मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मन ही नहीं होता कि ध्यान करें।
मैं उनको कहता हूं कि मन तो कभी भी नहीं होगा कि ध्यान करें। क्योंकि मन तो
ध्यान का दुश्मन है। मन तो हजार तरकीबें समझाएगा कि मत करो। कि यह तुम
क्या कर रहे हो? यह पागलपन है! कि चुप होने से क्या होगा? कि सोचोगे नहीं
तो भटक जाओगे। कि अपनी बुद्धि को सम्हालो, अपने तर्क को बचाओ। ऐसा किसी की
बात में पड़ जाना ठीक नहीं।
मन तो हजार तर्क देगा कि ध्यान मत करो। क्योंकि ध्यान मन की मृत्यु है।
ध्यान किया कि मन मरा। इसलिए मन अपनी सुरक्षा करेगा, सब तरह से सुरक्षा
करेगा। और आपका भी मन वही करता है। पच्चीस कारण खोज लेता है। और उन कारणों
की वजह से फिर ध्यान करने से रुक जाता है। और कभी कभी इतने क्षुद्र कारण
खोज लेता है कि कोई देखेगा, क्या कहेगा! ऐसे क्षुद्र कारण सोचकर भी रुक
जाता है।
यह जो मन के रुकने की वृत्ति है, यह स्वाभाविक है मन के लिए। क्योंकि मन
जानता है कि ध्यान का मतलब है, खाई में उतर जाना। फिर वहां से मन अछूता
नहीं लौटेगा, मन बचेगा नहीं। झेन फकीर ध्यान को कहते हैं, स्टेट आफ नो
माइंड मन के खो जाने की अवस्था, अ मन की अवस्था।
उपनिषद का यह सूत्र भी वही कह रहा है कि न तो वाणी से मिलेगा और न मन से मिलेगा, न नेत्रों से ही।
इंद्रियों से कोई कितना ही खोजता रहे, इंद्रियों से केवल पदार्थ का
संपर्क होता है। प्रत्येक वरन्। को सीमा है। जैसे आप आंख से सुन नहीं सकते,
देख सकते हैं। कान से आप देख नहीं सकते, सुन सकते ते। लेकिन कोई आदमी आंख
से सुनने की कोशिश करे, तो मुश्किल में पड़ जाएगा। आंख की सीमा है कि वह देख
सकती है। कान की सीमा है कि वह सुन सकता है। हाथ की सीमा है कि वह छू सकता
है। नाक की सीमा है कि वह गंध ले सकती है। लेकिन एक इंद्रिय एक ही काम कर
सकती है। वह काम आप दूसरी इंद्रिय से नहीं ले सकते, वह दूसरी इंद्रिय की
क्षमता नहीं है।
मन का काम है, वह मनन कर सकता है। मनन का अर्थ है, स्मृति में पड़ा हो तो
उसे वह दोहरा सकता है। मन एक कंप्यूटर की तरह है। उसे पहले फीड करना होता
है। उसे पहले आप दे दें भोजन, फिर वह उसकी जुगाली करता रहता है।
कठोपनिषद
ओशो
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