यह प्रश्न ही गलत है: किस देवता को हम पूजें?
इसमें जोर है देवता के चुनाव पर। इसलिए इसे मैं गलत प्रश्न कहता हूं। यह
किसी साधारणजन ने पूछा होगा। वेद में इसका उल्लेख है, मगर वेद में सभी वचन
ऋषियों के नहीं हैं–नहीं हो सकते हैं। क्योंकि वेद को मैंने देखा तो मैंने
पाया कि अधिकतर बातें तो इतनी छोटी हैं, इतनी ओछी हैं कि वेद में होनी ही
नहीं चाहिए थीं। लेकिन उनके होने का कारण है। वेद उस समय की
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका है। जो भी उस समय की जानकारी थी, सब वेद में
डाल दी गई–अच्छी, बुरी; छोटे लोगों की, बड़े लोगों की; अज्ञानियों की,
ज्ञानियों की। सब इकट्ठा कर दिया गया। उसमें तुम्हें छांटना होगा।
महर्षियों के वचन तो बहुत थोड़े हैं। अधिकतर वचन तो अज्ञानियों के हैं।
कोई प्रार्थना कर रहा है इंद्र से कि हे इंद्र, मेरे दुश्मन के खेत में वर्षा ही मत करना!
अब यह कोई महर्षि ऐसी प्रार्थना करेगा? एक तो महर्षि किसी को दुश्मन
क्यों मानेगा? और चलो, मान भी लिया कि दुश्मन कोई है, तो ऐसी प्रार्थना
करेगा कि उसके खेत में पानी कम बरसाना? और न केवल महर्षि इस तरह की
प्रार्थना कर रहे हैं, इंद्र देवता इस तरह की प्रार्थनाएं मान भी रहे हैं। न
तो महर्षि महर्षि मालूम होते हैं, न इंद्र देवता इंद्र देवता मालूम होते
हैं। क्योंकि ऋषि कह रहा है कि नारियल चढ़ाऊंगा। वह रिश्वत दूंगा, कह रहा
है, ठीक अर्थों में।
इसीलिए भारत से रिश्वत का मिटना बहुत मुश्किल है। यह बड़ी पुरानी परंपरा
है। हम देवताओं को रिश्वत देते रहे, भगवान को रिश्वत देते रहे,
राजाओं-महाराजाओं को रिश्वत देते रहे। रघुकुल रीत सदा चलि आई! यह तो चलता
ही रहा। अब उसी तरह जो भी अब हैं–प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, कि गवर्नर, कि
कमिश्नर, कि कलेक्टर, कि डिप्टी कलेक्टर, कि इंस्पेक्टर, कि हवलदार, कि
चपरासी–जो भी जहां जरूरत है, हमें एक बात पता है कि नारियल चढ़ाने से सब कुछ
होता है। इस देश में रिश्वत तो धार्मिक कृत्य है। इसलिए इस देश से रिश्वत
को मिटाना बहुत मुश्किल है।
दुनिया के किसी देश में इस तरह की रिश्वत नहीं चलती। चल ही नहीं सकती,
क्योंकि लोगों को थोड़ा सम्मान है अपना। अगर तुम किसी आदमी को रिश्वत देने
को कहोगे तो वह चांटा मार देगा तुम्हें, कि तुम उसका अपमान कर रहे हो। तुम
कह रहे हो कि वह अपने कर्तव्य को बेच दे–दो पैसे में! तुम उससे उसकी आत्मा
बेच देने का आग्रह कर रहे हो–दो पैसे में! पहले तो कोई देने की हिम्मत नहीं
करेगा। और देने की किसी ने हिम्मत की तो उत्तर में बहुत कठिनाई में पड़
जाएगा। इस देश में लेकिन लेना-देना बिलकुल प्रेम से चलता है। अड़चन ही नहीं
है कोई। कोई सोचता ही नहीं कि रिश्वत लेने में कोई अपमान है। देने वाला भी
नहीं सोचता कि वह अपमान कर रहा है। देने वाला सोचता है सम्मान कर रहा है।
लेने वाला भी सोचता है सम्मानित हो रहा हूं। अगर न दो रिश्वत तो अपमान है।
पुरानी आदतें हैं। परंपरागत है।
यह पूछना कि किस देवता की उपासना करें, यह प्रश्न ही गलत है। यह किसी
ऋषि का नहीं हो सकता। ऋषि तो उपासना करता है, देवता का सवाल ही नहीं है। यह
सारा अस्तित्व दिव्य है। इसमें कहां पूछना कि किसकी करें और किसकी न करें!
यह पूछना कि मैं किस देवता के सामने झुकूं, गलत आदमी का सवाल है। सही आदमी
पूछता है: झुकने की कला क्या है?
मेरी बात को ठीक से समझ लेना। सही आदमी पूछता है: झुकने की कला क्या है?
वह यह सवाल ही नहीं कि किसके सामने झुकें। झुकने की कला! फिर जहां भी झुक
जाओ वहीं परमात्मा है। गलत आदमी पूछता है कि परमात्मा हो तो मैं झुकूं। सही
आदमी कहता है कि जहां मैं झुक गया वहीं मैंने परमात्मा पाया। झुकना पहले
है, परमात्मा पीछे है। और गलत आदमी कहता है: पक्का हो जाए कि ये ही सज्जन
परमात्मा हैं! यही देवता काम पड़ेगा! कि यह है भी देवता कि नहीं!
इस प्रश्न में यही सारी बातें छिपी हैं। कस्मै देवाय हविषा विधेम? किसकी
स्तुति करें? किसकी उपासना करें? असल में, जो अनुवाद किया है, आनंद
मैत्रेय–हम किस देव की स्तुति व उपासना करें? वह अनुवाद भी थोड़ा सा भिन्न
है मूल से। कस्मै देवाय हविषा विधेम? हविषा का अर्थ होता है–भेंट किसको
चढ़ाएं? रिश्वत किसको दें? उसका ठीक-ठीक अर्थ होता है: भेंट। डाली किसको
भेजें? कौन काम पड़ेगा? लड़का बीमार है, पत्नी मिलती नहीं, नौकरी खो गई,
दीवाला निकल गया। अब कौन है देवता जो दीवाले को दीवाली में बदल दे? उसकी हम
भेंट करेंगे। उस पर हम उपासना करेंगे, प्रार्थना करेंगे, स्तुति करेंगे।
उसके चरणों में सिर पटकेंगे। मगर पक्का हो जाए कि वह कर भी सकता है कि
नहीं! उसकी सामर्थ्य में भी है यह बात या नहीं!
तो फिर दावेदार पैदा होते हैं, पंडित-पुरोहित पैदा होते हैं। वे कहते
हैं कि यह है असली देवता। इस देवता का यह रहा मंत्र। इसी मंत्र से यह देवता
सिद्ध होगा। और मंत्र की भी यह विशेष पद्धति है, इसमें इंच भर फर्क किया
कि चूक हुई, कि फिर देवता से संबंध छूट जाएगा। और मैं ही कान फूंकूंगा
तुम्हारे। और मैं ही तुम्हें विधि बताऊंगा। और तुम किसी को यह विधि बताना
मत।
ये सब धंधे फैलाने के उपाय हैं।
नहीं, यह प्रश्न ऋषि का नहीं है। यह प्रश्न बहुत सामान्यजन का होगा। ऋषि
तो पूछेगा: झुकने की कला क्या है? निरहंकार होने की कला क्या है? मैं कैसे
मिट जाऊं?
काहे होत अधीर
ओशो
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