब वह जाने लगा, उसकी दो पत्नियां थीं, उसने उन दोनों पत्नियों को बुला कर कहा कि आधा-आधा धन तुम्हें बांट देता हूं। बहुत है, सात पीढ़ियों तक भी चुकेगा नहीं। इसलिए तुम निश्चिंत रहो, तुम्हें कोई अड़चन न आएगी। और मैं अब जंगल जा रहा हूं। अब मेरे अंतिम दिन आ गए। अब ये अंतिम दिन मैं परमात्मा के साथ समग्रता से लीन हो जाना चाहता हूं। अब मैं कोई और दूसरा प्रपंच नहीं चाहता। एक क्षण भी मैं किसी और बात में नहीं लगाना चाहता।


एक पत्नी तो बड़ी प्रसन्न हुई, क्योंकि इतना धन था याज्ञवल्क्य के पास, उसमें से आधा मुझे मिल रहा है, अब तो मजे ही मजे करूंगी। लेकिन दूसरी पत्नी ने कहा कि इसके पहले कि आप जाएं, एक प्रश्न का उत्तर दे दें। इस धन से आपको शांति मिली? इस धन से आपको आनंद मिला? इस धन से आपको परमात्मा मिला? अगर मिल गया तो फिर कहां जाते हो? और अगर नहीं मिला तो यह कचरा मुझे क्यों पकड़ाते हो? फिर मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं।

और याज्ञवल्क्य जीवन में पहली बार निरुत्तर खड़ा रहा। अब इस स्त्री को क्या कहे! कहे कि नहीं मिला, तो फिर बांटने की इतनी अकड़ क्या! बड़े गौरव से बांट रहा था कि देखो इतने हीरे-जवाहरात, इतना सोना, इतने रुपये, इतनी जमीन, इतना विस्तार! बड़े गौरव से बांट रहा था। उसमें थोड़ा अहंकार तो रहा ही होगा उस क्षण में कि देखो कितना दे जा रहा हूं! किस पति ने कभी अपनी पत्नियों को इतना दिया है! लेकिन दूसरी पत्नी ने उसके सारे अहंकार पर पानी फेर दिया। उसने कहा, अगर तुम्हें इससे कुछ भी नहीं मिला तो यह कचरा हमें क्यों पकड़ाते हो? यह उलझन हमारे ऊपर क्यों डाले जाते हो? अगर तुम इससे परेशान होकर जंगल जा रहे हो तो आज नहीं कल हमें भी जाना पड़ेगा। तो कल क्यों, आज ही क्यों नहीं? मैं चलती हूं तुम्हारे साथ।


तो जो धन बांट रहा है वह क्या खाक बांट रहा है! उसके पास कुछ और मूल्यवान नहीं है। और जो ज्ञान बांट रहा है, पाठशालाएं खोल रहा है, धर्मशास्त्र समझा रहा है, अगर उसने स्वयं ध्यान और समाधि में डुबकी नहीं मारी है, तो कचरा बांट रहा है। उसका कोई मूल्य नहीं है। बांटने योग्य तो बात एक ही है: परमात्मा। मगर उसे तुम तभी बांट सकते हो जब पाओ, जब जानो, जब जीओ।

और जिस दिन तुम उसे जानोगे, जीओगे, अनुभव करोगे, उस दिन चकित होओगे: तुमसे पहले बहुत लोग उसे जान चुके हैं! तुम नये नहीं हो। वह अनुभव नया नहीं है। इस अर्थ में नया है कि तुमने उसे पहली दफा जाना। इस अर्थ में तो प्राचीन है, सनातन है, क्योंकि बुद्ध सदा होते रहे, सदियों-सदियों में होते रहे।

कुछ मिटे से नक्शे-पा भी हैं जुनूं की राह में
हमसे पहले कोई गुजरा है यहां होते हुए

जब तुम परमात्मा को जानोगे तब तुम पाओगे कि अरे यहां तो कुछ चरण-चिह्न बने हुए हैं! हमसे पहले भी लोग यहां गुजरे हैं! एस धम्मो सनंतनो! यह धर्म तो सनातन है! यह कुछ मेरा नहीं, तेरा नहीं, यह किसी का नहीं। इस घाट से कितने ही तरे हैं, कितने ही तरते रहेंगे। अनंत-अनंत लोग आए हैं और इस नाव से पार गए हैं, यह नाव किसी की भी नहीं है।

इसलिए धर्म न हिंदू का है, न मुसलमान का, न ईसाई का, न जैन का। धर्म तो उनका है जिनका ध्यान है। धर्म तो उन दावेदारों का है जिन्होंने अपने ऊपर मालकियत पा ली है।

काहे होत अधीर 

ओशो 


मैं तुम्हें परमात्मा नहीं सिखाता, आत्मा सिखाता हूं

मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मित्रों को होटल में…गपसड़ाका मारता था, बात में बात निकल गयी, कह गया डींग मार रहा था, कह गया कि मुझ जैसा दानी इस गांव में कोई भी नहीं।

एक मित्र ने कहा: मुल्ला, यह बात जंचती नहीं। और तुम बहुत झूठ बोलते हो, हम मान भी लेते हैं कि जंगल गया था पांच शेर इकट्ठे मार डाले। कि एक तीर से सात पक्षी गिरा दिये। वह हम सब मान लेते हैं लेकिन इसको तो हम न मानेंगे। क्योंकि हम इसी गांव में रहते हैं, तुम्हारा दान कभी देखा नहीं। दान तो दूर कभी तुमने एक दिन हमें चाय नाश्ते पर घर बुलाया भी नहीं है।

