तुम्हें धनी होना है, तो बहुतों को गरीब बनाए बिना तुम धनी न हो सकोगे। यह
दोषी हो गयी बात। तुम्हें धनी होना है, तो एक ही उपाय है कि हजारों लोग
गरीब हो जाएं। तुम्हें यशस्वी होना है, तो एक ही उपाय है कि हजारों लोग
यशस्वी न हो पाएं। उतना साफ नहीं दिखायी पड़ता है तुम्हें, लेकिन बात वही की
वही है। कितने लोग राष्ट्रपति हो सकते हैं इस देश में? साठ करोड़ आदमी हैं,
साठों करोड़ को तुम राष्ट्रपति घोषित कर दो, फिर राष्ट्रपति कौन होने का
मतलब रहा? राष्ट्रपति होने का मतलब तभी तक है, जब तक एक ही राष्ट्रपति हो
सकता है। साठ करोड़ राष्ट्रपति न हो पाएं, इस की चेष्टा करनी पड़ेगी। तो ही
मजा है। तो एक राष्ट्रपति होता है। लेकिन इस में बड़ी हिंसा हो गयी। एक
राष्ट्रपति हो गया और एक को छोड़कर बाकी साठ करोड़ दीन हीन रह गये। उनकी
दीनता हीनता पर तुम्हारा गौरव खड़ा है। तुम अमीर हो गये और लाखों लोगो की
जिंदगी सड़ गयी तुम्हारी अमीरी के कारण। तुमने एक बड़ा महल खड़ा कर लिया और
अनेक लोगों के झोपड़े छिन गये। यह तो दोष से भरी बात है। यह बात असली
ऐश्वर्य की नहीं। असली ऐश्वर्य तो वही है कि किसी से तुम कुछ न छीनो।
तुम्हारी अभिव्यक्ति हो और किसी से कुछ छिने न। समझो।
अगर तुम ध्यान में आगे बढ़ों, तो किसी का ध्यान नहीं छिनता। और तुम अगर प्रेम में आगे बढ़ों, तो किसी का प्रेम नहीं छिनता। तुम अगर शांत होने लगो, तो ऐसा नहीं है कि कुछ लोगों को अशांत होना पड़ेगा तब तुम शांत हो पाओगे। किसी को अशांत होने की कोई जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि तुम जितने शांत होओगे, दूसरे लोग शांत हो जाएंगे। क्योंकि तुम से शांति की तरंगें पैदा होंगी।
इसको जीवन मे एक बुनियादी कसौटी समझना। जो होने में दूसरे का छिनता हो कुछ, समझ लेना कि वह सांसारिक है। और जिस होने में किसी का कुछ न छिनता हो, वरन उलटा तुम्हारे होने से दूसरे का भी बढ़ता हो, उसे समझना कि वह स्वाभाविक है। स्वभाव यानी परमात्मा। ‘ऐश्वर्यो में दोष स्पर्श नहीं करता, क्योंकि वे स्वाभाविक है।
‘ परमात्मा को हमने सदा से इस देश में
लक्ष्मीनारायण कहा है। गांधी ने एक बेहूदा शब्द जरूर शुरू
किया—दरिद्रनारायण। वह शब्द बेहूदा है। गांधी समझे नहीं ऐश्वर्य का यह भेद।
उन्होंने तो समझा कि जो ऐश्वर्य यहा का होता है, वही ऐश्वर्य परमात्मा का
भी, तो परमात्मा को लक्ष्मीनारायण कहना ठीक नहीं। लेकिन परमात्मा की जिस
लक्ष्मी की बात हो रही है, वह लक्ष्मी और है, वह स्वाभाविक है, वह उसकी
अंतःस्थिति है। और जब भी कोई व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध होता है, तब फिर
ऐश्वर्य को उपलब्ध होता है। तब वह पुन: फिर ईश्वर हो जाता है।
अथातो भक्ति जिज्ञासा
ओशो
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