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Tuesday, June 14, 2016

मध्य

बुद्धिमान सदा मध्य को खोज लेता है। निर्बुद्धि हमेशा अति पर चला जाता है। और एक अति से दूसरी अति पर जाना निर्बुद्धि के लिए सदा आसान है। अगर तुम कृपण हो, कंजूस हो, तो सारे धन को त्याग कर देना बहुत आसान है। यह बात कठिन लगेगी समझने में कि कृपण और कैसे त्याग करेगा? लेकिन कृपणता एक अति है। और मन एक अति से दूसरी अति पर सरलता से चला जाता है। जैसा घड़ी का पेंडुलम बायें से दायें चला जाता है, दायें से बायें चला आता है। बीच में कभी नहीं ठहरता। ठहर जाये तो पूरी घड़ी रुक जाये।


कृपण अक्सर त्यागी हो जाते हैं। और अगर वे त्यागी न भी हों तो त्यागियों का बड़ा सम्मान करते हैं। तुम कंजूसों को हमेशा त्यागियों के चरणों में सिर झुकाते पाओगे। एक अति दूसरी अति के सामने सिर झुकाती है। सिर झुकाने का मतलब भी यही है कि हम भी चाहेंगे कि ऐसे ही हो जायें। सिर हम वहीं झुकाते हैं जहां जैसे हम होना चाहते हैं। हिंसक लोग अक्सर अहिंसक आदमी की प्रशंसा करते हुए पाये जायेंगे…दूसरी अति!


यह जानकर तुम्हें हैरानी होगी कि भारत में अहिंसा का जो जीवन-दर्शन पैदा हुआ, वह क्षत्रिय घरों से आया, ब्राह्मण घर से नहीं। महावीर, बुद्ध, पार्श्वनाथ, जैनों के चौबीस तीर्थंकर सब क्षत्रिय हैं। वहां हिंसा घनी थी। वहां चौबीस घंटे तलवार हाथ में थी। वहां अहिंसा पैदा हुई। एक भी ब्राह्मण अहिंसक नहीं हुआ इस अर्थ में, जैसा महावीर और बुद्ध अहिंसक हैं।


अगर हिंसक खोजना हो बड़े से बड़ा हिंदू, भारतीय परंपरा में, तो परशुराम है। वह ब्राह्मण घर में पैदा हुआ और पृथ्वी को अनेक बार क्षत्रियों से समाप्त किया। हिंसक पैदा हुआ ब्राह्मण घर में। अहिंसक पैदा हुए हिंसक घरों में; कारण क्या है? समझ में आता है अगर ब्राह्मण घर में अहिंसक पैदा होते। सीधी बात थी, कि ब्राह्मण घर में अहिंसक पैदा होना ही चाहिए। लेकिन मन अति पर जाता है। एक अति से दूसरी अति पर जाता है।


तुम हमेशा पाओगे, समृद्ध समाज में उपवास का सम्मान होगा। जहां ज्यादा खाने की सुविधा है, वहां उपवास समादृत होगा। गरीब समाज में अगर धार्मिक दिन आ जाये, तो उत्सव मनाने का एक ही ढंग होगा–पकवान। अच्छे से अच्छा भोजन। अमीर घर में अगर धार्मिक दिन आये तो मनाने का एक ही ढंग होगा–उपवास। जैन उपवास करते हैं, क्योंकि इस देश में सबसे ज्यादा समृद्ध, सबसे ज्यादा धन उनके पास है। गरीब कैसे धार्मिक दिन को उपवास करे? उपवास तो वह साल भर ही करता है। तो जब धार्मिक दिन आता है तो उससे विपरीत कुछ करे; तो वह नये कपड़े पहनता है, अच्छे से अच्छा भोजन बनाता है। वह उसका धार्मिक उत्सव है।


आदमी कैसे धार्मिक उत्सव मनाता है यह अगर तुम्हें पता चल जाये तो तुम्हें उसकी आर्थिक स्थिति तत्काल पता चल जायेगी। अगर उपवास करके मनाता है तो ज्यादा खाने की स्थिति में है। अगर भोज करता है, मित्रों को निमंत्रित करता है, तो गरीब स्थिति है। क्योंकि धर्म हमारे संसार का विपरीत है। वह दूसरी अति है। उसे हम उल्टे हो जायें तो ही मना पाते हैं।


और ऐसा हमारे पूरे जीवन में है। अगर व्यभिचारी कभी भी बदलेगा तो एकदम ब्रह्मचारी हो जायेगा। और ब्रह्मचारी अगर कभी भी गिरेगा तो एकदम व्यभिचारी हो जायेगा। बीच में, सम पर रुक जाना अति कठिन है। और जीवन की बड़े से बड़ी कला यह है कि कैसे अति से बचा जाये। क्योंकि इधर कुआं है, उधर खाई है।


पर क्या कारण है कि आदमी अति में इतना रस लेता है? क्योंकि अति में अहंकार को तृप्ति है। या तो तुम्हारे पास दुनिया का सबसे ज्यादा धन हो तो अहंकार खड़ा होता है; या तुम सारे धन को लात मार कर निकल जाओ, दुनिया के सबसे बड़े त्यागी हो जाओ, तो अहंकार तृप्त होता है। मध्य में अहंकार को तृप्त होने की कोई जगह नहीं है। मध्य में अहंकार मर जाता है। जैसे घड़ी बंद होती है ऐसे अहंकार की टिक-टिक भी बंद हो जाती है। इसलिए कोई भी मध्य में रुकना नहीं चाहता। और समत्व सार है। सारा जीवन अगर समत्व पर खड़ा हो जाये, तो तुम बुद्धिमान हो गये।

दीया तले अँधेरा 

ओशो 


 

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