मैंने एक कहानी सुनी है। एक आदमी को शिव की पूजा करते करते और रोज शिव
का सिर खाते खाते…क्योंकि पूजा और क्या है, सिवाय सिर खाने के। एक ही धुन,
एक ही रट हे प्रभु, कुछ ऐसी चीजें दे दो कि जिंदगी में मजा आ जाए। एक ही
बार मांगता हूं। मगर देना कुछ ऐसा कि फिर मांगने को ही न रह जाए। परेशानी
में, हैरान होकर, क्योंकि सुबह देखे न सांझ यह आदमी, न देखे रात, जब उठे
तभी, आधी रात शिव के पीछे पड़ जाए। आखिर इसे वरदान में एक शंख शिव ने उठाकर
दे दिया जो उन्हीं के पूजा स्थल में इसने रख छोड़ा था। और इसको कहा इस शंख
की आज से यह खूबी है कि तुम इससे जो मांगोगे, तुम्हें देगा। अब तुम्हें कुछ
और परेशान होने की जरूरत नहीं और पूजा प्रार्थना की जरूरत नहीं।
अब मुझे
छुट्टी दो। जो तुम्हें चाहिए,वह इससे ही मांग लेना। यह तत्क्षण देगा। तुमने
मांगा और मौजूद हुआ। उसने मांगकर देखा, सोने के रुपए और सोने के रुपए बरस
गए। धन्यभाग हो गया। शिव न भी कहते तो भूल जाता। भूल—भाल गया शिव कहां गए,
क्या हुआ, उन बेचारों पर क्या गुजरी, इस सब की कोई फिकर भी न रही। फिर न
कोई पूजा थी, न कोई पाठ। फिर तो यह शंख था और जो चाहिए।
लेकिन एक मुसीबत हो गई। एक महात्मा इसके महल में मेहमान हुए। महात्मा के
पास भी एक शंख था। इसके पास जो शंख था बिलकुल वैसा, लेकिन दो गुना बड़ा। और
महात्मा उसे बड़े संभाल कर रखते था। उनके पास कुछ और न था। उनकी झोली में
बस एक बड़ा शंख था। इसने पूछा कि आप इस शंख को इतना सम्हाल कर क्यों रखते
हैं? उन्होंने कहा, यह कोई साधारण शंख नहीं, महाशंख, है। मांगों एक, देता
है दो। कहो, बना दो एक महल—दो महल बताता है। एक की तो बात ही नहीं। हमेशा।
उस आदमी को लालच उठा। उसने कहा यह तो बड़े गजब की बात है। उसने कहा एक
शंख तो मेरे पास भी है मगर छोटा मोटा। आपने नाहक मुझे दीन—दुखी बना दिया।
मैं गरीब आदमी हो गया। जरा देखूं चमत्कार।
उन्होंने कहा, इसका चमत्कार देखना बड़ा मुश्किल है। रात के सन्नाटे में
जब सब सो जाते हैं, तब निश्चित महूर्त में, अर्धरात्रि के सन्नाटों में
इससे कुछ मांगने का नियम है। तुम जागते रहना और सुन लेना।
महात्मा शंख से ठीक अर्धरात्रि में कहा, दे दे कोहिनूर। उसने कहा, एक
नहीं दूंगा, दो दूंगा। महात्मा ने कहा, भला सही दो दे दे। उसने कहा, दो
नहीं चार। किससे बात कर रहा है, कुछ होश से बात करो! महात्मा ने कहा, भई
चार ही दे दे। वह महाशंख बोला, अब आठ दूंगा। उस आदमी ने सुना, उसने कहा, हद
हो गई, हम भी कहां का गरीब शंख लिए बैठे हैं! महात्मा के पैर पकड़ लिए। कहा
आप तो महात्मा हैं, त्यागी व्रती हैं। इस गरीब का शंख आप ले लो, यह महाशंख
मुझे दे दो।
महात्मा ने कहा, जैसी तुम्हारी मर्जी। हम तो इससे छुटकारा पाना ही चाहते
थे। क्योंकि इस बेईमान ने हमें परेशान कर रखा है। मांगो कुछ, बकवास इतनी
होती है, रात—रात गुजर जाती है। फिर भी वह न समझा कि मामला क्या है कि वह
सिर्फ महाशंख था, कि वह सिर्फ बातचीत करता था, देता—वेता कुछ भी नहीं था।
हमेशा संख्या दोहरी कर देता था। तुम कहो चार तो वह कहे आठ, तुम कहो आठ तो
वह कहे सोलह। तुम कहो सोलह सही, वह कहे बत्तीस। तुम बोले संख्या कि उसने दो
का गुणा किया। बस उसको दो का गुणा करना ही आता था। और उसको कुछ नहीं आता
था।
महात्मा तो सुबह चले गए। जब इसने उस शंख से दूसरी रात्रि ठीक मुहूर्त
में कुछ मांगा तो उसने कहा,अरे नालायक! क्या मांगता है एक? दूंगा दो। उसने
कहा, भई दो दे दो। उसने कहा, दूंगा चार। चार ही दे दो। उसने कहा, दूंगा आठ।
सुबह होने लगी। संख्या लंबी होने लगी। मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए कि यह
हो क्या रहा है? सारा मोहल्ला जग गया कि मामला क्या है संख्या बढ़ती जाती
है, लेना देना कुछ भी नहीं। आखिर उस आदमी ने पूछा, भई दोगे भी कुछ कि
बातचीत ही बातचीत।
उसने कहा, हम तो महाशंख हैं। हम तो गणित जानते हैं। तुम मांगकर देखो।
तुम जो भी मांगो, हम दो गुना कर देंगे। इसने कहा, मारे गए। वह महात्मा कहां
है?
उसने कहा, वह महात्मा हमसे छुटकारा पाना चाहता था बहुत दिन से। मगर वह
इस तलाश में था कि कोई असली चीज मिल जाए। वह ले गया असली चीज। अब ढूंढ़ने से
न मिलेगा। हम मिला दे सकते हैं। पैर तो नहीं शंख के। मगर फिर भी पैरों को
पकड़कर सिर रखकर कहा कि किसी भी तरह महात्मा से मिला दो। कहा, दो से
मिलाएंगे। कहा कि हद हो गई। नालायक से पाला पड़ गया। चार से मिलाएंगे। फिर
वही बकवास। दो चार दिन में उस आदमी को पागल कर दिया। शंख ने उससे पूछा कि
अरे कुछ मांग। वह आदमी इधर उधर देखे कि कुछ बोले कि यह दुष्ट फंसाया अपने
चक्कर में। बोले कि फंसे। फिर उससे छूटना मुश्किल। फिर पीछा करता
आएगा बत्तीस लेगा? चौंसठ लेगा? लेना देना बिलकुल कुछ होता ही नहीं।
ध्यान और अहंकार के बीच वही संबंध है। अहंकार महाशंख है। कितना ही मिल
जाए और चाहिए। संख्या बढ़ती जाती है। दौड़ बढ़ती जाती है। और आदमी कभी उस जगह
नहीं पहुंचा, जहां वह कह सके आ गई मंजिल। मंजिल हमेशा मृग मरीचिका बनी रहती
है। दूर ही दूर। यात्रा बहुत, पहुंचता कहीं भी नहीं। मगर दौड़ धाप बहुत
होती है। और चूंकि सारी दुनिया दौड़ धाप कर रही है, इसलिए संघर्ष भी बहुत
है। और यह भी मानने का मन नहीं होता कि इतने सारे लोग गलत होंगे। ध्यान के
लिए तो कोई भी बैठता है।
कोपलें फिर फूट आई
ओशो
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