हमारे मुल्क में हजारों स्त्रियां सती होती रहीं। सती होने का क्या मतलब
है? उसका मतलब है, जीवन की एक शर्त थी कि वह पति के साथ ही…। वह शर्त टूट
गई, तो जीवेषणा मृत्यु-एषणा बन गई। अब वह पति के साथ ही मर जाना चाहती है
स्त्री। उसका मतलब यह हुआ कि एक शर्त थी सुनिश्चित, उसके बिना जीवन स्वीकार
नहीं, उसके बिना मृत्यु स्वीकार है।
एक मित्र को मैं जानता हूं; वे एक राज्य के मुख्य मंत्री थे। बूढ़े हो गए
थे। उनके घर मैं मेहमान था। ऐसे ही बात चलती थी; बातचीत में वे भूल से कह
गए, फिर पछताए भी और कहा कि किसी और को मत कहना। लेकिन अब वे नहीं हैं,
इसलिए कोई अड़चन नहीं है। वे ऐसे ही बातचीत में, रात गपशप चलती थी, वे मुझसे
कह गए कि मेरी एक इच्छा है कि मुख्य मंत्री रहते ही मर जाऊं; क्योंकि बिना
मुख्य मंत्री के फिर मैं एक मिनट न जी सकूंगा। जब से भारत आजाद हुआ, तब से
वे मुख्य मंत्री थे उस राज्य के। बस एक ही इच्छा है कि मुख्य मंत्री रहते
मर जाऊं। मुख्य मंत्री नहीं रहा तो फिर न जी सकूंगा।
ऐसे वे एक स्कूल के मास्टर थे आजादी के पहले। लेकिन अब वापस, मुख्य
मंत्री का महल छोड़ कर अब वापस उनकी हिम्मत न थी पुरानी स्थिति में लौट जाने
की। उनकी स्थिति दयनीय थी। और मैं मानता हूं कि अगर वे मुख्य मंत्री रहते न
मरते, तो वे आत्महत्या कर लेते; वे इतने ही बेचैन और परेशान आदमी थे।
शर्तें हैं हमारी जीने की। जीवन सशर्त है। तो शर्त टूट जाए तो हम मरने
को राजी हो जाते हैं। आप अपनी हत्या करें या दूसरे की, कारण सदा एक होता
है। दूसरे की भी आप हत्या इसीलिए करते हैं कि वह आपके जीवन में बाधा बन रहा
था। और अपनी भी आप हत्या इसीलिए कर लेते हैं कि अब आपका स्वयं का जीवन भी
आपके सशर्त जीवन की आकांक्षा में बाधा बन रहा था। उसे मिटा डालते हैं।
यह जो हिंसा की वृत्ति है, यह इसी मृत्यु की–इसको फ्रायड ने थानाटोस कहा
है–यह मृत्यु-एषणा का हिस्सा है। अगर, जैसा फ्रायड कहता है, उतनी ही बात
हो, तो फिर आदमी को इससे मुक्त कैसे किया जा सकता है? इसलिए फ्रायड कहता है
कि ज्यादा से ज्यादा आदमी को हम कम से कम हिंसा के लिए नियोजित कर सकते
हैं; लेकिन पूर्ण अहिंसा के लिए नहीं। आदमी तो हिंसक रहेगा ही। इसलिए हम
उसकी हिंसा को सब्लीमेट कर सकते हैं, उसकी हिंसा को हम थोड़ा सा ऊर्ध्वगामी
कर सकते हैं। कई तरह के ऊर्ध्वगमन हैं हिंसा के, वह भी खयाल में ले लें, तो
आपको पता चले कि वहां भी आप हिंसा ही कर रहे हैं।
ताओ उपनिषद
ओशो
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