मनुष्य चेतना के तीन आयाम हैं। एक आयाम है गणित का, विज्ञान का, गद्य
का। दूसरा आयाम है प्रेम का, काव्य का, संगीत का। और तीसरा आयाम
है अनिर्वचनीय। न उसे गद्य में कहां जा सकता, न पद्य में! तर्क तो असमर्थ
है ही उसे कहने में, प्रेम के भी पंख टूट जाते हैं! बुद्धि तो छू ही नहीं
पाती उसे, हृदय भी पहुंचते पहुंचते रह जाता है!
जिसे अनिर्वचनीय का बोध हो वह क्या करें? कैसे कहे? अकथ्य को कैसे कथन
बनाए? जो निकटतम संभावना है, वह है कि गाये, नाचे, गुनगुनाए। इकतारा बजाए
कि ढोलक पर थाप दे, कि पैरों में घुंघरू बांधे, कि बांसुरी पर अनिर्वचनीय
को उठाने की असफल चेष्टा करे।
इसलिए संतों ने गीतों में अभिव्यक्ति की है। नहीं कि वे कवि थे, बल्कि
इसलिए कि कविता करीब मालूम पड़ती है। शायद जो गद्य में न कहा जा सके, पद्य
में उसकी झलक आ जाए। जो व्याकरण में न बंधता हो, शायद संगीत में थोड़ा सा
आभास दे जाए।
इसे स्मरण रखना। संतों को कवि ही समझ लिया तो भूल हो जाएगी। संतों ने
काव्य में कुछ कहा है, जो काव्य के भी अतीत है जिसे कहा ही नहीं जा सकता।
निश्चित ही गद्य की बजाए पद्य को संतों ने चुना, क्योंकि गद्य और भी दूर पड़
जाता है, गणित और भी दूर पड़ जाता है। काव्य चुना, क्योंकि काव्य मध्य में
है। एक तरफ व्याख्या विज्ञान का लोक है, दूसरी तरफ अव्याख्य धर्म का जगत
है; और काव्य दोनों के मध्य की कड़ी है। शायद इस मध्य की कड़ी से किसी के
हृदय की वीणा बज उठे, इसलिए संतों ने गीत गाए। गीत गाने को नहीं आए;
तुम्हारे भीतर सोए गीत को जगाने को गाए। उनकी भाषा पर मत जाना, उनके भाव पर
जाना। भाषा तो उनकी अटपटी होगी।
जरूरी भी नहीं कि संत सभी पढ़े लिये थे, बहुत तो उनमें गैर पढ़े लिखे थे।
लेकिन पढ़े लिखे होने से सत्य का कोई संबंध भी नहीं है; गैर पढ़े लिखे होने
से कोई बाधा भी नहीं है। परमात्मा दोनों को समान रूप से उपलब्ध है। सच तो
यह है, पढ़े लिखे के शायद थोड़ी बाधा हो, उसका पढ़ा लिखा ही अवरोध बन जाए;
गैर पढ़ा लिखा थोड़ा ज्यादा भोला, थोड़ा ज्यादा निर्दोष। उसके निर्दोष चित्त
में, उसके भोले हृदय में सरलता से प्रतिबिंब बन सकता है। कम होगा विकृत
प्रतिबिंब, क्योंकि विकृत करने वाला तर्क मौजूद न होगा। झलक ज्यादा अनुकूल
होगी सत्य के, क्योंकि विचारों का जाल न होगा जो झलक को अस्तव्यस्त करे।
सीधा सीधा सत्य झलकेगा क्योंकि दर्पण पर कोई शिक्षा की धूल नहीं होगी।
तो भाषा की चिंता मत करना, व्याकरण का हिसाब मत बिठाना। छंद भी उनके।
ठीक हैं या नहीं, इस विवेचना में भी न पड़ना। क्योंकि यह तो चूकना हो जाएगा।
यह तो व्यर्थ में उलझना हो जाएगा। यह तो गए फूल को देखने और फूल के रंग और
फूल के रसायन और फूल किस जाति का है और किस देश से आया है, इस सारे इतिहास
में उलझ गए; और भूल ही गए कि फूल तो उसके सौंदर्य में है।
अमी झरत बिसगत कंवल
ओशो
No comments:
Post a Comment