महावीर ने बहुत सुंदर शब्द कैथार्सिस के लिए प्रयोग किया है। पश्चिम में
मनसशास्त्री जिसे कैथार्सिस कहते हैं, रेचन कहते हैं, महावीर ने उसे
“निर्जरा’ कहा है। वह बहुत अदभुत शब्द है।
निर्जरा का अर्थ है, विदरिंग अवे। निर्जरा का अर्थ है, किसी चीज का झड़
जाना। कोई चीज जो इकट्ठी है, उसका बिखर जाना। निर्जरा का अर्थ है, अगर ऊपर
धूल इकट्ठी हो गई है, तो धूल के कणों को फेंककर अलग कर देना।
बहुत वेग हमारे भीतर इकट्ठे हैं। ध्यान में इनकी निर्जरा, इनकी
कैथार्सिस की जा सकती है; और सिर्फ ध्यान में ही की जा सकती है। और कोई
उपाय मनुष्य के दबे हुए वेगों की निर्जरा का नहीं है।
ध्यान में कैसे की जा सकती है?
जब आपके मन में किसी को घूंसा मारने की इच्छा पैदा होती है, तब आप एक
छोटा सा प्रयोग करके देखेंगे और बहुत हैरान होंगे और यह प्रयोग मैं मजाक
में नहीं कह रहा हूं। अमेरिका में एक बड़ी वैज्ञानिक प्रयोगशाला इस प्रयोग
को आज कर रही है।
केलिफोर्निया में एक संस्था है, इसालेन इंस्टीटयूट। शायद अमेरिका में एक
बहुत कीमती ऋषि आज मौजूद है। उसका नाम है, पर्ल्स। वह जिन लोगों के मन में
बड़ी हिंसा है, उनकी आंखों पर पट्टियां बंधवा देता है, तकिए उनके सामने रख
देता है, और कहता है, मारो घूंसे और समझो कि दुश्मन सामने है। जिसे तुम्हें
मारना है, उसी को मारो!
पहले तो आदमी हंसता है कि तकिए को कैसे मारें! लेकिन किसी दूसरे आदमी को
मारने में और तकिए को मारने में हाथ को कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। और किसी
आदमी को मारने में और किसी तकिए को मारने में, खून में जो विष पैदा हो गया
है, उसके निकलने में भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। दूसरा आदमी भी तकिए से
ज्यादा और क्या है?
तो पर्ल्स अपने हिंसक मरीज को कहेगा कि मारो तकिए को!
पहले मरीज हंसेगा, लेकिन पर्ल्स कहेगा, हंसो मत, मारो! मरीज कहेगा, आप
भी क्या मजाक करते हैं! लेकिन पर्ल्स कहेगा, थोड़ा मजाक ही सही, लेकिन मारो!
मरीज तकिए को मारना शुरू करेगा और थोड़ी ही देर में आस-पास खड़े लोग देखकर
हैरान होंगे कि न केवल मारने में उसकी गति आ गई, न केवल वह तकिए से जूझने
लगा, न केवल तकिए से वह दुश्मनी निकाल रहा है, बल्कि वह तकिए को चीरेगा,
फाड़ेगा, मुंह से काट डालेगा; तकिए के टुकड़े-टुकड़े कर देगा! और जिन लोगों को
भी इन प्रयोगों से गुजरना पड़ा है, वे प्रयोग के बाद कहते हैं कि मन बहुत
हल्का हो गया है। इतना हल्का कभी भी नहीं था।
ये पर्ल्स क्या कह रहा है? ये यह कह रहा है कि तुमने अब तक हिंसा सकारण
निकाली है, किसी पर निकाली है। अब तुम हवा में निकाल लो, किसी पर मत
निकालो; क्योंकि जब भी किसी पर निकाली जायेगी, तो उसकी प्रतिक्रियाएं
होंगी।
अगर मैं किसी को घूंसा मारूंगा, तो यह घूंसा आकाश में खो नहीं जायेगा,
अंतरिक्ष इसको एबजार्ब नहीं कर लेगा। जिसको घूंसा मारूंगा, वह इसका उत्तर
