मैं कलकत्ता में एक घर में मेहमान होता था। मित्र थे मेरे, हाईकोर्ट के
जज थे। उनकी पत्नी ने मुझसे कहा कि और किसी से मैं कह भी नहीं सकती, लेकिन
आपसे कहूंगी और आप ही इन्हें समझाइए। हम परेशान हो गए हैं। ये घर से जाते
हैं तो घर में हलकापन आ जाता है। बच्चे हंसने लगते हैं, खेलने लगते हैं,
मैं भी प्रसन्न हो जाती हूं। और जैसे ही इनकी कार आकर पोर्च में रुकती है
कि एकदम सन्नाटा फैल जाता है; बच्चे एक दूसरे को खबर कर देते हैं कि डैडी आ
गए। मैं भी घबड़ा जाती हूं। एकदम घर में उदासी छा जाती है, मातम छा जाता
है।
मैंने कहा, मैं समझा नहीं, बात क्या है?
उसने कहा, बात यह है कि ये चौबीस घंटे न्यायाधीश बने बैठे रहते हैं। ये
मेरे साथ बिस्तर पर भी रात जब सोते हैं तो न्यायाधीश की तरह। मेरे पति नहीं
हैं ये, ये न्यायाधीश हैं। और इनकी हर बात की आज्ञा वैसे ही मानी जानी
चाहिए, जैसे कि अदालत में ये खड़े हों। इनके सामने हर एक मुजरिम है। बच्चे
ऐसे खड़े होते हैं डरे हुए कि कोई अपराधी खड़े हों, कि चोर बदमाश खड़े हों।
इन्होंने ऐसा रोब बांध रखा है घर में, इससे हम सब परेशान हैं और ये भी सुखी
नहीं, क्योंकि इतने तनाव में रहते हैं।
यह ढंग न हुआ पद पर होने का। यह पागलपन हुआ।
एक नेताजी पागलखाने में भाषण देने गए। भाषण के बाद पागलखाने के इंचार्ज
ने बतलाया कि आज आपके भाषण के बाद पागल जितने खुश नजर आ रहे हैं, इतना
प्रसन्न तो मैंने उन्हें अपनी पूरी जिंदगी में नहीं देखा। पच्चीस साल मुझे
नौकरी करते हो गए।
नेताजी यह सुन कर मुस्कुराए, बोले, भाषण ही आज मैंने ऐसा दिया था कि
अच्छे अच्छे तक बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकते; फिर ये तो बेचारे पागल
हैं।
ऐ भाई, जरा यहां आओ एक पागल को बुला कर राजनीतिज्ञ ने पूछा तुम लोग आज इतने खुश क्यों नजर आ रहे हो?
पागल ने कहा, खुश क्यों न हों नेताजी, हमारा महासौभाग्य कि आप यहां
पधारे। यह हमारा इंचार्ज तो एकदम पागल है, जब कि आप बिलकुल हमारे जैसे लगते
हैं।
पद तुम्हें पागल न बनाए। पद तुम्हें विक्षिप्त न करे। पद का उपयोग हो।
तुम पद के साथ तादात्म्य न कर लो। आखिर कुछ लोगों को तो काम करना ही पड़ेगा,
किसी को कलेक्टर होना पड़ेगा, किसी को कमिश्नर होना पड़ेगा, किसी को गवर्नर
होना पड़ेगा, किसी को स्टेशन मास्टर, किसी को हेडमास्टर, किसी को प्रिंसिपल,
किसी को वाइस चांसलर…
ये काम तो सब चलते रहेंगे। लेकिन ध्यानी इन कामों से तादात्म्य नहीं
करता। इन कामों के कारण अकड़ नहीं जाता। ध्यानी जानता है कि जूता बनाने वाला
चमार उतना ही उपयोगी काम कर रहा है जितना राष्ट्रपति। इसलिए अपने को कुछ
श्रेष्ठ नहीं मान लेता, क्योंकि जूता बनाने वाला उतना अनिवार्य है जितना
कोई और। इसलिए कोई हायरेरकी, कोई वर्णव्यवस्था पैदा नहीं होती कि मैं ऊपर,
तुम नीचे; कोई सीढ़ियां नहीं बनतीं। सारे लोग, समाज के लिए जो जरूरी है, उस
काम में संलग्न हैं। जिससे जो बन रहा है, जिसमें जिसको आनंद आ रहा है, वह
कर रहा है। जिस दिन पद तुम पर हावी न हो जाए उस दिन पद में कोई बुराई नहीं।
और धन तुम्हारे जीवन का सर्वस्व न हो जाए। तुम धन को ही इकट्ठा करने में
न लगे रहो। धन साधन है, साध्य न बन जाए। धन के लिए तुम अपने जीवन के और
मूल्य सब गंवा न बैठो। तो धन में कोई बुराई नहीं है। मैं धन का निंदक नहीं
हूं। मैं तो चाहूंगा कि दुनिया में धन खूब बढ़े, खूब बढ़े, इतना बढ़े कि देवता
तरसें पृथ्वी पर जन्म लेने को!
काहे होत अधीर
ओशो
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