तो मुल्ला ने कहा: आओ, इसी वक्त आओ, भोज का निमंत्रण देता हूं।

तीस पैंतीस आदमी होटल का मैनेजर और बैरा सब साथ हो लिए। अकड़ में कह तो गया लेकिन जैसे जैसे घर करीब आने लगा और जैसे जैसे पत्नी की शकल याद आयी, वैसे वैसे घबड़ाने लगा कि अब एक मुसीबत हुई। दरवाजे पर पहुंचकर फुसफुसा कर बोला कि भाइयो, आप भी पति हो, मैं में भी पति हूं। हम सब एक दूसरे की स्थिति जानते हैं। तुम जरा यहीं रुको, पहले जाकर मुझे पत्नी को राजी कर लेने दो। दिन भर से घर से नदारद हूं, असल में गया था सुबह सब्जी लेने। सब्जी तो लाया ही नहीं हूं और पैंतीस आदमियों को भोज पर ले आया हूं। और दिन भर की पत्नी खिसियायी बैठी होगी। तो जरा थोड़ा सा मुझे मौका दो, तुम जरा रुको, मैं भीतर जाकर जरा पत्नी को समझा बुझा लूं, जरा राजी कर लूं।


मित्रों ने कहा: यह बात जंचती है। सबको अपना अपना अनुभव है, सभी को बात जंची।

मुल्ला नसरुद्दीन भीतर गया। आधा घंटा बीत गया, लौटा ही नहीं, घंटा बीतने लगा। लोगों ने कहा: अब रात भी होने लगी और देर भी होने लगी, और डेढ़ घंटा बीतने लगा। उन्होंने कहा हद हो गयी, सो गया या क्या हुआ! कितनी देर लग गयी पत्नी को समझाने में? और कोई आवाज भी नहीं आ रही है कि समझा रहा हो, कि पत्नी चिल्ला रही हो, कि बर्तन फेंके जा रहे हों, कि प्लेटें तोड़ी जा रही हों, कुछ भी नहीं हो रहा, सन्नाटा है घर में। आखिर उन्होंने दस्तक दी।

मुल्ला ने अपनी पत्नी से कहा कि कुछ नालायक मेरे साथ आ गये हैं। अब उनसे बचने का एक ही उपाय है, तू ही मुझे बचा सकती है। तू जा और उनसे कह दे कि मुल्ला नसरुद्दीन घर में नहीं है।


पत्नी गयी। दरवाजा खोला। मित्रों ने पूछा कि मुल्ला कहां है? पत्नी ने बिलकुल कहा कि मुल्ला! वे सुबह से घर से गये हैं सब्जी लेने, अभी तक लौटे नहीं। वे घर पर नहीं है।


उन्होंने कहा: अरे, यह तो हद हो गयी। हमारे साथ ही आये हैं, हमने अपनी आंखों से उन्हें घर के भीतर जाते देखा। और एक आदमी का सवाल नहीं कि धोखा खा जाए, पैंतीस आदमी मौजूद हैं। मित्र विवाद करने लगे कि नहीं वह जरूर घर में है।

मुल्ला भी सुन रहा है ऊपर की खिड़की से। अखिर उसके बर्दाश्त के बाहर हो गया कि विवाद ही किये जा रहे हैं। उसने खिड़की खोली और कहा: सुनो जी, यह भी तो हो सकता है तुम्हारे साथ आये हों और पीछे के दरवाजे से चले गये हों।

यह तुम नहीं कह सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं घर में नहीं हूं; क्योंकि तुम्हारा यह कहना तो इतना ही सिद्ध करेगा कि मैं घर में नहीं हूं; आत्मा एक मात्र तत्व है जिस पर संदेह नहीं उठ सकता। इसलिए मैं तुम्हें परमात्मा नहीं सिखाता, आत्मा सिखाता हूं। आत्मा में डुबकी मारकर परमात्मा का अनुभव होता है। वह अनुभव है। वह श्रद्धा की बात नहीं है, अनुभव की बात है। आत्मा में डुबकी मारने का नाम ध्यान और जब डुबकी लग गयी तो उसका नाम समाधि। अभ्यास का नाम ध्यान, अभ्यास की पूर्णाहुति समाधि। आत्मा में डुबकी लग गयी तो पता चलता है कि “मैं हूं’, और जिसको पता चलता है “मैं हूं’, उसे पता चलता है यही “मैं’ सबके भीतर व्याप्त है। यही अस्तित्व सबके भीतर व्याप्त है। वही परमात्मा है।

गुरु प्रताप साध की संगती 

ओशो 



प्रेम का मूल्य है, कीमत क्या?

ध्यान का मूल्य है, कीमत क्या? स्वतंत्रता का मूल्य है, कीमत क्या? और बाजार में बिकती हुई चीजें हैं, सब पर कीमत लगी है, पर उनका मूल्य क्या है?


जो व्यक्ति के ही जगत में जीता है वह संसारी है। जो मूल्य के जगत में प्रवेश करता है, वह संन्यासी है। मूल्य प्रसाद है परमात्मा का। लेकिन चूंकि प्रसाद है, इसलिए चूक जाने की संभावना है। कीमत देनी पड़ती तो शायद तुम जीवन का मूल्य भी करते। चूंकि मिल गया है; तुम्हारी झोली में कोई अनजान ऊर्जा उसे भर गई है; तुम्हें पता भी नहीं चला और कोई तुम्हारे प्राणों में श्वास फूंक गया है; तुम्हें खबर भी नहीं, कौन तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है इसलिए भूले भूले कंकड़ पत्थर बीन बीन कर ही जीवन को गंवा मत देना।

