साधारणत: हम बोलते हैं, क्योंकि बिन बोले रहना कठिन है। न बोलें
तो बेचैनी होती है, न बोलें तो समझ में नहीं आता कि क्या और करें? चुप्पी
काटती है।
और किसी दूसरे व्यक्ति की मौजूदगी में अगर चुप रह जाएं तो बड़ी बेचैन
करने वाली स्थिति बन जाती है। चुप तो हम क्रोध में रहते हैं। चुप तो हम
किसी का अपमान करना हो तो रहते हैं। चुप तो हम उदास होते हैं, तब रहते हैं।
चुप के साथ हमने सारे गलत संयोग जोड़ रखे हैं। चुप्पी का विधायक, मौन का
सार्थक आयाम खो ही गया है।
तुम किसी के घर जाओ और वह चुप रहे, चुप बैठा रहे, कुछ न बोले, तुम
अपमानित अनुभव करोगे। बोलने में स्वागत है, बोलने में सत्कार है। मौन का
सत्कार तो हमें समझ में भी नहीं आ सकता। क्योंकि हम शब्द ही समझ सकते हैं,
निःशब्द को समझने की हमारी क्षमता नहीं है। तुम कुछ पूछो, कोई चुप रह जाए;
तो तुम समझोगे, उत्तर नहीं दिया।
मौन भी उत्तर हो सकता है। और कुछ चीजों का तो केवल मौन ही उत्तर होता
है। कुछ प्रश्न ही ऐसे हैं कि शब्द में कोई संभावना ही नहीं कि उनका उत्तर
बन पाए। वस्तुत: जीवन के जितने महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, सभी मौन में ही
सुलझाए जाते हैं। लेकिन अगर कोई चुप रह जाए, मौन रह जाए, तुमने पूछा हो
कुछ, तो तुम यही समझोगे कि तुम्हारे प्रश्न का सम्मान नहीं किया गया, या
तुम समझोगे कि जो चुप रह गया, उसे कुछ पता ही न था।
तो जिन्हें पता नहीं है, वे भी बोलते हैं। न बोलें तो पता चल जाएगा कि
उन्हें पता नहीं। मूढ़ बहुत मुखर हैं। मूढ़ों की इस मुखरता से मन व्यर्थ के
शब्दों से भर गया है। हम बोलते ही रहते हैं—दिन और रात, सोते और जागते,
जैसे शब्द से कोई छुटकारा ही नहीं हो पाता।
और शब्द किनारा है; अगर तुम उससे उलझे रहे तो जीवन की मझधार से वंचित हो जाओगे; तो तुम जान ही न पाओगे कि जीवन की धारा क्या थी।
शब्द तो बाहर से पाया है, भीतर से नहीं आया है। जब तुम पैदा हुए थे,
निःशब्द पैदा हुए थे। जब तुम अवतरित हुए थे, निष्कलुष, निर्विकार,
निर्विचार आए थे; शब्द तो बाहर से आया। गंगा उतरती है तो किनारे लेकर नहीं
उतरती, किनारे तो बाहर मिलते हैं।
सीमा बाहर से आती है, तुम तो असीम आते हो। तुम तो मौन आते हो, फिर शब्द
का आंगन तुम्हारे चारों तरफ दीवाल उठाता है। कोई हिंदू है, क्योंकि हिंदू
शब्दों की दीवाल है उसके पास, वेद की ईंटें लगी हैं उसकी दीवाल पर। कोई
मुसलमान है, कोई ईसाई है, फर्क क्या है? शब्दों का फर्क है। निःशब्द में तो
तुम समान हो, न कोई हिंदू है, न कोई ईसाई है, न कोई मुसलमान है। निःशब्द
में तो कोई विशेषण नहीं है; वहां तो तुम शून्य, खाली हो; वही तुम्हारा असली
होना है।
जब तक तुमने जाना कि तुम हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, तब तक तुमने
जाना ही नहीं कि तुम कौन हो, तब तक तुमने शब्द जाने। समाज तुम्हें शब्दों
से भर देता है; इसी को हम शिक्षण कहते हैं। विद्यालय, विश्वविद्यालय शब्दों
से भर जाते हैं।
धर्म निःशब्द का विद्यापीठ है। समाज तुम्हें शब्दों से भर देता है, धर्म
तुम्हें फिर शब्दों से मुक्त करता है। इसलिए धर्म न तो हिंदू हो सकता है, न
इस्लाम हो सकता है, न बौद्ध हो सकता है, न जैन हो सकता है। संप्रदाय हो
सकते हैं, क्योंकि संप्रदायों का संबंध शब्दों से है; धर्म का संबंध
निःशब्द से है।
समाज ने जो सिखाया, धर्म तुम्हें फिर भूलने की क्षमता देता है। समाज ने
जो लकीरें खींचीं, धर्म उन्हें तुम्हें फिर पोंछ देने की कला सिखाता है।
समाज अगर शिक्षण है, सीखना है, तो धर्म अनसीखना है, फिर कोरे होना है, फिर
सीमाएं तोड़नी हैं, फिर गंगा को सागर होना है, किनारे छोड़ने हैं।
किनारों में होने की सुविधा है, क्योंकि किनारों के बीच होना साफ साफ
होता है। किनारों के बीच होने पर तुम दोनों तरफ सुरक्षित दुर्ग के भीतर
होते हो, किनारे छूटते ही तुम अपने से भी छूट जाओगे। गंगा सागर में गिरकर
गंगा तो न रहेगी सागर हो जाएगी।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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