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Tuesday, June 7, 2016

प्रभु को पाना कठिन...

 .... किन उसे पाकर उसे कहना और भी कठिन। पाना इतना कठिन नहीं है, क्योंकि वस्तुत: हम उससे क्षणभर को भी दूर नहीं हुए है। मछली सागर में ही है। सागर का विस्मरण हुआ है, जिस क्षण याद आ जाएगी उसी क्षण सागर मिल गया। सागर छूटा कभी न था। संपत्ति गंवायी नहीं है। संपत्ति ऐसी है ही नहीं जो गंवायी जा सके। तुम्हारे प्राणों का प्राण है, तुम्हारी श्वासों की श्वास है, तुम्हारे हृदय की धड़कन है। विस्मरण हो गया है, जब स्मरण आ जाएगा, तभी संपदा उपलब्ध हो जाएगी। उपलब्ध थी ही।

जैसे कोई सम्राट भूल जाए सपने में कि मैं सम्राट हूं और भिखारी हो जाए। और भीख मांगे और दर दर कूचा कूचा भटके। और सुबह आंख खुले, तो हंसे। बस, वैसी ही ईश्वर की अनुभूति है। हमने उसे कभी खोया नहीं है। संसार एक सपना है जिसमे हम सो गये हैं। एक नींद, जिसमें विस्मरण हुआ है। जब भी आंख खुल जाएगी, तभी हंसी आएगी। हंसी आएगी इस बात पर कि जिसे हम खो ही नहीं सकते थे, उसे भूल कैसे गये? लेकिन जिसे नहीं खो सकते, उसे भी भूल जा सकते हैं। विस्मरण संभव है, स्मरण संभव है। न तो परमात्मा खोया जाता और न पाया जाता। जब हम कहते है पाया, तो उसका अर्थ इतना ही है कि पुन: स्मरण हुआ, सुरति आयी। खोया, उसका अर्थ है कि विस्मरण हुआ, सुरति गयी। खोने का अर्थ है नींद आ गयी, झपकी लग गयी। पाने का अर्थ है जाग गये, आंख खुल गयी। इसलिए जिन्होंने पाया, उनको हमने बुद्धपुरुष कहा है। जागे हुए लोग।

बुद्ध को जब मिला तो किसीने पूछा कि क्या मिला? बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं, जो मिला ही था उसका पता चला। खो जरूर बहुत कुछ गया मैं खो गया, अस्मिता खो गयी, अज्ञान खो गया, चिंता खो गयी, दुख खो गया, नर्क खो गया; खो बहुत गया, मिला कुछ भी नहीं। मिला तो वही, जो मिला ही था। उसकी याद लौट आयी। बीच में जो कूड़ा कर्कट इकट्ठा था, पहाड़ खड़े हो गये थे अहंकार के, उनके हटते ही सूरज प्रकट हो गया। सूरज कभी खोया न था, बीच में पहाड़ खड़े हो गये थे। जैसे बादल घिर जाएं और सूरज दिखायी न पड़े। तब भी सूरज उतना ही है, जितना तब जब कि दिखायी पड़ता है और आकाश में बादल नहीं होते।

अथातो भक्ति जिज्ञासा 

ओशो 

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