जब तक परमात्मा की खोज शुरू न हो तब तक जानना ही मत कि तुम जिए। जीवन की शुरुआत परमात्मा की खोज से ही होती है। जन्म काफी नहीं है जीवन के लिए। एक और जन्म चाहिए। और धन्यभागी हैं वे, जिनके जीवन में हूक उठती है, पुकार उठती है; पीड़ा का जिन्हें अनुभव होता है; जो परमात्मा की तलाश पर निकल पड़ते हैं; जो सब दांव पर लगाने को राजी हो जाते हैं।

अमी झरत बिसगत कँवल 

ओशो 

Saturday, July 16, 2016

The Hidden Temples

An interesting incident happened.... When Vinoba Bhave, Gandhi’s chief disciple, went to the Vishwanath temple in Benares. with harijans – India’s lowest caste – Karpatriji, an orthodox Brahmin scholar, said, ”You may enter, but now we shall have to make another temple, because this one has been desecrated.” He actually began constructing another, because to him the old temple had become useless. Superficially, Vinoba seems a more understanding person than Karpatri.

Karpatri  was very traditional and ignorant of the modern world’s trends and knowledge. But regarding the
deep secret that he was trying to support, he seems to be more knowledgeable.

The truth is that the Vishwanath temple is not the real one, and the one Karpatri wanted to have built instead of it, wouldn’t be the real one either. The real temple is a third one, which has to be kept hidden, otherwise any socio-religious reformer would desecrate it. The Vishwanath temple which is now standing is already desecrated. There is no difficulty in desecrating a temple; you can if you want to. Any other temple being built there will also be false, but a false one will always have to be there so that the real one can remain hidden.

There are secret keys, mantras, through which to enter Vishwanath temple, just as there are for Alkufa. Occasionally, some fortunate seeker, who has the knowledge about the mantra, may be able to enter, but otherwise pilgrims go to the false temple, worship there and return to their home. But this temple has developed a sort of sanctity over thousands of years, even though it is false, because for so long people have believed it to be the true one. 

All religions have tried not to allow a person of another religion to enter their temples or places of pilgrimage. Why? Those who made those rules knew the dangers for such entrants. In a way, it is like a notice hanging on the entrance of an atomic energy laboratory, warning, ”No entry except for atomic scientists.” We agree that such restrictions are necessary – it is dangerous for non-scientists to enter – but when such restrictions are made in connection with a temple or place of pilgrimage,  we don’t agree. We do not know that they also have their own science. These temples and places of pilgrimage are meant for specialists.

It is like a conference of doctors standing around a patient discussing his disease. The patient listens to them but can’t understand them because they are talking medical jargon, using Greek and Latin words. It is not in the interest of the patient to understand. Similarly, all religions have developed their own code languages. They have their secret holy places, their secret languages and secret scriptures. So what we understand to be places of pilgrimage are almost certainly not the right places. Such great traditions have to be preserved because if they fall into the wrong hands, they may be misused. Ordinary people will only get into difficulties and will not benefit from them.

It is said that if you are allowed to enter the Sufi village of Alkufa you will become mad. It is said that anyone entering accidentally will leave the village, mad, because Alkufa is full of vibrations which cannot be tolerated by the ordinary mind. So it is better not to enter the town without the necessary preparation and discipline.

It is said that it is not possible to sleep in Alkufa, so it is natural that those who haven’t experimented deeply in staying awake will go mad. The greatest accomplishment among Sufis is the night vigil; they keep awake the whole night. If a person does not eat for ninety days he will become very weak, but he will not die or go mad. An ordinary healthy man can easily fast for ninety days, but he cannot remain without sleep for even twenty-one days. He can go without food for three months, but he cannot go without sleep for three weeks. Three weeks is a very long time – it is difficult to remain without sleep for even one week – but it is impossible to sleep at all in Alkufa.

A Buddhist bhikkhu was sent to me by someone from Sri Lanka. For three years this bhikkhu had not been able to sleep properly. The whole time his hands and feet were trembling, he was continuously perspiring and he was very disturbed. He was afraid to even take one step – he had lost all confidence in himself. He was almost deranged. Strong tranquillizers couldn’t help him sleep, but only lie down, listless; inwardly he was still awake. 

I asked him if he had ever practised Buddha’s anapansati yoga, because for a Buddhist bhikkhu this practice is unavoidable. He said he was. So I told him that he should give up the idea of getting any sleep, because anapansati yoga is a practice which makes sleep impossible. But it is only the initial step in a practice; once it is impossible to sleep, there is another practice that must immediately be given. If you continue to do only the first part without this second step, you will become weak; you even may become mad and die.

Once sleep is destroyed from within, the quality of your consciousness changes so much that then further progress can be made. When I asked the bhikkhu if he knew the second phase of that practice he said no one had told him about it. The second part is not mentioned in any book, and writing about only the first part is dangerous because anyone who follows it will be unable to sleep. 

This was the reason why things were kept hidden, so that they should not harm anyone. They were meant to guide those who need help in their spiritual search. This is why places of pilgrimages are necessary, but the real ones are kept hidden. The false places are created to keep you off the track until such a time when you are ready for the real.
 
No wrong  person should reach the authentic place, but the right person will always find it.

Hidden Mysteries 

Osho

Importance of Pilgrimage

There are two methods of making a boat move. One method is to open the sails at the right time in the direction of the wind and not use the oars; the other method is not to open the sails, but to help the boat move with the use of the oars.

The places of pilgrimage are places where a stream of consciousness is flowing automatically: you just have to stand in the middle of the stream where the sails of your consciousness open up and you begin your journey onwards. You will be able to travel far more easily and faster in such places than anywhere else, and alone. Elsewhere, you may unknowingly reach some negative place and open up your sails in the wrong direction: you may move further away from your destination and become lost.

For example, if you are sitting in meditation at a place which is full of negative emotions – where butchers are killing animals the whole day – there will be a great struggle and conflict in your mind. 