देगा। आज देगा, कल देगा, परसों देगा–प्रतीक्षा करेगा, लेकिन उत्तर देगा। और
जब मैं किसी को घूंसा मारूंगा, तो हो सकता है वह बुद्ध जैसा, महावीर जैसा
कोई आदमी हो, और उत्तर न भी दे, तो भी जैसे ही मैं किसी को घूंसा मारूंगा,
तो मेरे मन में भी प्रतिक्रिया और पश्चाताप होगा।
और ध्यान रहे! क्रोध ही बुरा नहीं है, पश्चात्ताप भी उतना ही बुरा है।
क्योंकि पश्चात्ताप उल्टा हो गया क्रोध है, पश्चात्ताप शीर्षासन करता हुआ
क्रोध है। पश्चात्ताप भी उतना ही बुरा है। असल में पश्चात्ताप करके आदमी
फिर से क्रोध करने की तैयारी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करता है। जब एक
आदमी रिपेंट करता है और कहता है, बहुत बुरा हुआ कि मैंने क्रोध किया, तब वह
अपने मन को यह समझा रहा है कि मैं इतना बुरा आदमी नहीं हूं, एक बुरा काम
हो गया है, यह दूसरी बात है।
पश्चात्ताप करके वह अपने अच्छे आदमी को वापस पुनर्स्थापित कर रहा है। वह
रीइस्टेबलिश कर रहा है अपनी पुरानी इज्जत को, अपनी ही आंखों में। और जैसे
ही वह पुनर्स्थापित हो जायेगा, कल फिर घूंसा मारने के लिए तैयार हो जायेगा।
परसों फिर पश्चात्ताप, फिर घूंसा। क्रोध और पश्चात्ताप का एक दुष्ट-चक्र
घूमता रहेगा।
और जब हम किसी व्यक्ति को घूंसा मारते हैं, तो न केवल पश्चात्ताप होता
है, बल्कि वह घूंसे का उत्तर देगा, इसकी पुनः तैयारी भी शुरू हो जाती है।
इसलिए हिंसा फिर एक दुष्ट-चक्र बन जाती है, जिसके बाहर निकलना मुश्किल हो
जाता है।
लेकिन तकिए को अगर एक आदमी घूंसा मार रहा है, तो ऐसा कुछ भी नहीं घटता।
तकिए को घूंसा मारने में निर्जरा हो रही है। पर्ल्स तकिए को घूंसा मारने को
कह रहा है, क्योंकि जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, वह बहुत आब्जेक्टिव हो
गई है। महावीर पच्चीस सौ साल पहले थे। वे कहते, हवा में ही घूंसा मार दो,
तकिए की क्या जरूरत है? लेकिन हम कहेंगे, हवा में घूंसा? तकिए को तो फिर भी
मारने जैसा लगता है। वह कम से कम आदमी की पीठ जैसा लगता है, पेट जैसा लगता
है! तकिए को घूंसा छुयेगा तो ऐसा ही लगेगा कि किसी को छुआ, थोड़ा-सा तो
तकिया भी उत्तर देगा।
दुनिया पच्चीस सौ साल में महावीर के बाद वस्तुगत हो गई है। महावीर ने
जिस ध्यान की बात की है, उस ध्यान में तकिए की भी कोई जरूरत नहीं है। मैं
भी जिस ध्यान की बात करता हूं, उसमें भी तकिए की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन
शायद अमेरिका में तकिए के बिना घूंसा मारना और भी मुश्किल हो जायेगा।
वस्तुगत कुछ तो होना ही चाहिए। आदमी न सही, तो तकिया ही सही।
महावीर तो तकिए को भी मारने को मना करेंगे। वे तो कहेंगे…पर्ल्स को वे
तो कहेंगे, इसमें भी थोड़ी-सी हिंसा हो रही है। यह आदमी तकिए में अपने
दुश्मन को प्रोजेक्ट कर रहा है। कोई दुश्मन नहीं है, जिसको चोट पहुंच रही
है, लेकिन इस आदमी को किसी को मारने का मजा और रस आ रहा है। यह रस भी हिंसा
की धारा को थोड़ा-बहुत जारी रखेगा। इससे हिंसा की पूर्ण निर्जरा नहीं हो
