..... कोई दूसरा सलाह दे, धन्यवाद दो, विचार करो, मगर
अंधे की तरह चल मत पड़ो।
जीवन को जितनी ज्यादा निजता दे सको, उतना अच्छा है।
दूसरे की सलाहें बड़ी मुश्किलों में ले जाती है।
एक आदमी की औरत माटी होती जा रही है, मोटी होती जा रही है, मोटी
होती…क्योंकि आदमी के पास जैसे-जैसे तिजोड़ी बड़ी होती जाती है, वैसे-वैसे
औरतें मोटी होती जाती है। यह बड़ा अजब संबंध है तिजोड़ियां में और औरतों में।
आखिर वह आदमी घबरा गया। वह सूखा जा रहा है, कमा कमाकर मरा जा रहा है। इधर
औरत है, कि सब सोफे छोटे होते जा रहे हैं। और डाक्टर से उसने पूछा,
मनोचिकित्सक से पूछा, क्या करें? उन्होंने कहा, तुम एक काम करो।
मनोचिकित्सक ने एक बहुत खूबसूरत नग्न स्त्री की तस्वीर दी–सानुपात, सुघड़,
अंग-अंग सुंदर, कोई कमी न खोज सके। कहा, इसको जाकर तुम अपने घर में
रेफ्रिजरेटर के भीतर चिपका दो। और रहा ग्लू। यह ग्लू ऐसा है कि एक बार फोटो
चिपक गयी, तो फिर निकलती नहीं। सो जब भी तुम्हारी पत्नी फ्रिज को खोलकर
देखेगी कुछ खाने के लिए, और इस नग्न स्त्री को देखेगी, शरमाएंगी। मन ही मन
अपने को दोष देगी कि यह मैंने अपने शरीर का क्या किया! अब यह कुछ शरीर जैसा
मालूम नहीं पड़ता अब तो ऐसा मालूम पड़ता है जैसे एक थैला है, जिसमें सामान
भरा हुआ है।
पति ने कहा, बात तो पते की है। फीस चुकायी, फ्रिज में ले जाकर तस्वीर
चिपकायी। कोई दो महीने बाद मनोचिकित्सक को मिल गया सुबह-सुबह बीच पर।
मनोचिकित्सक ने कहा कि क्या हुआ? तुम आए नहीं। उसने कहा, क्या खाक आते।
लाखा उस तस्वीर को उखाड़ने की कोशिश में लगा हूं, उखड़ती नहीं। मनोवैज्ञानिक
ने कहा, लेकिन तुम्हें वह तस्वीर उखाड़ने की जरूरत क्या है? उसने कहा, उल्टा
ही सब हो गया।
क्योंकि मैं उस तस्वीर को देखने जाता हूं बार-बार। और जब भी
तस्वीर को देखता हूं, तो मन…आखिर आदमी का मन है। कभी यह मिठाई, कभी
आइसक्रीम…। कभी भूल कर ऐसी तस्वीर किसी और को मत देना। देखते नहीं मेरे
हालत? मनोवैज्ञानिक ने कहा, वह तो मैं देख रहा हूं कि दो महीने में तो
तुमने गजब कर दिया।। दो महीने पहले आए थे तो चूहा मालूम होते थे, और अब तो
पहाड़ मालूम होते हो। मगर यह तो बताओ पत्नी का क्या हुआ? उसने कहा, पत्नी का
मत पूछो। वह दुष्ट तस्वीर की तरफ देखती नहीं। उसकी आंखें तो सिर्फ भोजन को
देखती हैं।
सलाहें, मशविरे चारों तरफ हर कोई हर किसी को दे रहा है। मुफ्त लोग बांट
रहे हैं सलाहें जगह-जगह तुम्हें मिल जाएंगे अरस्तू, अफलातून, ऐसा ज्ञान
दें, कि जिसकी चोट से सदा के लिए जग जाओ। मगर वे खुद ही नहीं जगे अपनी चोट
से, और तुम्हें जगा रहे हैं। खुद की सलाह अपने ही काम नहीं आयी। अब वे
दूसरे को बांट रहे हैं।
सुनो सब की, समझने की भी कोशिश करो, लेकिन हमेशा निर्णय अपनी निजता का
हो। और अपनी शांति में, अपने मौन में, उत्तरदायित्व पूर्वक जो भी तय
करो–सोचकर, कि मैंने तय किया है सही होगा, गलत होगा, कोई भी परिणाम होगा,
उत्तरदायी मैं हूं; किसी दूसरे पर उत्तरदायित्व को नहीं थोपूंगा। फिर
तुम्हारे जीवन में भी निखार आना शुरू हो जाएगा।
तो फिजूल बैठकर तुम मेरे संबंध में चर्चा मत करो। मैं इतना बिगड़ चुका कि
अब तुम्हारी चर्चा के हाथ मुझ तक पहुंच न पाएंगे। एक सीमा होती है, फिर उस
सीमा के पार मुश्किल हो जाती है। सो हम तो गए। अब तुम भी कहीं चर्चा
करते-करते हमारे साथ मत चले आना। अपनी सोचो। जिंदगी छोटी है। समय बहुत कम
है। कल का कोई भरोसा नहीं है। और काम बड़ा है। जिंदगी को जगमगाया है। अमृत
का अनुभव करना है। व्यर्थ की बकवास, और बहुत दूर नहीं है।
कोपलें फिर फूट आई
ओशो
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