In meditation you become very receptive, open and vulnerable, so whatever is happening around you at that time enters you. So when you meditate it is always necessary to choose a place which will not take you in a wrong direction. Whenever, during meditation, you have disturbing thoughts or find it difficult to be silent, move from such a place. 

You can sit in meditation in a jail too, but that requires a very strong individuality. There are different methods to help you meditate in a jail: you create a line of demarcation over which negative forces cannot enter.

But in a tirtha, a holy pilgrimage place, such a line is not necessary. In such a place you drop all resistance and open all your doors and windows. There, positive energy is flowing in abundance. Hundreds of people have traveled into the unknown from there and have created a path. It is as if they have made a path by cutting down trees and removing the bushes blocking the path, so that those walking behind them find it easier to travel. On the religious path, efforts are made by the higher, stronger consciousnesses to help weaker people, in every way. The place of pilgrimage was one such experiment.

A place of pilgrimage is where the currents are flowing from the body towards the soul, where the whole atmosphere is charged; from where people have achieved samadhi, from where people realized their enlightenment. Such places have become specially charged. In such a place, if you just open your sails, without doing nothing else, your journey will begin. 

So all religions have established their places of pilgrimage. Even those religions which were against temples have done it. It is surprising that religions that were against idol worship and temples established places of pilgrimage. It was easy to remove idols, but places of pilgrimage could not be removed because such places have a value which no religions could oppose or deny. 

 Jainas are not basically idol worshipers, nor are Mohammedans nor Sikhs nor Buddhists; in the beginning Buddhists were not idol worshipers at all. But all of them have established their sacred places of pilgrimage. They had to. Without such places there is no meaning for a religion. If there were no such places, everything would have to be done by the individual, and in that case there would be no meaning or purpose in a religious commune.

Hidden Mysteries 


Osho

The Secret of Pilgrimage

A tirtha, a sacred place of pilgrimage, is a unique invention, very deep and symbolic, made by an ancient civilization. But our present civilization has lost all knowledge about the significance of such places. Today visiting a place of pilgrimage is just a dead ritual for us. We just tolerate them, without knowing why places of pilgrimage were established, what their use was and who made them. 


Whatever can be seen from the surface is not everything. There are some hidden meanings which are not visible from the outside. We should understand first that our civilization has lost the purpose and meaning of the sacred place of pilgrimage and so today people who go on a pilgrimage waste their time. Those who oppose the idea are also wasting their time, however right they seem to be, because they know nothing about such places. Neither the people who visit the places of pilgrimage, nor those who oppose the idea know the purpose of them, so let us understand a few things about them....

There is a famous place of pilgrimage for Jainas known as Samved Shikhar. Twenty-two out of the twenty-four tirthankaras of the Jainas have died there, have left their bodies there. It all seems to have been pre-arranged; otherwise it is impossible that out of twenty-four, twenty-two should happen to die, with long periods of time between them, in the same place. If we believe the Jainas there is a gap of one hundred thousand years between the first and the twenty-fourth tirthankara. That twenty-two of them died in the same place is worth thinking about.

The place of pilgrimage for Moslems is the Kaaba. Until the time of Mohammed, there were three hundred and sixty-five idols in Kaaba – a different idol for each day of the year. All these idols were removed or destroyed, but the central stone which was the center of the temple was not removed. 

The Kaaba is more ancient than the Muslims’ religion. The history of Islam is only about fourteen hundred years old, but that black stone in the Kaaba is hundreds of thousands of years old. Another interesting fact is that the stone does not seem to belong to our earth. How did it come to earth? The only hypothesis we have is that it is part of a meteor. Within twenty-four hours of the disintegration of a meteor, thousands of stone fragments fall to the earth. Many of these are burnt up before they reach the earth. At night when we see stars falling – these are not stars but meteors. Sometimes even huge stones manage to reach the earth; these stones are of a different composition. The stone at Kaaba is such a stone.

But some people who have gone deeper into this feel that such big stones could have been brought to earth and left here, just as our astronauts have left a few things from earth on the moon. Whatever the astronauts have left on the moon will remain there safely, even if there is a nuclear war and life on this earth is destroyed. If ever some civilization reaches the moon, they will be very surprised to see those things we have left there.

So the stone at Kaaba may not be part of a meteorite but may have been left by some inhabitants of another planet. Perhaps it was once possible to establish a connection with those inhabitants through the medium of that stone. But now, only the worship of it has remained. The science of how it might have been used as a means of communication is lost. 

An unmanned Russian spaceship became lost because its radio contact with the earth broke, so it was not possible to trace it. Whether it was burnt up, destroyed, or is still somewhere in space is not known. But if it has landed on some planet, and if the inhabitants of that planet could repair the radio they could re-establish contact with the earth. Otherwise they might break it up, or store it in their museum. They may even be afraid of it, may wonder at it or they may even start to worship it.

The Kaaba stone may be one such instrument sent out by spacemen from some other planet to establish contact with the earth.  

I am telling you this only as an illustration to explain that a sacred place of pilgrimage was a means to establish contact, not with any living beings in space but with enlightened souls who once lived on this earth.

A very deep and intense experiment on Samved Shikhar was made by the twenty-two tirthankaras, just as they were leaving their bodies. On that mountain they tried to intensify and multiply the vibrations of their developed consciousness so that it would be easier for us to communicate with them. It was thought that if so many souls of such consciousness left their body from the same place, a path between that place and another plane could be laid. And such a path has existed. 


The rainfall is not the same everywhere on earth: there are some areas of heavy rain, where it rains as much as five hundred inches, and desert areas where there is no rain or it is very scarce. Similarly there are places which are very cold, where there is nothing but snow everywhere; and there are areas so hot that it is difficult to make ice. In the same way on the earth there are places with high density consciousness and low density consciousness. Conscious attempts have been made to create areas of high consciousness, fields charged with human consciousness. They do not happen automatically, but are a result of the consciousnesses of powerful individuals. 

