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Friday, June 3, 2016

स्वतंत्रता: परम मुक्ति

स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि मेरे मन में तुम्हारे लिये काई लगाव नहीं है। ठीक उल्टा। स्वतंत्रता दे रहा हूं, क्योंकि तुमसे प्रेम है। तुमने स्वतंत्रता का अगर नासमझी से उपयोग किया तो यह स्वच्छंदता हो जायेगी। कसूर तुम्हारा होगा। अगर तुम मेरे प्रेम को समझे, मेरी श्रद्धा को समझे, मैंने तुम्हें जो सम्मान दिया है उसे समझे–तो यही स्वतंत्रता परम मुक्ति बन जायेगी।

लेकिन खतरा कुछ भी हो, मैं तुम्हारी स्वतंत्रता नहीं छीन सकता। मैं यह खतरा लेने को तैयार हूं कि तुम स्वच्छंद हो जाओ, मगर यह खतरा लेने को तैयार नहीं हूं कि तुम गुलाम हो जाओ, कि तुम परतंत्र हो जाओ। मैं तुम्हें यहां महाजीवन दिखाने को हूं, महाजीवन की तरफ ले चलने को हूं। मैं तुम्हें मार नहीं डालना चाहता हूं।

लेकिन लोग तो अपने ढंग से समझते हैं: कुछ सुनेंगे कुछ समझेंगे।

ढब्बू जी अपने एक बीमार दोस्त से मिलने गये और उसकी तबीयत का हाल पूछा। दोस्त ने कहा: बुखार तो टूट गया, अब टांग में दर्द है। ढब्बू जी ने कहा: घबराओ मत, जब बुखार टूट गया तो टांग भी जल्दी ही टूट जायेगी।
एक आदमी, एक बिलकुल अपरिचित आदमी मुल्ला नसरुद्दीन के पास पहुंचा। नमस्कार के बाद उसने निवेदन किया कि क्या आप मुझे पांच हजार रुपये उधार दे सकते हैं?

लेकिन मैं तो आपको पहचानता नहीं, मुल्ला ने चकित होकर कहा। उस आदमी ने कहा: यह भी खूब रही! जो पहचानते हैं, वे पांच रुपये देने को तैयार नहीं। किसी के पास जाता हूं, तो वे कहते हैं: हम तो आपको पहचानते हैं, आगे बढ़ो। अब आप कहते हैं पहचानता नहीं हूं, इसलिये नहीं दूंगा। तो मैं जाऊं किसके पास?

थोड़ा समझो। मैं जो कहता हूं उसे एकदम जैसा तुम्हारी बुद्धि में आ जाये वैसा ही मत मान लेना, थोड़ा उस पर ध्यान करना, थोड़ी उसकी बारीकियों में उतरना, थोड़ी उसकी गहराइयों में डुबकी मारना। जल्दी निष्कर्ष मत लिया करो।

निश्चित, मैं तुम्हें पूर्ण स्वतंत्रता देता हूं। यह मेरा सम्मान है तुम्हारे प्रति। तुम भी स्वतंत्रता का सम्मान करना। तुम भी स्वतंत्रता का सदुपयोग करना। तुम इस स्वतंत्रता को सीढ़ी बनाना। यह सीढ़ी ही तुम्हें मोक्ष की तरफ ले जायेगी।

मोक्ष है अंतिम स्वतंत्रता और जिसे उस अंतिम स्वतंत्रता को पाना है उसे पहले कदम से ही स्वतंत्रता का अभ्यास करना होगा मैं तुम्हें किन्हीं भी नियमों में, जंजीरों में बांधना नहीं चाहता। मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूं। और न ही मुझे रस है इस बात में कि मैं अपने को तुम्हारे ऊपर थोप दूं। यह तो हिंसा है। मगर महात्मा गांधी और विनोबा भावे, इस तरह के लोग इसी तरह की हिंसा को शिष्य की चिंता कहते हैं। अपने आग्रह उस पर थोप देते हैं, जबर्दस्ती थोप देते हैं।

मेरा कोई आग्रह नहीं है। मैं तो जो भी कह रहा हूं उसमें कोई भी आदेश नहीं है कि तुम्हें मानना ही है। मैं तो सिर्फ अपने विचार निवेदन कर रहा हूं। आज्ञायें नहीं हैं ये, सिर्फ मेरी अंतर्दृष्टि तुम्हें साफ कर रहा हूं। ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है। सुनो, गुनो। तुम्हें भी दिखाई पड़े तो चल पड़ना और जब तक तुम्हें दिखाई न पड़े तब तक चलने की कोई भी जरूरत नहीं है।


और जरा ध्यान रखना, मतलब अपने मत ले लेना।



सहज योग 

ओशो 

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