सार्त्र का एक बहुत प्रसिद्ध वचन मुझे स्मरण आता है, प्रसिद्ध भी और
अनूठा भी। सार्त्र का वचन है: मैन इज कंडेम्ड टु बी फ्री, आदमी स्वतंत्र
होने को विवश है; मजबूर है। सिर्फ एक स्वतंत्रता आदमी को नहीं है, बाकी सब
स्वतंत्रताएं उसे हैं। चुनाव करने के लिए आदमी मजबूर है। सिर्फ एक चुनाव
आदमी नहीं कर सकता। वह इतना भर नहीं चुन सकता कि “चुनाव न करना’ चुन ले। यह
भर नहीं चुन सकता। ही कैन नाट चूज नाट टु चूज, बाकी तो उसे सब चुनाव करना
ही पड़ेगा। इसलिए “न करने’ की बात नहीं चुन सकता, क्योंकि यह भी चुनाव ही
होगा।
आदमी को प्रतिपल चुनना ही पड़ेगा; क्योंकि आदमी चुनाव की एक यात्रा है,
पशु चुनाव की यात्रा नहीं है। पशु जो है, वह है। और अगर पशु जैसा भी है
उसकी जिम्मेवारी किसी पर होगी तो परमात्मा पर होगी। आदमी परमात्मा की
जिम्मेवारी के बाहर है। पशु के होने की जिम्मेवारी परमात्मा पर होगी। पशु
जैसा है, है। वृक्ष जैसे हैं, हैं। उनको हम दोषी नहीं ठहरा सकते और न ही हम
उन्हें प्रशंसा के पात्र बना सकते हैं। पर आदमी बाहर हो गया है उस वर्तुल
के, जहां से वह चुनाव के लिए स्वतंत्र है।
अब अगर मैं आत्म-अज्ञानी हूं, तो यह मेरा चुनाव है; और आत्म-ज्ञानी हूं,
तो यह मेरा चुनाव है। अब अगर मैं दुखी हूं, तो यह मेरा चुनाव है; और
आनंदित हूं, तो यह मेरा चुनाव है। आंखें खुली रखूं या बंद, यह मेरा चुनाव
है। चारों ओर प्रकाश मौजूद है। अब अंधकार में रहना मेरे हाथ की बात है, और
प्रकाश में रहना भी मेरे हाथ की बात है।
इसलिए मैंने कहा कि आत्म-अज्ञान के लिए भी मनुष्य जिम्मेवार है। अब
मनुष्य अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकता। अब वह प्रतिपल ज्यादा से
ज्यादा जिम्मेवार होता चला जायेगा। मनुष्य की यह जिम्मेवारी ही, उसकी गरिमा
और गौरव भी है; यही उसकी मनुष्यता भी है। यहीं से वह पशुता के बाहर निकलता
है।
इसलिए यह भी मैं आपसे कहना चाहूंगा कि जिन चीजों में हम बिना चुनाव किये बहते हैं, उन चीजों में हम पशु के तुल्य ही होते हैं।
यह भी बहुत मजे की बात है कि हिंसा आमतौर से हम चुनते नहीं, अतीत की आदत
के कारण करते चले जाते हैं। अहिंसा चुननी पड़ती है। इसलिए अहिंसा एक
उत्तरदायित्व है और हिंसा एक पशुता है। अहिंसा मनुष्यता की यात्रा पर एक
मंजिल है, हिंसा सिर्फ पुरानी आदत का प्रभाव है।
मैंने निश्चित ही कहा है कि हिंसा आत्म-अज्ञान से पैदा होती है। और इन
दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। आत्म-अज्ञान भी हमारा चुनाव है, हिंसा
भी हमारा चुनाव है। हम होना चाहें अहिंसक, तो अब कोई हमें रोक नहीं सकता।
मनुष्य जो भी होना चाहे, हो सकता है। मनुष्य का विचार ही उसका व्यक्तित्व
है; उसका निर्णय ही, उसकी नियति है; उसकी आकांक्षा ही, उसकी अभीप्सा ही,
उसका आत्मसृजन है।
ज्यों की त्यों रख दीन्हि चदरिया
ओशो
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