बुद्ध कह रहे हैं, सत्युरुष सब छोड़ देते हैं। बुद्ध यह नहीं कह
रहे हैं कि जो सब छोड़ देते हैं, वे सत्युरुष हो जाते हैं। बुद्ध यह कह रहे
हैं, सत्युरुष हो जाओ, सब छूट जाता है। छूटना, छाया की तरह परिणाम है।
छूटना, छोड़ना नहीं है।
फिर से दोहराऊं, ‘सत्युरुष सभी त्याग देते हैं। ‘
अब सोचने का यह है कि त्यागने के कारण सत्युरुष होते हैं, या सत्युरुष होने के कारण त्याग देते हैं?
अगर बुद्ध को यही कहना था कि सब छोड़ने वाले सत्युरुष हो जाते हैं,
तो ऐसा ही कहा होता कि जो सब छोड़ देते हैं, वे सत्युरुष हैं। लेकिन बुद्ध
कहते हैं, सत्युरुष सब छोड़ देते हैं। सत्युरुष होना, छोड़ने से कोई अलग बात
है। छोड़ना पीछे–पीछे आता है, जैसे गाड़ी चलती है तो चाक के निशान बन जाते
हैं।
तुम चलते हो, तुम्हारी छाया तुम्हारे पीछे चली आती है। उसको लाना
थोड़े ही पडता है। तुम लौट–लौटकर देखते थोड़े ही हो कि छाया कहीं छूट तो नहीं
गई; आती है कि नहीं आती? तुम छोड़ना भी चाहो तो भी छोड़ न सकोगे। छाया आती
ही है। छाया तुम्हारी है, जाएगी कहां?
त्याग ज्ञान के पीछे ऐसे ही आता है, जैसे तुम्हारे पीछे छाया आती
है परिणाम है। और जिन्होंने शास्त्र से पढ़ा, उन्होंने समझा, कारण है। कारण
नहीं है त्याग। त्याग कर कर के तुम बिलकुल सूख जाओ, हड्डियां हो जाओ,
सत्पुरुष न होओगे। भोजन का अभाव तुम्हें पीला कर जाए, लेकिन सतबोध से उठी
हुई स्वर्णिम आभा उससे प्रगट न होगी।
जो जो पीला है, सभी सोना नहीं है। रोग से भी आदमी पीला पड़ जाता है : उसे
पीतल समझना। बोध से भी आदमी के जीवन में स्वर्ण आभा प्रगट होती है, पर वह
बात और। उसके सामने सूरज लजाते हैं, शर्माते हैं।
तो ध्यान रखना, त्याग पर ज़ोर बुद्ध पुरुषों का बिलकुल नहीं है; और
उनकी हर वाणी में त्याग का उल्लेख है। और जिन्होंने भी पंडितों की तरह
शास्त्रों में खोजा है, वे एक अरण्य में खो गए। कितना सुगम है अरण्य में खो
जाना!
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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