.... आदमी अपने दुख को बहुत अतिशय
मान लेता है। आदमी अपने दुख को बहुत बढ़ा चढ़ा कर स्वीकार करता है, जितना
होता नहीं। इसके पीछे भी वही शरीर को एक मानना कारण है। दुख तो होता है
दीये की तरह, जैसे दीये की फ्लेम होती है, लेकिन अनुभव हम करते हैं प्रकाश
की तरह। जैसे दीये का प्रकाश सब तरफ फैल जाता है। होता है दुख फ्लेम की
तरह, ज्योति की तरह, एक बहुत छोटी जगह में, पर हम अनुभव करते हैं प्रकाश की
तरह बहुत दूर तक फैला हुआ।
तो जब आप अपने दुख को आख बंद करके भीतर से खोजने की कोशिश करेंगे। और
ध्यान रहे हमने शरीर को, अपने शरीर को भी सदा बाहर से ही जाना है, भीतर से
नहीं जाना है। अगर हम अपने शरीर को भी जानते हैं, तो ऐसा जैसे दूसरे जानते
हों। अगर मैंने इस हाथ को भी देखा है कभी, तो बाहर से ही देखा है। इस हाथ
का भीतरी हिस्सा भी है। जैसे इस मकान को मैं बाहर से देखकर चला जाऊं, तो यह
मकान का बाहरी हिस्सा है। इस मकान की दीवालों का भीतरी हिस्सा भी है। दर्द
की घटना घटती है भीतरी हिस्सों पर। दर्द का बिंदु होता है भीतरी हिस्सों
पर। और दर्द के फैलाव का विस्तार होता है बाहरी हिस्सों पर। दर्द की ज्योति
तो होती है भीतर और दर्द का प्रकाश होता है बाहर।
चूंकि हम अपने शरीर को बाहर से ही देखते रहे हैं, इसलिए दर्द बहुत फैला
हुआ मालूम पड़ता है। शरीर को भीतर से देखने की चेष्टा बड़ी अदभुत बात है। आख
बंद कर लें और शरीर को भीतर से फील और एहसास करने की कोशिश करें कि शरीर
भीतर से कैसा है। इस शरीर की भीतरी दीवाल भी है और इस शरीर का भीतरी खोल भी
है। इस शरीर का भीतरी छोर भी है। उस भीतरी छोर को आख बंद करके निश्चित ही
अनुभव किया जा सकता है। आपने अपने हाथ को उठते हुए देखा है। आख बंद करके
हाथ को नीचे से ऊपर तक ले जाएं, तब आप हाथ के भीतर जो उठने की किया हो रही
है, उसको देख पाएंगे। आपने भूख को बाहर से अनुभव किया है। आख बंदकर लें और
भूख को भीतर से अनुभव करें, तब आप उसे पहली दफे भीतर से पकड़ पाएंगे।
शरीर के दुख को भीतर से पकड़ते ही दो घटनाएं घटती हैं। एक तो जितना बड़ा
मालूम पड़ता था, उतना बडा नहीं रह जाता। तत्काल छोटे से बिंदु पर केंद्रित
हो जाता है। और जितने जोर से इस बिंदु पर आप एकाग्रता करेंगे, उतना ही
पाएंगे कि यह बिंदु और छोटा होता जा रहा है, और छोटा होता जा रहा है, और
छोटा होता जा रहा है। और एक बड़े आश्चर्य की घटना घटती है। जब बिंदु बहुत
छोटा हो जाता है, तो अचानक आप पाते हैं कि कभी वह खो गया, कभी दिखाई पड़ने
लगा, कभी खो गया, कभी दिखाई पड़ने लगा। बीच में गैप पड़ने शुरू हो जाते हैं।
और जब वह खो जाता है, तब आप बहुत हैरान होते हैं कि दर्द अब कहां है। वह कई
दफा मिस हो जाता है। वह इतना छोटा हो जाता है बिंदु कि कई बार चेतना जब
उसे खोजती है, तो पाती है कि नहीं है।
जैसे मूर्च्छा में दर्द फैलता है, वैसे चेतना में दर्द सिकुड़ कर छोटा हो
जाता है। एक तो यह अनुभव होगा कि दर्द हमने जितने अनुभव किए, हमने जितने
दुख भोगे, उतने दुख थे नहीं। जितने दुख हमने भोगे हैं, उतने दुख थे नहीं।
हमने दुखों को बहुत बड़ा करके भोगा है। ठीक यही बात सुख के संबंध में भी सच
है कि जितने सुख हमने भोगे हैं, वे भी थे नहीं। सुखों को भी हमने बहुत बड़ा
करके भोगा है।
अगर हम सुख को भी स्मरणपूर्वक भोगें, तो हम पाएंगे कि वह भी बहुत छोटा
हो जाता है। अगर हम दुख को भी स्मरणपूर्वक भोगें, तो पाएंगे कि वह भी बहुत
छोटा हो जाता है। जितना होश हो, उतना सुख और दुख सिकुड़ कर बहुत छोटे हो
जाते हैं। इतने छोटे हो जाते हैं कि बहुत गहरे अर्थों में मीनिगलेस हो जाते
हैं। असल में उनका अर्थ उनके विस्तार मै है। वह पूरी जिंदगी को घेरे हुए
मालूम पड़ते हैं, लेकिन जब बहुत बोधपूर्वक उनको देखा जाए, तो छोटे होते होते इतने अर्थहीन हो जाते हैं कि जिंदगी से उनका कुछ लेना देना नहीं रह
जाता है।
मैं मृत्यु सिखाता हूँ
ओशो
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