Twenty-two tirthankaras traveling to that one mountain, entering samadhi and leaving their bodies there, created a highly charged field of consciousness, in some special sense, at Samved Shikhar. It was intended that if someone sits there, chanting the special mantras given by those twenty-two tirthankaras, his journey in out-of-the-body experiences will immediately begin. This is as scientific an experiment as any which takes place in a laboratory. 

The only reason for creating the places for pilgrimage was to experiment with creating powerfully charged fields of conscious energies, so that anyone could easily begin their inner journey.

Hidden Mysteries 

Osho

Vibrations

There is an incident in Mahavira’s life.... A thief was lying on his deathbed, and his son asked him to give him some final word of advice that would help him in his work. The thief said, ”Don’t have anything to do with a person called Mahavira. If you know he is in your village, run to another. If he passes your way on the road, hide somewhere on a side street. And if without realizing it you are somewhere where you can hear his words, close you beware of him!”

When the son asked him why he should be so afraid of Mahavira, his father told him not to argue:

 ”Just listen to what I say. If you go near that man our business will be in danger and the family will starve.”

What happens next is very interesting. The son of that thief always ran away from Mahavira, but one day he made a mistake. Mahavira was sitting silently in a mango grove, and, unknowingly, the thief’s son happened to pass that way. Suddenly yyhavira started speaking. The thief heard half the sentence, closed his ears and ran. But he had already heard half the sentence, and that landed him in a lot of trouble.... He was being chased by the police – the whole state police were after him for his thieving – and after a few weeks he was eventually caught. 

Thieving was in his family and so he was an expert in his trade. He was so clever that he never left behind any incriminating evidence. It was well known that he was a thief and had committed a lot of thefts; everybody knew about it, but there was no evidence. So there was no alternative but to make him confess.

He was made totally drunk and kept in such a state of intoxication that he remained unconscious for two or three days. When he did open his eyes again, he was still in a state of semi-consciousness. 

All around him he say beautiful women standing and he asked where he was. He was told that he had died, and that preparations were being made to take him either to heaven or hell. He was told that people were waiting for him to become conscious so that he could confess the sins he’d committed. If he did, he would be taken to heaven; otherwise he would be sent to hell. If he spoke the truth he would be saved.

He felt that now he should tell the truth and not lose the chance of going to heaven; now that he had died there was nothing to fear. But just at that moment he remembered that half-sentence he had heard Mahavira say. Mahavira had been talking about gods and ghosts. He had also hinted about the yamadoots, who take people to the worlds beyond death. The thief had heard him say that the toes of yamadoots are always inverted: he opened his eyes and saw that the feet of the people standing by him were normal, so he became alert. He now saw there was no need to confess. He saw through the trick, and said that he had not committed any sins; what could he confess? If they wanted they could take him to hell. But as he hadn’t committed any sins, how could they? So they had to let him go.

He went running to Mahavira, fell at his feet, and asked him to complete the sentence which had saved him. When half of Mahavira’s sentence had saved him, of how much more benefit would be the whole sentence! He said he was totally surrendered to Mahavira. Sometime or other he was bound to be caught and hanged but if he heard the rest of the sentence he might still be saved. So Mahavira used to say that even if half the sentence of an awakened one was heard, it could be useful one day.

Similarly, a man running past a temple, or just passing by casually, hears the sound vibrations coming from a temple or smells the fragrance of the place... and even that can be of help to him.


Hidden Mysteries 


Osho

Door To Prayer

Many times you have become tired of the type of life you are living. At such times you might have felt the door to prayer open. And if even once the door opens then it can open again and again, even in your shop and your home. Whenever you want, that door should be easy for you to reach at any time – because the moments that can be call truly great come rarely. It is not necessary to go on a pilgrimage, or in search of a Mahavira or Buddha. Such moments are too short-lived. 

There should be somewhere just near at hand which you can simply enter.

Childhood memories are very important. Scientists say that by the age of seven a child learns almost all the fundamentals; on that the superstructure of his knowledge is built. Very little that is new is added, but a of his knowledge is built. Very little that is new is added, but a few basic things can be added. If we are not able to form an association with the temple in the child’s mind by the time he is seven then it becomes difficult, even impossible, to do so later. A lot of effort will be needed and then too the memory will only be superficial.

That is why we wanted the temple to be the child’s first memory after birth. His surrounding were planned in such a way that he would grow up near the temple, gradually coming to know it and absorbing it in his life. The temple would become an integral part of his being, and when he entered the worldly life, the temple would have its own special place inside him because was to provide a retreat for him during all the hectic activities of his life. So we wanted the temple to have a place in his mind from his very birth; later on it would be difficult....

All those who lived in the vicinity of the temple had an impression of it imprinted on their minds. It went so deep into their unconscious that it was no longer a matter of thought but became a part of their being. So all the world over, the forms and shapes of temples may have differed, but the temple was indispensable.

Now in the world that is being shaped the temple is not considered indispensable; other things have taken that place – schools, hospitals and position; other things have taken that place – schools, hospitals and libraries. But they are very material and have no connection at all with the beyond. Instead, what is needed is something which indicates the transcendental. When we get up in the morning, we should hear the temple bells ringing; when we go to sleep at night, we should hear the religious songs from the temple.

Hidden Mysteries 


Osho

Magnetic Fields of Temple

It is said about Mahavira that within a certain radius around him – wherever he might be – it was impossible to commit any violence. It was his charged field, within which no violence was possible. He was like a walking temple, and within that sphere anything happening would suddenly be changed.

