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Tuesday, June 7, 2016

आप के पास आना और बैठना अच्छा लगता है। लेकिन प्रवचन सुनने के बाद कुछ और ही लगने लगा है। लगता है कि कोई गहरा नशा किया हो; ध्यान वगैरह करने की भी इच्छा नहीं होती। पर संन्यास लेने की इच्छा होने लगी है। क्या उस योग्य हूं?

यह मधुशाला है। यहा नशा न आए तो तुम बेकार ही आए और बेकार ही गए। यहा पहुंचते ही वही हैं जो डगमगा जाते हैं। यहा आए, इसका सबूत ही यह है कि लौटते समय आंखों मे खुमार हो, कि मन में एक मस्ती हो, कि एक नशा छाया हो, कि दूर की पुकार सुनी गई, कि दूर के तारों ने तुम्हें निमंत्रण दिया, कि अभीप्सा जगी;कि तुम्हारे भीतर कोई सोया था स्वर, वह पहली दफा छेड़ा गया; तुम्हारे भीतर कोई बीज दबा पड़ा था, वह टूटा और अंकुरित हुआ; तुम्हारे भीतर कोई अनजानी प्यास तड़फी, तुम्हारे भीतर कोई अस्पष्ट गीत गुनगुनाया गया। यही होना चाहिए।

अगर मुझे सुनकर तुम्हारे भीतर मस्ती न आए, तो तुमने सिर्फ मेरे शब्द सुने, मुझे नहीं सुना। अगर तुम्हारे भीतर मस्ती आ जाए, तुम यहा से चलते वक्त डगमगाते लौटो, थोड़ी बेखुदी आ जाए, बेखुद होकर लौटो मस्ती यानी अहंकार थोड़ा क्षीण हो;मस्ती यानी थोड़ी तरलता आए, बर्फ थोड़ी पिघले, बहाव आए; मस्ती यानी जीवन में और भी अर्थ हो सकते हैं जो तुमने नहीं खोजे, इनकी थोड़ी खबर आए कि जिंदगी जीने का कोई और ढंग भी हो सकता है, कि दुकान और बाजार पर जिंदगी समाप्त नहीं है, कि धन और पद पर जीवन की इति नहीं है, कि यहा और भी आकाश हैं उड़ने को, कि और भी मुकाम हैं पहुंचने को, ऐसी जब तुम्हारे भीतर थिरक आएगी तो नशा मालूम होगा। शुभ हो रहा है। इसी नशे के पैदा हो जाने को मैं मानता हूं कि आदमी संन्यास के लिए पात्र हुआ। इन्हीं नशेलचियो के लिए संन्यास है। ठीक तुम्हारे लिए। और यहा कोई कसौटी नहीं है।

मैं तुम से यह नहीं कहता कि संन्यासी के लिए पहले तुम्हें उपवास करना पड़े, तप करना पड़े, जप करना पड़े; मैं तुम से यह भी नहीं कहता कि संन्यासी के लिए तुम्हें इस इस तरह का आचरण करना पड़े, इस इस तरह का चरित्र होना चाहिए, मैं इन क्षुद्र बातो मे जरा भी नहीं उलझा हूं। मगर एक बात तो चाहिए ही, परमात्मा को पाने का नशा तो चाहिए ही। उसे नहीं छोड़ा जा सकता। उसके पीछे सब चला आएगा। जिसके भीतर परमात्मा को पाने की आकांक्षा जग गई, उसके भीतर से क्षुद्र बातें अपने आप गिर जाएंगी। क्योंकि जब कोई हीरे लेने चलता है तो पत्थरों को नहीं सम्हालता, छोड़ देता है। और जब किसी के घर में कोई बड़ा मेहमान आने को होता है तो वह घर की तैयारी करता है, स्वच्छता करता है, घर को पवित्र करता है, यह सब स्वाभाविक है। इसकी मैं चिंता ही नहीं लेता। मैं तो कहता हूं पहले उस बड़े मेहमान को बुलाओ।

तुम से दूसरे लोग कहते रहे हैं कि घर शुद्ध करो, मैं कहता हूं पहले मेहमान को निमंत्रित करो;घर की शुद्धि तो बड़ी गौण बात है। वह तुम कर ही लोगे, उसकी चिंता मुझे लेने की जरूरत नहीं। जब तुम देखोगे कि परमात्मा करीब आने लगा, तुम अचानक पाओगे तुम्हारे चरित्र में रूपांतरण शुरू हो गया। अब तुम बहुत सी बातें नहीं करते हो, जो करते थे कल तक। और तुमने उन्हें रोका भी नहीं है, मगर करना बंद हो गया है, क्योंकि अब प्रभु करीब आ रहा है, उसके योग्य बनना है, रोज रोज उसके योग्य बनना है, सिंहासन बनना है उसका;तो अब छुद्र बातें नहीं की जा सकतीं। यह बोध से ही रूपांतरण हो जाता है। उसके लिए कोई चेष्टा अनुशासन, जबर्दस्ती आग्रहपूर्वक, व्रत नियम इत्यादि नहीं लेने होते।

व्रत नियम तो वही लेता है जिसे उस मालिक की कोई खबर नहीं। उस मालिक की जिसे खबर आई, जिसे उस मालिक का दर्शन होने लगा, उसकी पगचाप सुनाई पड़ी कि वह आने लगा करीब, कि तुम भागे, कि तुम सब साफ कर डालोगे, तुम कूड़ा कर्कट फेंक दोगे घर से, तुम सजा लोगे, तुम धूप दीप जला लोगे, तुम फूल ले आओगे, तुम बंदनवार बना लोगे; यह सब अपने से हो जाएगा; मेहमान तो आए तुम मेजबान बन जाओगे।

लेकिन एक शर्त मैं भी नहीं छोड़ सकता हूं;वह है मादकता की शर्त। उसके बिना तो मेहमान ही नहीं आएगा। मदभरे होकर पत्र लिखोगे तो ही उस तक पहुंचेगा। तुम्हारी पाती में तुम्हारा नशा होगा तो ही पाती उस तक पहुंचेगी, नहीं तो नहीं पहुंचेगी। मस्त होकर जब तुम पुकारोगे, तभी तुम्हारी प्रार्थना उस तक पहुंचेगी। होशियारी में की गई प्रार्थनाएं बेकार चली जाती हैं। समझदारी में की गई प्रार्थनाएं उस तक नहीं पहुंचतीं। उनमें गणित होता है, प्रेम नहीं होता। नशे में, तो ही प्रार्थना उस तक पहुंचती है।
 
 अथातो भक्ति जिज्ञासा 
 
ओशो 

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