कृष्ण, महावीर और बुद्ध के समय में वही व्यक्ति बोलने जाता था, जिसने
जाना हो; जिसने जाना न हो, वह बोलने की चेष्टा भी नहीं करता था। क्योंकि
बिना जाने बोलना महा अपराध है। उससे तुम न मालूम कितने लोगों के जीवन में
कांटे बो दोगे। शायद तुम्हें बोलने में थोड़ा मजा आ जाए, रस आ जाए; शायद
बोलते बोलते तुम्हें लगे कि तुम बड़े महत्वपूर्ण हो गए हो, क्योंकि कई लोग
तुम्हें सुन रहे हैं; शायद पांडित्य की अकड़ और अहंकार में थोड़ी तुम्हें
तृप्ति मिले। लेकिन तुम्हारी व्यर्थ की तृप्ति के लिए न मालूम कितने लोग
मार्ग से च्युत हो जाएंगे। तुम उन्हें भटका दोगे।
और इस संसार में बड़ा से बड़ा पाप हत्या नहीं है, इस संसार में बड़ा से बड़ा पाप किसी को उसके मार्ग से भटका देना है।
तो जितने बड़े पाप अपात्र बोलने वालों ने किए हैं, उतने बड़े पाप किसी ने
भी नहीं किए हैं। क्योंकि कोई गरदन पर तुम्हारी तलवार मार दे, तो शरीर ही
कटता है, फिर शरीर मिल जाएगा। लेकिन कोई तुम्हारी आत्मा को रास्ते से भटका
दे, तो कुछ ऐसी चीज भटक जाती है कि जन्मों जन्मों खोजकर शायद तुम मुश्किल
से वापस अपनी जगह पर आ पाओगे। क्योंकि एक भटकाव दूसरे भटकाव में ले जाता
है, कड़िया जुड़ी हैं। दूसरा भटकाव तीसरे भटकाव में ले जाता है। और पीछे
लौटना मुश्किल होता चला जाता है।
तो पहली तो बात ध्यान रखना, इसकी फिक्र मत करना कि कौन पात्र है सुनने
में, कौन नहीं। पहले तो इसकी फिक्र करना कि मैं बोलने में पात्र हूं? मैं
कृष्ण पर कुछ कहूं? जब तक कृष्ण चेतना का आविर्भाव न हुआ हो, तब तक मत
कहना।
और इसके लिए किसी से पूछने जाना है? यह तो तुम भीतर ही जान सकोगे कि
कृष्ण चेतना का आविर्भाव हुआ या नहीं हुआ। इसकी और किसी से कसौटी लेने की
जरूरत भी नहीं है, किसी से पूछने का कोई कारण भी नहीं है। पूछने तो वही
जाएगा, जो संदिग्ध है। और कृष्ण चेतना में संदेह नहीं है, वह असंदिग्ध,
स्वतःप्रमाण्य अवस्था है। जब भीतर उदित होती है, तो तुम जानते हो, जैसे
सूरज उग गया। अब तुम किसी से पूछते थोड़े ही हो कि रात है या दिन! और पूछो,
तो बताओगे कि तुम अंधे हो।
कृष्ण ने नहीं लगाई कोई शर्त बोलने वाले पर, क्योंकि उन दिनों यह होता
ही न था कि जो न जानता हो, वह बोले। जानकर ही कोई बोलता था। और जब तक न जान
लेता था, तब तक कितना ही शास्त्रों से इकट्ठा कर ले, इस भ्रांति में नहीं
पड़ता था कि मुझे अनुभव हो गया है।
गीता दर्शन
ओशो
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