आस्तिक को निरंतर सावधान रहना चाहिए कि उसकी भूमि में अंकुरित होती जो
अभी कोमल सी जीवन धारा है, वह नष्ट न हो जाए। क्षुद्र बातें भी, व्यर्थ के
पत्थर भी, उसे नष्ट कर दे सकते हैं। और ऐसे लोग हैं चारों तरफ, जो विनाश
में रस लेते हैं। जो कोई भी चीज को तोड़ दें, तो अपने को ताकतवर समझते हैं।
जिन्हें किसी बात का कोई भी पता नहीँ है, वे भी कुछ कहे चले जाते हैं।
कोई व्यक्ति ध्यान करना शुरू करता है, तो कोई भी व्यक्ति दूसरा मित्र,
परिवार के, साथी संगी, परिचित, अजनबी कोई भी कह देता है, ध्यान वगैरह में
कुछ भी नहीं है! जैसे कि इन्होंने ध्यान कभी किया हो। जैसे ये ध्यान के कोई
अनुभवी हैं। जब कोई ध्यान के संबंध में कुछ कहे, तो पहले यह फिकर करना कि
इस आदमी ने कितना ध्यान किया है। आप हर किसी की बात नहीं मान लेते हैं और
दूसरे मामलों में, लेकिन इस मामले में बड़ी जल्दी मान लेते हैं।
अगर एक आदमी कहता है कि नहीं, यह दवा बीमारी के लिए ठीक नहीं है। तो आप
उससे पूछते हैं कि डिग्री क्या है आपके पास? एम. डी. हैं? एम बी बी एस हैं?
आयुर्वेद जानते हैं? हकीम हैं? क्या हैं? कुछ नहीं तो कम से कम होमियोपैथ
हैं? कुछ, क्या हैं क्या आप? वह आदमी कहता है, नहीं, मैं भरोसा ही नहीं
करता इन सब बातो में। इन सबको पढ़ने वढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं। दवा से कुछ
होने वाला नहीं। तब आप समझ जाते हैं कि इस आदमी की बात सुनने की कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन ध्यान के संबंध में कोई भी नासमझ कुछ भी कह दे, आप फौरन डावाडोल
हो जाते हैं कि पता नहीं, कुछ गलती तो नहीं कर बैठे! आप पूछते ही नहीं कि
यह आदमी ध्यानी है?
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को बार बार कहा है कि ध्यान के संबंध में केवल
ध्यानियों से पूछना, नहीं तो तुम भटक जाओगे। क्योंकि इस जगत में अहंकार
इतना घना है कि कोई आदमी यह तो मानने को राजी नहीं है कि मैं जानता नहीं
हूं। हर आदमी सलाह देने को राजी है।
इस पृथ्वी पर सिर्फ एक चीज मुफ्त मिलती है, वह सलाह है। और इतनी मिलती
है कि जिसका हिसाब नहीं। और हर आदमी तैयार है, आप मांगो भर। न भी मांगो, तो
भी देने को लोग तैयार हैं। आपके घर आकर दरवाजा खटखटाते हैं सलाह देने के
लिए। आप कभी सोचते भी नहीं कि जो आदमी सलाह दे रहा है, वह कहां से दे रहा
है। उसकी कितनी पहुंच है ध्यान में? उसने प्रार्थना कितनी की है? उसने
कितना प्रभु—प्रेम में अपने को डुबाया है? कितना अस्तित्व का अनुभव किया
है?
तो आप लोगों की बात मत सुनना, लोग कहां हैं, इस पर ध्यान देना।
साधक के हृदय में स्थित जो कामनाएं हैं जब वे सब की सब समूल नष्ट हो
जाती हैं तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है। और यहीं ब्रह्म का भलीभांति
अनुभव कर लेता है।
जब हृदय को संपूर्ण ग्रंथियाँ भलीभांति खुल जाती हैं तब वह मरणधर्मा मनुष्य इसी शरीर में अमर हो जाता है। बस इतना ही सनातन उपदेश है।
कठोपनिषद
ओशो
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