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Tuesday, June 14, 2016

सब नियति से होता है या पुरुषार्थ से होता है?

एक मित्र ने मुझसे पूछा है: प्रश्न है उनका , प्रश्न पूछा है कि सब नियति से होता है या पुरुषार्थ से होता है? संन्यासी हैं। यहां तक भी बात ठीक थी, इसके आगे उन्होंने कहा, कि कभी कभी धन बिना कुछ किए आ जाता है और कभी कभी धन बहुत मेहनत करने से भी नहीं आता है।


लेकिन नजर धन पर ही अटकी है। पुरुषार्थ और नियति इत्यादि तो सब बातचीत है, असली बात तो धन है। कभी कभी धन बिना कुछ किए आ जाता है और कभी कभी बहुत करने से भी नहीं आता। लेकिन नजर धन पर लगी है। सारे जीवन की दौड़ धन की तरफ है। संन्यस्त होकर भी सोच यही रहे हैं कि पक्का पता चल जाए कि धन कैसे आता है, कुछ करने से आता है कि अपने आप आ जाता है? तो लोग बैठे हैं, वे सोच रहे हैं कि जब खुदा देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। तो क्या करना है! बैठे हैं। जब देगा तब छप्पर फाड़कर दे देगा। ऐसी कहानियां गढ़ रखी हैं उन्होंने कि राह चलते धन मिल जाता है, जिसके भाग्य में है उसको राह चलते मिल जाता है। और जिसके भाग्य में नहीं है, वह कितना ही उपाय करे, कुछ भी नहीं मिलता।
 
तो लोगों ने अंतर्यात्रा तो शुरू नहीं की, बहिर्यात्रा यथार्थत: तो बंद कर दी, लेकिन मानसिक रूप से जारी रखी। यह दुर्भाग्य हो गया। बैठे सोचते यही हैं।
 
मैंने सुना है, एक आदमी ने राह चलते एक सज्जन का हाथ पकड़ लिया, सामने फेहरिश्त कर दी, कहा कि देखिए, एक मंदिर बनवा रहा हूं, एक लाख रुपये की जरूरत है, और फलां आदमी ने हजार दिए, फलां ने पांच हजार दिए, लिस्ट पर नाम भी लिखे हुए हैं गांव के खास खास लोगों के। उन सज्जन ने छुटकारे के लिए कहा कि भई, मंदिर से क्या होगा, अस्पताल बनवाओ, स्कूल बनवाओ, उससे कुछ सार है; मंदिर तो वैसे ही बहुत हैं, मंदिर की क्या कमी है!
 
लेकिन वह आदमी नाराज हो गया, उसने कहा, मंदिर से सब होगा, क्योंकि भगवान के बिना कुछ भी हो सकता! इतने लोग बीमार ही इसलिए पड़ रहे हैं कि लोग भगवान की प्रार्थना भूल गए हैं। अगर लोग प्रार्थना करें तो बीमार ही क्यों पड़े, अस्पताल की जरूरत क्या है! और असली ज्ञान तो प्रार्थना से पैदा होता है। इसलिए असली बात तो मंदिर है। मंदिर के बिना भगवान की पूजा कहां होगी?


राह पर भीड़ इकट्ठी होने लगी, सज्जन भागना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा, भई, फिर तुम अगर ऐसा ही है, जिद्द ही कर लिए हो मंदिर बनाने की, तो किन्हीं उनको पकड़ो जो दस हजार, पांच हजार दे सकें, मैं तो कुछ इतना दे नहीं सकता। मेरे दिए से क्या होगा? तो जल्दी से, वह जो दान की याचना कर रहा है, पांच रुपये पर उतर आया; उसने कहा, अच्छा पांच रुपये तो दो। पिंड छुड़ाने के लिए उन्होंने एक रुपया निकालकर जेब से उसे दिया। उस आदमी ने गौर से रुपया देखा और कहा कि महाशय, आप मेरा नहीं भगवान का भी अपमान कर रहे हैं।

 
मगर भगवान का भी सम्मान और अपमान होता रुपये से ही! नजर रुपये पर ही बंधी है। पांच रुपये दें तो भगवान का सम्मान हो गया, और एक रुपया दें तो भगवान का अपमान हो गया। तुम्हारा सम्मान  अपमान भी रुपयों से होता है, तुम्हारे भगवान का सम्मान अपमान भी रुपयों से होता है। लेकिन सब चीज को तौलने का तराजू रुपया मालूम होती है।


इसे थोड़ा समझो। मनुष्य पूरब में जरूर सुस्त हो गया, काहिल हो गया, लेकिन बस सुस्त और काहिल हो गया, धार्मिक नहीं हुआ। जो लोग तुमसे कहते हैं कि पूरब के देश धार्मिक हैं, सरासर झूठ कहते हैं। मेरे अनुभव में निरंतर यह बात आती है कि पश्चिम से जो लोग आते हैं, उनकी पकड़ धन पर कम है, उनकी पकड़ संसार पर कम है, पूरब के लोगों की पकड़ संसार पर ज्यादा है, धन पर ज्यादा है। कुछ करते नहीं, उस पकड़ को पूरा करने के लिए कुछ करते नहीं, प्रतीक्षा कर रहे हैं लेकिन, योजनाएं मन में वही हैं।

पूरब के लोगों की पकड़ वही है, मन में वही रोग है, वही रस है, वही मवाद बह रही है मन के भीतर, वही घाव है, लेकिन बैठे हैं, करते कुछ नहीं। और इस बैठे होने को समझते हैं कि धार्मिक हो गए हैं। माला हाथ में है, राम राम जपते हैं और बगल में छुरी है। छुरी पर ध्यान रखना, माला पर बहुत ध्यान मत देना, वह तो यंत्रवत हाथ में घूम रही है। असली बात अगर भगवान की लोग प्रार्थना भी कर रहे हैं तो भी धन ही मांगने के लिए कर रहे हैं कि प्रभु, हम पर कृपा कब होगी? लुच्चे लफंगे आगे बढ़े जा रहे हैं, हम पर कृपा कब होगी? हर कोई सफल हुआ जा रहा है, हम पर कृपा कब होगी? 


लेकिन अगर तुम पूछो कि कृपा के भीतर छिपाए क्या हो, मांगते क्या हो, तो तुम तत्क्षण पाओगे धन है, पद है, प्रतिष्ठा है। पश्चिम में लोग जो वासना करते हैं, उसके लिए श्रम करते हैं। पूरब में वासना करते हैं और श्रम नहीं करते, इतना ही फर्क हुआ है। लेकिन वासना की दौड़ जारी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम अपनी वासना को कृत्य में उतारते हो या नहीं, वासना आ गयी कि ऊर्जा बहिर्गामी हो गयी। निर्वासना होने से ऊर्जा अंतर्गामी होती है।


एस धम्मो सनंतनो 

ओशो

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