Teilhard de Chardin coined a new word, noosphere, in place of ”atmosphere.” Atmosphere means the external environment. Noosphere means the mental or psychological situation, and within that field, certain types of happenings do not take place at all. 
 
In earlier days, schools were conducted by rishis. The surrounding atmosphere of the schools was considered pure, inviolable. If anything wrong happened among the disciples, the rishi punished himself, not them, because it meant that the field had lost its essential quality – so the disciples couldn’t be blamed. To reprimand them was futile; some untoward event only meant that the field had lost its sanctity. So the master himself would repent, undergo a fast and purify himself. 
 
 
But this idea was misunderstood by Gandhi. Self-purification was not meant to be a way to reprove anyone else, it was not intended to put pressure on another person. The idea was not to torture oneself or to go on fasting to death to change someone else’s heart or conscience. Gandhi didn’t understand. The rishi was not purifying himself to change somebody else, he was doing it to recharge the field or purify the surroundings. If the thinking pattern is transformed, if the mental sphere is transformed, If the thinking pattern is transformed, if the mental sphere is transformed, the man living within it will also become transformed. There was no question of changing someone’s conscience but of changing the surroundings and the magnetic field everybody carries around themselves.

People like Mahavira were like walking temples. Such people cannot be expected to stay permanently in one particular place. So we need something else, more stable, which can become the center of life for a whole town – something around which the lives of people will go on being transformed. We ng around which the lives of people will go on being transformed. We need a place, a temple, where we make our daily offerings and receive something in return. We may not even be aware what is happening, everything happens by itself. Anyone passing by the temple received something invaluable. There was a huge magnetic field created around it, and just as an iron filing attracted by a magnet is caught in its magnetic field, so anyone passing by the temple would be attracted and influenced by its energy. 
 
The field of a temple was like that.

It is said about Moses that when he went to the mountain he saw a divine fire burning there. The whole bush was on fire, but in the middle of it there were some flowers in full bloom and green leaves. Moses had set out in search of God. He immediately stepped towards the bush and then suddenly heard a voice coming from it, saying, ”You foolish man! Leave your shoes a few paces away before entering this bush!” There was no demarcation li undergrowth – so Moses continued walking further, looking for the border where he could leave his shoes. When he crossed a certain point, he ceased to be Moses; something within him changed. Just outside the border he left his shoes, entered the field and prayed for forgiveness for desecrating that sacred place.

A temple has a charged field around it which is very vibrant, and that field had a helpful influence on the entire village. It is not a fiction; results were actually achieved. The characteristic simplicity, innocence and purity of Indian villages for thousands of years was more due to the charged field of the temples than to the villages themselves. However poor a village, the existence of a temple in it was absolutely necessary. Without a temple everything seemed chaotic, without a rhythm.

For thousands of years villages had a sort of sacredness, and there were great, invisible sources of that sacredness. The worst thing which could be done to destroy the Eastern culture was to destroy that charged field of the temples. With these vibrant temples destroyed, the entire Eastern culture crumbled. That is why today people are skeptical about the value of temples. Whoever has gone to school or college and has been taught only languages and logic – who has only developed his intellect and his heart is closed – never has any experience of the life of the temple. So temples are slowly losing their significance.

India cannot be India again until temples become alive again. The whole alchemy of India was in its temples; from its temples India received everything. There was a time when everything that happened in the life of a person was considered to be because of the temple. If he was sick he went to the temple, if he was unhappy he ran to the temple; even if he was happy he ran to the temple to give thanks. If something good happened in the family he went to the temple with fruits and flowers; if there were problems he would go to the temple to pray. For him the temple was all and everything.
 
 All his hopes, expectations and ambitions revolved around the temple. However poor he was, he  kept the temple decorated with gold and silver and all sorts of jewels.


Hidden Mysteries 

Osho

The Charging of The Temple

The ignorance of those who sit under dazzling electric lights in temples is simply amazing. They are not needed at all, because only that much light is needed as is within the inner sky – a very soft and inoffensive light. So a ghee lamp was used because it is not at all offensive and does not dazzle the eyes.

It may not be easy to understand the difference between a kerosene light and the ghee light because we have never experimented with meditating on light. Light a lamp filled with kerosene oil and concentrate on the flame for one hour: your eyes will start burning and become tired and painful. 


Then light another lamp with ghee in it, and concentrate on that flame for one hour: your eyes will feel cooler and soothed. The inner experiences of thousands of people revealed all this, and parallels were found which became external aids. Of course, it is not possible to provide a lamp exactly the same as the inner light, so only the most approximate was found. The exact fragrance which is produced within you after chanting a particular mantra cannot be found outside, so we have to be content with the nearest approximation.

Sandalwood paste became popular in all temples. The place on the forehead where the sandalwood paste is applied is called the agyna chakra in Yoga. Practicing certain mantras produces an inner experience of sandalwood perfume, but the source of that fragrance is the agya chakra. Whenever the third eye experience intensifies, the sandalwood perfume is given out, so the sandalwood perfume has become symbolic of that experience, hence we apply sandalwood paste to the forehead. When the agya chakra emits this fragrance there is a sort of coolness felt, as if you have put a piece of ice on the third eye. There is a difference between cooling things and soothing things – just the same as between a kerosene oil lamp and a lamp filled with ghee.

Ice is cold, but it is not balmy or soothing. The cooling sensation of ice lasts only a short while and is followed by a feeling of heat. Ice is certainly cold, but not soothing or balmy. The ultimate feeling is bound to be that of heat; you feel a little more hot than before. But sandalwood paste is balmy and not cold; it only soothes. Coolness has a kind of depth. If ice is put on the agya chakra it will only make the surface cold. If sandalwood is applied to the agya chakra you will feel that its soothing effect is seeping into deeper layers beyond the skin. The coolness has to penetrate to where the third eye is located.

