मैंने एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन से पूछा, नसरुद्दीन, सुना कि तुमने नई फर्म बनाई! कितने साझीदार हैं?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, अब आपसे क्या छिपाना! चार तो अपने ही परिवार के लोग हैं और एक पुराना मित्र। इस तरह पांच पार्टनर हैं।
मैंने पूछा, फर्म का नाम क्या रखा है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, मेसर्स मुल्ला एंड मुल्ला एंड मुल्ला एंड मुल्ला एंड अब्दुल्ला कंपनी।
मैंने कहा, नाम तो बड़ा अच्छा है, बड़ा सुंदर, मगर यह अब्दुल्ला कहां से बीच में आ टपका!
टपकाना ही पड़ा दुखी स्वर में मुल्ला नसरुद्दीन बोला : पैसा तो सब उसी बेवकूफ का लगा है।
यहां मित्रता सब पैसे की है, संबंध सब पैसे के हैं। धन का यहां एक ही
अर्थ है, लूटो जितना लूट सको, जिससे जितना लूट सको। तो फिर धन रोग है।
धन पैदा करो! धन सृजन करो! धन को लूटने का नुस्खा बहुत पुराना हो गया।
और इस देश में अभी वही नुस्खा चल रहा है। अभी हम धन का एक ही अर्थ लेते हैं
कि दूसरे की जेब से निकाल लें। इससे कुछ हल नहीं होता; उसकी जेब से
तुम्हारी जेब में आ जाता है, तुम्हारी जेब से दूसरा कोई निकाल लेता है, ऐसे
जेबों में धन घूमता रहता है, लेकिन धन पैदा नहीं होता। अभी हमने यह नहीं
सीखा कि धन का सृजन किया जाता है। अभी धन हमारे लिए शोषण का ही अर्थ रखता
है।
ओशो
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