उन शिखरों को छू लेने के कारण ही। जब इतने लोगों ने शिखर छू लिए, तो
भारत के अहंकार को अब उस दिशा में जाने के लिए कोई आकांक्षा न रही। इसलिए
भारत जिस बुरी तरह भौतिकवादी हो गया आज, जमीन पर कोई भी देश इतना भौतिकवादी
नहीं है। यूं हम लाख बातें अध्यात्म की करते हों, लेकिन हमारा सारा
अध्यात्म सिर्फ बकवास है। महाशंख की बकवास। यथार्थ में हम निपट भौतिकवादी
हैं। पांच वर्ष पश्चिम के सारे देशों में घूमने के बाद अब मैं यह बात अपने
अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि इतना भौतिकवादी समाज दुनिया में और कहीं
भी नहीं है। जिस जोर से तुम पैसे को पकड़ते हो, उतने जोर से पैसे को कोई भी
नहीं पकड़ता। लोग पैसे को खर्च करते हैं, पकड़ते नहीं। लोग पैसे को जीते हैं,
जकड़ते नहीं। लोग पैसे का उपयोग करते हैं, तुम तिजोड़ियों में बंद करते हो।
पैसा तिजोड़ियों में बंद है या तिजोड़ी खाली है, इससे क्या फर्क पड़ता है। तुम
कभी उसका उपयोग तो करोगे नहीं।
मैंने सुना है एक आदमी के पास दो सोने की ईंटें थी। उसने बगीचे में उनको
गड़ा रखा था। गड़ा तो रखा था, लेकिन जान वहीं लगी रहती थी। दिन में दो चार
बार वहां चक्कर लगा आता था। रात भी नींद नहीं आती थी। पत्नी बहुत बार कहे
कि मामला क्या है जी? जब देखो तब चले और उसी कोने में मरते हो। वहीं
तुम्हारी कब्र खुदवा दूंगी। और क्या देखने जाते हो? मुझको तो वहां कुछ
दिखाई पड़ता नहीं। अब वह बोले भी तो क्या बोले? वह तो गड़ी हुई ईंटें देखने
जाता था। किसी ने उखाड़े तो नहीं। कोई गड़बड़ तो नहीं, कोई आशंका तो नहीं।
आखिर पत्नियां भी तो कोई पत्थर तो नहीं हैं, कब तक यह खेल रोज देखती?
एक दिन भैया छुट्टी पर गए थे। क्या खाक छुट्टी पर गए होंगे। खयाल तो
ईंटों का ही बना था। पत्नी ने मौका खुदाई करवायी दो सोने की ईंटें! उसने
कहा, अरे! राज हाथ में आ गया। ईंटें तो उसने निकाल लीं। दो साधारण ईंटें
उनकी जगह रखकर गङ्ढा पुरवा दिया। ठीक ठीक, जैसा था वैसा ही स्थान बनवा
दिया।
पतिदेव लौट भी आए। अब भी दिन में चार चक्कर लगाना! रात में कितने चक्कर
लगाना वह चलता रहा। और जब भी वह जाएं तो पत्नी हंसे। उन्हें बड़ी हैरानी
हुई, क्योंकि पहले तो वह बहुत नाराज होती थी, गालियां बकती थी। उल्टी सीधी
बातें कहती थी तुम्हारी खोपड़ी तो दुरुस्त है? तुम काहे के लिए वहां जाते
हो? उस कोने तुम्हारे बाप दादा गड़े हैं? अब देखो चुप रहती है और सिर्फ
मुस्कुराती है! हंसी को दबाती है! कुछ राज समझ में आता नहीं।
यह कुछ महीने चला। एक दिन शक हुआ कि मामला कुछ ज्यादा ही है। क्योंकि
पत्नी अब बात ही नहीं करती उस कोने की। छह दफे जाओ, बारह दफे जाओ, रात भर
वहीं बैठे रहो, वह मजे से सोती है। से उसने खोद कर देखा। ईंटें तो मिलीं,
मगर सोने की न थीं। तब राज समझ मग आया। लौटकर अंदर आया और पत्नी से कहा,
क्यों…ईंटें कहां है?
पत्नी ने कहा, तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? खर्च तो करनी नहीं। गड़ाकर
रखनी हैं। सो सोने की हैं कि मिट्टी की हैं क्या भेद? तुम्हें तो चक्कर
लगाने हैं, सो लगा आओ। रही सोने की ईंटों की बात, सो खर्चा हो चुका।
स्त्रियां खर्चा करना जानती हैं। पतिदेव को देखो तो लगता है कि भीख
मांगते हैं या क्या करते हैं। पत्नी को देखो तो राजरानी बनी है। दोनों को
साथ देखो तो साफ समझ में आ जाता है कि इनके कारण ये भिखमंगे हो रहे हैं,
इनके कारण यहां राजरानी बनी है। यह समझौता है। ऐसे दोनों चक्के साथ साथ
चलते हैं। बैलगाड़ी चल रही है।
लेकिन उस आदमी को बड़ा बोध हुआ। यह सोचकर कि वह महीनों से मिट्टी की
ईंटों के चक्कर काट रहा है! बात सिर्फ मान्यता की थी। समझता था सोने की
हैं। उस रात चक्कर काटना चाहा, लेकिन काटने का कोई मतलब न रहा।
इस देश में लोग पैसे को दबाकर रखते हैं और सोचते हैं, अध्यात्मवादी हैं,
क्योंकि खर्चा नहीं करते। पश्चिम में लोग जो कमाते हैं, नरक में सड़ेंगे।
और तुम, तुम अपनी भारी तिजोड़ी लिए एक दम स्वर्ग में चले जाओगे। तुम यहां भी
सड़ रहे हो, वहां भी सड़ोगे। वे कम से कम यहां तो मजा ले रहे हैं। आगे की
आगे देखी जाएगी। अभी इतनी जल्दी भी क्या है।
भारत ने ध्यान के शिखर छुए। यही भारत का दुर्भाग्य हो गया। कभी कभी
सौभाग्य दुर्भाग्य बन जाता है। मुझसे पश्चिम में वैज्ञानिकों ने, डाक्टरों
ने, सर्जनों ने, संगतीज्ञों ने साहित्यकारों ने, न मालूम कितने लोगों ने
यह पूछा कि जब भी हम आपसे मिलने आए तो भारतीय लोगों ने, जो हमसे परिचित थे,
जिनके यहां हम मेहमान हुए थे, हमारी हंसी उड़ाई, खिल्ली उड़ाई: क्या तुम
ध्यान के पीछे पड़े हो। क्या रखा है ध्यान में? सारा पूरब तो पश्चिम जा रहा
है सीखने विज्ञान। और तुम भी एक छटे पागल हो तुम्हें धुन चढ़ी है ध्यान की!
और हमने इस देश में ध्यान के बड़े बड़े शिखर भी देखे तो क्या फायदा हुआ? लोग
तो भूखों मर रहे हैं। तुम्हें भी भूखों मरना है? अभी लौट जाओ। कुछ बिगड़ा
नहीं।
भारत के मन में वह जो विशाल भारत की जनता है उसके मन में ध्यान की जगह और
चीजों ने ले रखी है। धन में उसे रस है, पद मग उसे रस है, प्रतिष्ठा में उसे
रस है। और आज पश्चिम में ध्यान के प्रति विराट रस पैदा हुआ है.......
कोपलें फिर फूट आई
ओशो
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