Those who experienced the working of the agya chakra and felt its balmy effect looked for a parallel and found it in sandalwood paste. It has the same fragrance as that which emanates from within. All these external aids are just parallels. And when a temple is equipped with them, it becomes charged. So there is a stipulation that no one should go to a temple without a bath. Taking a cold bath breaks one’s mechanicalness and thought associations. Nobody was allowed to enter the temple without ringing the bell. And nobody was to go into the temple in old or dirty clothes; in fact silk clothes had to be worn when visiting a temple, because silk helps in generating body electricity and protecting it, so silk clothes always remain fresh, however much you wear them. 

All these precautions and arrangements made the temple charged, and so anyone also just passing by was affected by the magnetic field of the temple.

The Hidden Mysteries 


Osho 

Living Temple

The significance of a living temple was only this much. A living idol signified the same thing; they affected even those who had not come there for any particular benefit. A temple could only be called living if someone could pass by it casually and suddenly sense that the air had changed and the atmosphere had been transformed, even though he might not have known that there was a temple in the vicinity.

Suppose you are walking along a road on a dark night, and when you pass by a temple you experience some sudden change within you.... You were thinking of doing something wrong, and suddenly your thoughts change. You were thinking of killing someone, and suddenly you feel full of compassion. But this can happen only if the temple is charged. Every brick and stone of that temple, the doors and gates, should have become vibrant; then the whole temple will vibrate with sound.

A unique method is used to charge the bell that hangs in front of temples: whoever enters, rings the bell. He does it with total consciousness, not with a sleepy mind. When you ring the bell of a temple – not half asleep but with alertness – that creates a discontinuity in your thoughts, a sort of break in the chain of your thoughts, and you become aware of a changed atmosphere. There is a similarity between the sound of the bell and the sound of ”Aum”; in fact there is some inner relationship. The sound of the bell continues charging the temple all the day long and the sound of ”Aum” also charges the temple with its vibrations.

Many other things like that were made use of in the temple, they have their inner connections. It might be an earthen lamp filled with ghee, the burning of incense, or the use of sandalwood paste or flowers or any other fragrance – all were related. It was not a question of a particular deity liking a specific flower, it was a question of the harmony of the temple. What type of sound and what type of fragrance was harmonious with the temple was decided through experiences. Only a certain flower with a certain fragrance which blended harmoniously with a certain sound was used; others with different fragrances were prohibited.

In a mosque only lobhan, benzoin oil creosote, could be used as incense, and dhoop and agarbatti incense in a temple. All these had their connections with sound. With the sound of ”Allah,” there is an inner harmony with the fragrance of lobhan. These links or connections were all discovered through the inner search for the ultimate; they were not found through any thinking process. I will tell you how this was done.

You may sit in a room where no lobhan has been burnt and repeat, ”Allah” – not just ”Allah” but ”Allahooh” with a special emphasis on ”hoo.” You will find that slowly that ”Allah” sound disappears and automatically only ”hoo” will go on being repeated. When this happens, suddenly you will find that your whole room is fragrant with the smell of lobhan. It was discovered that lobhan is similar to a substance that emanates from you. So lobhan is burnt in mosques with a view to helping people repeat ”Hoo.” Then the process is twofold: the emanation of the fragrance from within a person may take some time, but the same fragrance can initially be provided outwardly in the mosque. But the repetition of ”Aum” can never bring about the fragrance of lobhan. This sound strikes another center which cannot produce this smell.

There are separate areas of fragrance within our body, and these are linked with our thoughts and feelings. That is why Jainas believe that Mahavira’s body never gave out any bad odor. His body had a certain fragrance, on the basis of which it was possible to recognize a tirthankara. In Mahavira’s time, eight other people claimed to be tirthankaras, but this particular fragrance was not coming from them. 

None of them was less knowledgeable than Mahavira, they were of the same spiritual stature, but they were not practitioners of that system of spiritual discipline which produces this fragrance, so their claims were rejected. 

Buddha also was in no way inferior to Mahavira. He was of the same caliber and state of consciousness as Mahavira, but because he was not following the same method as Mahavira, his body could not emit the same type of fragrance. That fragrance had also emanated from Parshwanath, a tirthankara who had died long before Mahavira’s time. His contemporaries were still living and they confirmed that Mahavira’s fragrance was similar to Parshwanath’s. The ultimate result of a certain mantra process was that particular. The ultimate result of a certain mantra process was that particular fragrance.

This was a memory-based arrangement for determining the authenticity of a tirthankara. So though Mahavira never claimed that he was a tirthankara, he was readily proclaimed to be one. Makhkhali Goshal, on the other hand, did make the claim but could not prove it. You may wonder at how fragrance was used as the criterion. The test had to be that deep and infallible – words cannot be relied on. The whole individuality of that person should emit the special fragrance that would indicate that a certain flowering had happened within him, that the culmination of the mantra process which gives birth to a tirthankara had happened.

Makhkhali Goshal, Ajitkesh Kambal and Sanjay Vilethiputra were all claimants, were very knowledgeable, were of equal caliber to Mahavira – each of them had thousands of followers who claimed that their master was a tirthankara – but they all disappeared into oblivion. On the other hand, Mahavira was absolutely silent on this point and never made any claim. But in the end it was decided that only that person’s body that omitted that particular fragrance could be a tirthankara. 


Every mantra creates its own fragrance. Those who have practiced chanting ”Aum” have known a certain fragrance. Similarly, every mantra produces a particular type of inner light. How much light should be provided in a temple was decided on the basis of that inner light – neither more nor less. 

