चैतन्य का एक सागर हो तुम! तुम्हारी चेतना की एक छोटी सी लहर इस सारे
संसार को डुबा सकती है। ऊपर से देखो तो बूंद हो; भीतर से पहचानो तो सागर
हो। ऊपर से देखो तो बहुत छोटे; भीतर से देखो तो तुम्हारा कोई न आदि है न
अंत। ऊपर से देखो तो क्षणभंगुर; और भीतर से देखो तो सनातन, शाश्वत। ऊपर से
देखो तो नाम है, धाम है, पता-ठिकाना है, विशेषण है, जाति है, धर्म है, देश
है; भीतर से देखो तो अनिर्वचनीय हो तुम, ब्रह्म-स्वरूप हो तुम! तुम्हारे
चैतन्य में उठी छोटी सी लहर सारे अस्तित्व को भिगो दे सकती है।
जिसने अपनी चेतना के इस सागर को पहचाना, वही संत है। जिसने सत्य को
जाना, वही संत है। जाना ही नहीं, जो इस सत्य के साथ अपने को एकरूप पहचाना,
वह संत है। जानने में तो थोड़ा भेद रह जाता है–जानने वाले का और जाना जाने
वाले का; ज्ञान का और ज्ञेय का। लेकिन उतना भेद भी नहीं है सत्य में और संत
में। सत्य में जो डूब गया है, सत्य में जिसने अपना अंत पा लिया है, या
सत्य में जिसने अपने को डुबा दिया है, और सत्य में जिसने अपना अंत कर दिया
है–वही संत है।
संत से कोई आचरण, चरित्र, नीति इत्यादि का लेना-देना नहीं है। ऐसा नहीं
है कि संत के जीवन की कोई नीति नहीं होती। ऐसा नहीं कि उसके जीवन का कोई
अनुशासन नहीं होता। उसके जीवन का एक अनुशासन है, लेकिन वह अनुशासन बाहर से
आरोपित नहीं है, स्व-स्फूर्त है। उसके जीवन का भी एक तंत्र है, लेकिन तंत्र
किसी और के द्वारा संचालित नहीं है, वह अपना मालिक है। उसकी मर्यादा है,
लेकिन मर्यादा उसके बोध से निर्मित होती है, किन्हीं धारणाओं से नहीं।
संत वह है, जो मन से, तन से अपने को पृथक जानने में समर्थ हो गया है।
ऐसे संत जब भी पृथ्वी पर हुए हैं, एक बाढ़ आई प्रकाश की उनके साथ; आनंद की
बरखा आई उनके साथ; प्रेम के फूल खिले उनके साथ; पृथ्वी उनके साथ युवा हुई।
उनकी मौजूदगी में पृथ्वी ने जाना कि वह भी दुल्हन है। जब कोई बुद्ध मौजूद
नहीं होता, पृथ्वी विधवा होती है। जब कोई बुद्ध मौजूद होता है, पृथ्वी सधवा
होती है। बुद्ध की मौजूदगी पृथ्वी की मांग भर देती है; उसके पैरों में
घूंघर पहना देती है; उसके हाथों में चूड़ियों की खनकार आ जाती है। बुद्ध की
मौजूदगी में सृष्टि नाचती है–आनंद से, उत्सव से।
काहे होत अधीर
ओशो
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