हमारे चारों और का संसार अनुभवगत नहीं है। बस माना हुआ है। तर्क
से, विचार से मन तो कहता है कि ऐसा है, पर ह्रदय इसे छू नहीं पाता। यही
कारण है कि हम दूसरों से ऐसा व्यवहार करते है जैसे वे व्यक्ति न हो
वस्तुएं हो। लोगों के साथ हमारे संबंध भी ऐसे होते है। जैसे वस्तुओं के
साथ होते है। पति अपनी पत्नी से ऐसा व्यवहार करता है जैसे वह कोई वस्तु
हो: वह उसका मालिक है। पत्नी भी पति की इसी तरह मालिक होती है। जैसे वह
कोई वस्तु हो। यदि हम दूसरों से व्यक्तियों की तरह व्यवहार करते तो हम
उन पर मालकियत न जमाते, क्योंकि मालकियत केवल वस्तुओं पर ही की जा सकती
है।
व्यक्ति का अर्थ है स्वतंत्रता। व्यक्ति पर मालकियत नहीं की
जा सकती। यदि तुम उन पर मालकियत करने का प्रयास करोगे। तो उन्हें मार
डालोगे। वे वस्तु हो जाएंगे। वास्तव में दूसरों से हमारे संबंध कभी भी
‘मैं-तुम’ वाले नहीं होते। गहरे में वह बस ‘मैं-यह’ (यह यानी वस्तु) वाले
होते है। दूसरा तो बस एक वस्तु होता है जिसका शोषण करना है। जिसका उपयोग
करना है। यही कारण है कि प्रेम असंभव होता जा रहा है। क्योंकि प्रेम का
अर्थ है दूसरे को व्यक्ति समझना, एक चेतन-प्राणी, एक स्वतंत्रता समझना,
अपने जितना ही मूल्यवान समझना।
यदि तुम ऐसे व्यवहार करते हो जैसे सब लोग वस्तु है तो तुम
केंद्र हो जाते हो और दूसरे उपयोग की जाने वाली वस्तुएं हो जाती है। संबंध
केवल उपयोगिता पर निर्भर हो जाता है। वस्तुओं का अपने आप में कोई मूल्य
नहीं होता; उनका मूल्य यही है कि तुम उनका उपयोग कर सकते हो, वे तुम्हारे
लिए है। तुम अपने घर से संबंधित हो सकते हो; घर तुम्हारे लिए है। वह एक
उपयोगिता है। कार तुम्हारे लिए है। लेकिन पत्नी तुम्हारे लिए नहीं है। न
पति तुम्हारे लिए है। पति अपने लिए है और पत्नी अपने लिए है।
एक व्यक्ति अपने लिए ही होता है। यही व्यक्ति होने का अर्थ
है। और यदि तुम व्यक्ति को व्यक्ति ही रहने देते हो। और उन्हें वस्तु
न बनाओ। धीरे-धीरे तुम उसे महसूस करना शुरू कर देते हो। अन्यथा तुम महसूस
नहीं कर सकते। तुम्हारा संबंध बस धारणागत, बौद्धिक, मन से मन का,
मस्तिष्क से मस्तिष्क का ही रहेगा। कभी ह्रदय से ह्रदय का नहीं हो
पाएगा।
विज्ञान भैरव तंत्र
ओशो
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