Hidden Mysteries 

Osho

The Secret of Sounds

All the melodies and modes and their modifications are born in the East. These are the extensions of the experiences of the absolute being in the form of sound. Musical compositions, as well as all dance forms, originated in temples and later on developed elsewhere as specific arts. It was only in the temple that a devotee experienced the effects of sound in its innumerable variations – so many that it is difficult to keep any count.

Just forty years ago there lived a recluse in Varanasi called Vishuddhananda. He gave hundreds of demonstrations to prove that through some special sound it is possible to kill somebody. This sadhu used to sit under a dome in a temple, a temple which could be said to be utterly unhygienic according to modern terminology. For the first time, in the presence of three doctors from England, an experiment was carried out. The doctors took a sparrow into the temple with them. Vishuddhananda made certain sounds: the sparrow fluttered about for a while and then fell dead. The doctors examined it and pronounced it dead. Then Vishuddhananda made some other sounds: he sparrow came back to life and began fluttering about again. Then it was realized for the first time that the impact of sound can produce specific effects.

Now we readily accept that certain effects are produced by certain sounds because science can prove it. We now say that if a particular light ray falls on your body, it will bring particular results; if a specific medicine is administered to a patient, it will produce specific results; if special colors are used, they bring about special effects. Why then shouldn’t special sounds cause certain effects? Now there are some laboratories in the West which are actively engaged in investigating the relationship between sound and life, and two or three laboratories have arrived at conclusions of deep significance.

In two laboratories scientists succeeded in proving that special sounds can produce more milk in lactating mothers. Through certain sounds plants can be made to blossom within two months instead of the usual six months. And cows yield double the quantity of milk if soft music is played at the time of milking. All the dairies in Russia today employ this latest method at the time of milking. And the day is not far off when all fruits and vegetables will be grown with the help of special sounds. 

Demonstrations have already been made in laboratories, and it is only a matter of time until it is done on a broader scale. If fruit, vegetables and milk are influenced by sound, should not be influenced by sound.

Disease and health are dependent on special sound waves, so in the past people made hygienic arrangements in their temples which were not in any way dependant on air. They did not believe that only an abundant air supply lead to good health. Otherwise, it is inconceivable that over a period of five thousand years they could not hit upon the idea of proper ventilation in their places of worship. 

The Indian recluse usually sits in caves where no light or air enters, or he sits in temples with small doors where one has to bend low to enter. There are some temples where you have to lie down and crawl in to enter; and there are even some temples one can enter only by chanting. In spite of this, there were no ill effects on the health of devotees. That is our experience over thousands of years. But when, under the influence of Westerners, we can began to doubt that for the first time,our temple doors were made bigger and windows were installed. We modernized the temples; but in doing so we converted them into ordinary houses.

The acoustics and the architecture of a temple have a deep connection.


Hidden Mysteries 

The Secret of Shapes, Sounds and Fragrances

Thursday, July 14, 2016

Temple 2

The Secret of Sounds

Though godliness is everywhere and human beings are also present everywhere, only in some specific circumstances within us do we become attuned to that godliness. So temples served as centers of receptivity to enable us to feel the divine existence, godliness, spiritual elevation. The whole arrangement in temples was motivated with this end in view. Different types of people thought up various arrangements, but that is not of much consequence. It makes no difference if various manufacturers produce radios incorporating their own specialties, with different shapes and forms, as long as the ultimate purpose is the same.

The temples in India were mostly constructed from one of three or four patterns; other temples were just copies of these. The domes of the temples were based on the model of the sky. There was an underlying purpose to this. If I sit under the open sky and repeat ”Aum,” my voice will get lost, because the strength of an individual voice will be enveloped by the vastness of the sky. I will not be able to hear the reverberation, the echo of my chanting – all my prayers will get lost in the vastness of the sky.

Domes were constructed so that the resonance of our prayers can rebound on us. The dome is just a small, semi-circular prototype of the sky. It has the same shape as the sky touching the earth on all four sides. Whatever prayers or chanting are made under its canopy will not get lost as they would in the vast sky, because the dome will throw them back towards the supplicant. The rounder the dome, the easier it is for the sound to travel back, and its echo increases in the same proportion. 

As time passed even stones were discovered which could multiply the resonance to a tremendous degree. There is a Buddhist prayer hall in the Ajanta caves where the stones echo sound with the same intensity as that of the Indian musical instrument, the tabla. If we strike those stones with the same force as is used in playing the tabla, they will give out the same volume of sound. Ordinary stones used in the construction of domes do not possess the capacity to echo certain very subtle sounds, and so that specific type of stone was employed.

What is the purpose behind all this? The purpose is that when anyone chants ”Aum,” and it is done very intensely, the dome of the temple makes the sound reverberate, forming a circle of the chanting or sound. The dome of the temple, by the very nature of its design, helps in the formation of a circle by echoing the sound. Such a sound circle is unique. If ”Aum” is chanted under the wide open sky, no sound circle will be formed, and you will never experience that joy.

When the formation of the circle happens, you don’t remain just a humble supplicant before the divine, but you become a recipient – that is to say, the one whose prayers are answered. And with that resonance, the divine experience begins to enter you. Although the sound produced in the chanting is human, when it is echoed it resounds with a new speed, and as it is imbibed, other potentialities are released.

The dome-shaped temples were used to form sound circles through the chanting of mantras. If one does the chanting sitting all alone in perfect peace and silence, then as soon as the sound circle is formed, thoughts will stop. On one side the circle is formed, and on the other, thoughts come to a stop. As I have often said, a circle of energy is formed even in the act of sexual intercourse between a man and a woman, and when the formation of such a circle takes place – that is the moment pointing toward super consciousness.

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The Secret of Sounds, Shape and Fragrances 


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