बंगाल के एक बहुत बड़े विचारक हुए ईश्वरचंद्र विद्यासागर। उन्होंने एक
संस्मरण लिखा है। उन्हें वाइसराय की कौंसिल सम्मानित करने वाली थी, महा
पंडित होने के कारण। लेकिन ईश्वरचंद्र पहनते थे गरीब बंगाली का वेश कुर्ता
धोती; साधारण गरीब आदमी का वेश। सीधे सादे आदमी थे। मित्रों ने कहा कि
वाइसराय की कौंसिल में इन कपड़ों को पहनकर जाओगे, बड़ी भद्द होगी और अच्छा भी
नहीं लगेगा। तो हम तुम्हारे लिए अच्छे वेश का इंतजाम किए देते हैं, तुम
चिंता भी मत करो। शानदार चीज चाहिए, वाइसराय के सामने जब तुम मौजूद होओ।
ईश्वरचंद्र राजी हो गए। बात उनको भी जंची। मगर मन में थोड़ी चिंता रही कि
क्या सिर्फ पद पाने के लिए उपाधि पाने के लिए, सम्मान पाने के लिए मैं सदा
का अपना भेष बदलूं? और नाहक अच्छा ‘भी नहीं लगेगा, बचकाना
लगेगा सजा संवारा हुआ वहां खड़ा हो जाऊंगा। मगर हिम्मत भी नहीं जुटती थी यह
कहने की।
जिस दिन यह वाइसराय की कौंसिल में जाना था, उसके एक दिन पहले सांझ को
घूमने निकले थे। बड़ी चिंता मन में थी। सामने ही एक मुसलमान उनके पास से चला
जा रहा था, अपनी छड़ी लिए हुए, आहिस्ता से, अपनी शेरवानी में।
एक नौकर भागा हुआ आया और उसने कहा कि मीर साहब उस मुसलमान को कहा: आपके
घर में आग लग गई है। जल्दी चलिए। उसने कहा, ठीक! लेकिन चाल उसकी वही की वही
रही। ईश्वरचंद्र भी थोड़े चौंके कि क्या यह आदमी समझ नहीं पाया या बात में
कुछ भूल चूक हो गई? नौकर भी थोड़ा घबड़ाया, और उसने कहा कि मीर साहब, ऐसे
नहीं चलेगा। मकान जल रहा है। तेजी से चलिए।
उस मुसलमान ने कहा कि मैं जब तक न जलूं मैं जब तक न जल रहा होऊं, तब तक
तेजी से चलने का कोई कारण नहीं। मकान जल रहा है, मैं नहीं जल रहा हूं। और
फिर जिंदगीभर की चाल मकान जलने की वजह से बदल दूं? और तू इतना परेशान क्यों
है? तेरा क्या जल रहा है?
परेशान तो ईश्वरचंद्र तक थे, उनका तो बिलकुल कुछ नहीं जल रहा था। वह तो
कम से कम नौकर भी था। उनके भी हृदय की धड़कन बढ़ गई थी। वे बड़े हैरान हुए कि
यह आदमी कैसा है! घबड़ा तो वे भी गए थे, मकान जल रहा है यही सुनकर। कोई
संबंध भी न था उस मकान से। तभी उनको खयाल आया कि यह आदमी अपनी चाल बदलने को
राजी नहीं, मकान जल रहा है! और मैं नाहक ही अपने कपड़े’ बदलने को राजी हो
गया हूं।
दूसरे दिन वे अपने गरीब वेश में ही उपस्थित हो गए। मित्र तो बड़े चौंके
वहां. देखकर। बाद में निकलकर पूछा कि यह तुमने क्या किया? उन्होंने कहा कि
छोड़ो, वह एक आदमी ने मेरी जिंदगी बदल दी। वह कहने लगा, जब तक मैं’ ही न जल
रहा होऊं, तब तक कुछ नहीं जल रहा है। कुछ तेज जाने की जरूरत नहीं है।
आपकी कामनाएं मरती हैं, आप नहीं मरते। लेकिन कामनाओं से आप इतने संयुक्त
हैं! आपका घर जलता है, आप नहीं जलते। लेकिन मेरा घर, इतना ममत्व है कि
जलते हुए घर में आपको लगता है, आप जल रहे हैं। आप जलने ही लगते हैं।
कामनाएं ही मरणधर्मा हैं। मरता हुआ आदमी जब घबड़ाता है मृत्यु से, तो
इसलिए नहीं घबड़ाता कि मैं मर रहा हूं क्योंकि मैं तो कभी मरा ही नहीं।
घबड़ाता है इसलिए कि अब सब कामनाएं मरी। जो जो आशाएं बांधी थीं, सब सी।
जो जो भविष्य में करने का सोचा था, वह सब विनष्ट हुआ। जो जो अतीत में किया
था इंतजाम कि भविष्य में कुछ फल लगेंगे, वे सब वृक्ष गिर गए। अब सब नष्ट हो
रहा है।
यह सूत्र बड़ी ठीक बात कहता है कि जब साधक की सब कामनाएं छूट जाती हैं,
तब साधक अमृत हो जाता है। अमृत साधक है ही। कामनाओं का संग मरणधर्मा होने
की भांति देता है। हम जिसके साथ होते हैं, उसकी भ्रांति हमें पकड़ जाती है।
और कामनाएं कब नष्ट होती हैं? तब तक कामनाएं नष्ट नहीं हो सकतीं, जब तक
ईश्वर के होने का भाव उदय न हो। क्योंकि कामनाएं इसीलिए हैं कि हम आनंद
चाहते हैं और जीवन में आनंद नहीं है। कामनाएं हैं क्या? हमारे आनंद की खोज,
हमारे आनंद को पाने की आकांक्षा एं, स्वप्न। और जीवन दुख से भरा है, इसलिए
कामनाएं हैं।
इस दुख को मिटाना है। यह दुख दो तरह से मिट सकता है। एक तरह से मिट सकने
का आभास होता है, वस्तुत: मिटता नहीं कि हम कामनाओं को पूरा करें तो दुख
मिट जाए। यह नास्तिक की यात्रा है। भौतिकवादी की यात्रा है कि कामनाएं सब
पूरी हो जाएंगी, तब दुख मिटेगा। आस्तिक की यात्रा है कि कामनाएं तब मिटेगी,
जब आनंद उपलब्ध हो जाएगा।
कठोपनिषद
ओशो
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