बुद्ध ने ब्राह्मण की जो परिभाषा की, वहीं भगवत्ता की परिभाषा
है। बुद्ध ने ब्राह्मण को जैसी ऊँचाई दी, वैसी किसी ने कभी नहीं दी थी।
ब्राह्मणों ने भी नहीं। ब्राह्मणों ने तो ब्राह्मण शब्द को बहुत क्षुद्र
कर दिया था। उसे जन्म से जोड़ दिया। बुद्ध ने उसे आत्म अनुभव से जोड़ा।
वह जो मुक्त है। वह जो शुन्य है। वह जो खो गया है बूंद की तरह सागर में। और सागर ही हो गया है। उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
मैंने तुम से कहा की सभी शुद्र की तरह पैदा होते है, और दुर्भाग्य
से अधिक लोग शुद्र की तरह ही मर जाते है। ध्यान रखना दोबार दोहराता हूं।
सभी लोग शुद्र की तरह पैदा होते है। ब्राह्मण की तरह कोई पैदा नहीं होता।
ब्राह्मणत्व साधना का फल है।
शुद्र की तरह सब पैदा होते है, क्योंकि सभी शरीर के साथ
तादात्म्य में जुड़े पैदा होते है। शूद्र है। इसीलिए पैदा होते है। नहीं तो
पैदा हो ही क्यों। शूद्रता के कारण तो पैदा होते है। क्योंकि अभी शरीर
से मोह नहीं गया। इसलिए पुराना शरीर छूट गया, तत्क्षण जल्दी से नया शरीर
ले लिया। राग बना है, मोह बना है, तृष्णा बनी है। फिर नये गर्भ में प्रवेश
हो गए। फिर से पैदा हो गये।
तुम्हें कोई पैदा नहीं कर रहा। तुम अपनी ही वासना से पैदा होते
हो। मरते वक्त जब तुम घबराये होते हो, और जोर से पकड़ते हो अपने शरीर को।
और चीखते हो, चिल्लाते हो, कहते हो; बचाओ मुझे। थोड़ी देर बचा लो। तब तुम
नये जन्म का इंतजार कर रहे होते हो।
जो मरते वक्त निशिंचत मर जाता है। जो कहता है। धन्य है। यह जीवन
समाप्त हुआ। धन्य—कि इस शरीर से मुक्ति हुई। धन्य कि इस क्षणभंगुर से
छूटे। जो इस विश्राम में विदा हो जाता है, उसका फिर कोई जन्म नहीं है।
तुम जन्म का बीज अपनी मृत्यु में बोते हो। जब तुम मरते हो, तब
तुम नए जन्म का बीज बोते हो। और तुम जिस तरह की वासना करते हो। उस तरह के
जन्म का बीज बोते हो। तुम्हारी वासना ही देह धरती है। तुम्हारी वासना ही
गर्भ लेती है।
बुद्ध ने कहा है: तुम नहीं जन्मते, तुम्हारी वासना जन्मती है। तो जब वासना नहीं तब तुम्हारा जन्म समाप्त हो जाता है।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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