जायेगी।
इसलिए पर्ल्स की लेबोरेटरी से गए लोग दो-चार-छह महीने बाद फिर वापस आ
जाएंगे और कहेंगे कि हिंसा फिर मन में इकट्ठी हो गई। अब फिर उनको तकिया
चाहिए और फिर उनको मारना पड़ेगा।
ध्यान की प्रक्रिया कहती है कि आप किसी की फिक्र छोड़ दें, सब्जेक्टिव
वायलेंस कर लें। सब्जेक्टिव वायलेंस का मतलब अपने साथ हिंसा करना नहीं है।
सब्जेक्टिव वायलेंस का मतलब है, सिर्फ हिंसा को हो जाने दें–बिना किसी
आब्जेक्ट के, बिना किसी विषय के, बिना किसी वस्तु के।
एक आदमी अगर ध्यान में चीख मारकर चिल्लाये, घूंसे मारे, नाचे, कूदे, तो
उसके भीतर जो हिंसा के दबे हुए वेग हैं, उनकी निर्जरा होती है। वे गिर जाते
हैं। एक घंटे भर के किसी भी दिन के प्रयोग के बाद आप इस बात का अनुभव कर
सकते हैं कि आपके भीतर के दबे हुए वेग उड़ गए, आप हल्के होकर कमरे के बाहर आ
गए। उस दिन दिनभर आप क्रोध न कर पायेंगे, उतनी आसानी से जितनी आसानी से कल
किया था। उतनी आसानी से किसी को घूंसा न बांध पायेंगे, जितनी आसानी से सदा
बांधा था। वे ही कारण, जो कल आपकी आंखों को लाल खून से भर देते, आज आपकी
आंखों को झील की तरह नीला ही छोड़ जायेंगे। और एक हंसी भी अपने पर आनी शुरू
होगी कि जिस हिंसा की ऐसे ही निर्जरा हो सकती थी, उसके लिए अकारण ही मैंने
दूसरों को पीड़ा देकर दुष्ट-चक्र निर्मित किये, विसीयस सर्किल बनाए।
महावीर एक गांव के पास खड़े थे और कुछ लोगों ने आकर उन्हें बहुत पीटा।
किसी ने उनके कान में खीलें ठोंक दीं। वे खड़े देखते रहे। पीछे किसी ने उनसे
पूछा, आपने कुछ भी न कहा? आप कुछ तो बोलते, इतना तो कहते कि अकारण मुझे
क्यों मार रहे हो?
तो महावीर ने कहा, अकारण वे नहीं मार रहे थे। उनके भीतर मारने की बात का
जरूर ही कोई कारण रहा होगा। हो सकता है, मुझसे संबंधित न हो कारण, लेकिन
उनके भीतर तो कारण रहा ही होगा। और फिर मैंने सोचा कि वे मुझे ही मार लें
तो बेहतर है, वे किसी दूसरे को मारेंगे, तो बिना मार का उत्तर पाए वापस न
लौटेंगे। उनकी हिंसा की निर्जरा हो जाये। तो मुझसे बेहतर आदमी उन्हें खोजना
मुश्किल है।
महावीर तकिए की तरह ही व्यवहार किये उन लोगों के साथ।
ध्यान में, दबे हुए समस्त-वेगों की निर्जरा होती है–वे चाहे हिंसा के
हों, चाहे क्रोध के हों, चाहे काम के हों, चाहे लोभ के हों–ध्यान में समस्त
दबे वेगों की निर्जरा होती है। और जब वेगों की निर्जरा हो जाये, जब
सप्रेस्ड, दबी हुई शक्तियां बिखर जायें, तो वृत्ति से छुटकारा पाने में बड़ी
आसानी हो जाती है। जब किसी के घर की तिजोरी का सारा धन फिंक जाये, तो
तिजोरी को फेंकने में बहुत देर नहीं लगती। तिजोरी को तो आदमी बचाता ही
इसलिए है कि उसके भीतर जो धन इकट्ठा है। अगर तिजोरी का सारा धन बांट दिया
गया हो, तो तिजोरी को दान करने में बहुत कठिनाई नहीं पड़ती।
ज्यों की त्यों रख दीन्हि चदरिया
ओशो
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