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Tuesday, June 14, 2016

हिंसा

आज ही एक युवती मेरे पास थी। वह कह रही थी कि हर महीने यह बात बार-बार लौट आती है कि जीवन में कोई अर्थ नहीं है, मर जाना चाहिए। अभी तो उसने जीवन देखा भी नहीं है।

छोटे बच्चों तक के मन में मरने का खयाल आ जाता है।

तो अगर मृत्यु की कोई आकांक्षा भीतर न हो तो ये मरने के खयाल कहां से अंकुरित होते हैं? मृत्यु की आकांक्षा भी भीतर है। और जब हम पाते हैं कि जीवन संभव नहीं रहा, तो मृत्यु की आकांक्षा हमें पकड़ लेती है।

यह बात इसलिए भी जरूरी है कि जगत में हर चीजें द्वंद्व में होती हैं। प्रकाश है, तो अंधेरा है; अकेला प्रकाश नहीं हो सकता। और जीवन है, तो मृत्यु है; अकेला जीवन नहीं हो सकता। तो अगर भीतर जीवेषणा है, तो मृत्यु-एषणा भी होनी ही चाहिए। यह सारा जगत द्वंद्व पर खड़ा है। यहां हर चीज अपने विपरीत के साथ बंधी है। विपरीत न हो, यह संभव नहीं मालूम होता।

अब तो वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि जीवन के सब नियम विपरीत पर खड़े हैं, और ऐसा कोई नियम नहीं है जिसका विपरीत नियम न हो। विपरीत न हो तो वह हो ही नहीं सकता। करीब-करीब हालत ऐसी है, जैसे एक मकान को बनाने वाला राजगीर उलटी ईंटें लगा देता है दरवाजे पर, गोल दरवाजा बन जाता है। विपरीत ईंटें एक-दूसरे को सम्हाल लेती हैं। जिंदगी विपरीत ईंटों से बनी है। यहां हर चीज का विरोध है, और विरोध के तनाव में ही संतुलन है। जैसे एक लकड़ी के दो छोर होंगे, एक छोर नहीं हो सकता, ऐसे ही जीवन की सब चीजों का दूसरा छोर भी है–कितना ही अज्ञात हो।

तो फ्रायड चालीस वर्ष निरंतर लोगों का मनोविश्लेषण करके इस नतीजे पर पहुंचा कि लोगों को पता नहीं है, उनके भीतर मृत्यु की आकांक्षा भी है। पर हालत ऐसी है, जैसे एक सिक्का होता है, उसके दो पहलू होते हैं। एक पहलू ऊपर होता है तो दूसरा नीचे दबा होता है, जब दूसरा ऊपर आता है तो एक पहला नीचे चला जाता है। जवान आदमी में जीने की आकांक्षा प्रबल होती है, मृत्यु की आकांक्षा नीचे दबी रहती है। कभी-कभी किसी बेचैनी में, किसी उपद्रव में, किसी अशांति में सिक्का उलट जाता है; जिंदगी की आकांक्षा नीचे और मौत की ऊपर आ जाती है। बूढ़े आदमी में मृत्यु की आकांक्षा ऊपर आ जाती है, जीवन की आकांक्षा नीचे दब जाती है। कभी-कभी किसी वासना के उद्दाम प्रवाह में सिक्का उलट जाता है और बूढ़ा भी जीना चाहता है। लेकिन एक ही वासना का आपको पता चलेगा, दोनों एक साथ आपको दिखाई नहीं पड़ सकतीं; क्योंकि एक ही पहलू आप देख सकते हैं। इसीलिए यह भ्रांति पैदा होती है कि हमारे भीतर एक ही आकांक्षा है–जीवन की। दूसरी भीतर छिपी है।


ये जो दो आकांक्षाएं हैं आदमी के भीतर, इन्हें थोड़ा हम ठीक से समझें, तो हिंसा और अहिंसा के विचार में बहुत गहन गति हो पाएगी। जब आपकी जीवन की वासना ऊपर होती है, तो आपके स्वयं के मरने की वासना नीचे दबी होती है। और जो आदमी जीना चाहता है प्रबलता से, वह आदमी मरना नहीं चाहता। लेकिन उसके जीवन की गति में कोई बाधा बने तो उसे मारना चाहता है। जिसकी जीवन की वासना प्रबल है, वह दूसरे के जीवन को नष्ट करके भी अपने जीवन की वासना को पूरा करना चाहता है। हिंसा इसी से पैदा होती है।


हिंसा, अपने ही भीतर जो मृत्यु की वासना है, उसका प्रोजेक्शन है दूसरे के ऊपर, उसका प्रक्षेपण है दूसरे के ऊपर। मेरे भीतर जो मृत्यु छिपी है, उसे मैं दूसरे पर थोपना चाहता हूं। हिंसा का मनोवैज्ञानिक अर्थ यही है: मैं नहीं मरना चाहता। मैं अपने जीने के लिए, चाहे सबको मारना पड़े, तो उसकी भी मेरी तैयारी है; लेकिन मैं नहीं मरना चाहता। हर हालत में, सारा जगत भी नष्ट करना पड़े, तो मैं तैयार हूं; लेकिन मैं जीना चाहता हूं। आदमी के भीतर दोनों संभावनाएं हैं। जब आदमी जीवन को पकड़ लेता है, तो उसकी मरने की वासना का क्या हो? वह भी उसके भीतर है। उसे प्रोजेक्ट करना पड़ता है, उसे दूसरे पर थोपना पड़ता है। नहीं तो बेचैनी होगी, कठिनाई होगी। दोनों की मांग है पूरा होने की। आप एक को पकड़े हैं तो दूसरे का क्या करिएगा? उसे आपको दूसरे पर आरोपित करना होता है।


इसलिए जितना जीवेषणा से भरा हुआ व्यक्ति होगा, उतनी ही हिंसा से भरा हुआ व्यक्ति भी होगा।

ताओ उपनिषद 

ओशो 




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