मैं चिंतित था अपने पिता के लिए, वैसे ही जैसे तुम्हारे लिए चिंतित हूं।
इसलिए नहीं कि वे मेरे पिता थे। इसलिए कि कोई भी सोता हुआ पाता हूं तो
चिंतित होता हूं। चिंतित था कि हो पाएगा यह कि नहीं हो पाएगा? वे जग पाएंगे
मृत्यु के पहले या नहीं जग पाएंगे?
चेष्टा वे कर रहे थे, अथक चेष्टा कर रहे थे! पिछले दस वर्षों से सुबह
तीन बजे उठ आते थे नियमित। बीमार हों, स्वस्थ हों, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता
था। घर के लोग डर जाते थे, मेरी मां डर जाती थी। क्योंकि वे तीन बजे से
ध्यान करने बैठ जाते, और कभी छह बज जाते, कभी सात बज जाते, कभी आठ, और उठते
ही नहीं ध्यान से! तो स्वभावतः मेरी मां को डर लगता, वह जाकर देख भी आती
कि सांस चल रही है कि नहीं! क्योंकि पांच घंटे एक ही आसन में बैठे हैं, न
हिलते, न डुलते। कभी कभी तो यहां वे सुबह का प्रवचन चूक जाते थे, क्योंकि
वे तीन बजे जो बैठे तो आठ बज गए, नौ बज गए। मेरी मां उनको हिलाकर डुलाकर
ध्यान से वापस लाती कि अब प्रवचन का समय हुआ। तो उन्होंने मुझसे शिकायत भी
की कि समझाओ अपनी मां को, कि मुझे बीच ध्यान में न उठाया जाए। बहुत धक्का
लग जाता है, बहुत गहराई से उतरना पड़ता है।
अथक चेष्टा कर रहे थे!
डरता था मैं, क्योंकि उनकी देह क्षीण होती जा रही थी; हो पाएगी यह
अपूर्व घटना मृत्यु के पहले या नहीं? बीमारी ऐसी थी कि कठिन थी। खून के
थक्के शरीर में जमने शुरू हो गए थे। तो जहां भी खून का थक्का जम जाए वहीं
खून की गति बंद हो जाए। मस्तिष्क में जम गया एक थक्का, तो एक मस्तिष्क का
अंग काम करना बंद कर दिया। एक हाथ उससे जो जुड़ा था वह हाथ बेकाम हो गया।
उससे जो पैर जुड़ा था वह पैर बेकाम हो गया। उस पैर में भी खून का थक्का जम
गया। सर्जनों ने सलाह दी कि पैर काट दिया जाए, और कोई उपाय नहीं है;
क्योंकि यह पैर सड़ जाएगा तो इसकी सड़ान पूरे शरीर में पहुंच जाएगी, फिर
बचाना मुश्किल है। मैंने उनसे पूछा कि पैर तो तुम काटोगे, लेकिन बचने की
उम्मीद कितनी है? नहीं कि मेरी कोई बहुत इच्छा है कि वे लंबे जीएं। लंबे
जीने से क्या होता है?
उन्होंने कहा, बचने की उम्मीद तो केवल पांच प्रतिशत है, पंचानबे प्रतिशत
तो पैर के काटने में ही समाप्त हो जाने का डर है। क्योंकि क्लोरोफार्म को
वे सह सकेंगे, इतनी सबल उनकी देह नहीं है। और इतना बड़ा ऑपरेशन, तो
क्लोरोफार्म तो देना ही पड़ेगा। क्लोरोफार्म देने में ही संभावना है कि उनकी
हृदय की गति बंद हो जाएगी।
तो मैंने कहा, फिर रुको। ऑपरेशन की कोई फिक्र न करो। लंबा जिंदाने की
मुझे कोई इच्छा नहीं है। मेरी इच्छा कुछ और है। दस बीस दिन, जितने दिन भी
वे जिंदा रह जाएं, आखिरी चेष्टा उन्हें कर लेने दो अपने भीतर पहुंचने की।
और मैं अत्यंत आनंदित हूं कि मरने के कुछ ही घंटे पहले उन्होंने यात्रा
पूरी कर ली। आठ तारीख की संध्या शरीर छूटा, लेकिन आठ तारीख की सुबह तीन और
पांच के बीच, चार बजे के करीब उनका बुझा दीया जल गया। उस सांझ मैं उन्हें
देखने गया था, देख कर मैं निश्चिंत हुआ। नहीं कि वे जीएंगे; जीने का तो कोई
बहुत अर्थ भी नहीं है। लेकिन आनंदित मैं लौटा, क्योंकि जो होना था वह हो
गया; अब उन्हें दोबारा न आना पड़ेगा। वे जान कर गए, पहचान कर गए, आनंदित गए।
अब उनका कोई पुनरागमन नहीं है। और आवागमन से छूट जाना ही इस जीवन की
शिक्षा है। इस जीवन में वही सफल है जो आवागमन से छूट गया है।
काहे होत अधीर
ओशो
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