यह जो कामवासना है, अगर आप इसके साथ चलें,
इसके पीछे दौड़े, तो जो एक नई वृत्ति
पैदा होती है, उसका नाम लोभ है। लोभ कामवासना के फैलाव का
नाम है। एक स्त्री से हल नहीं होता, हजार स्त्रिया चाहिए!
तो भी हल नहीं होगा।
सार्त्र ने अपने एक उपन्यास में उसके एक
पात्र से कहलवाया है कि जब तक इस जमीन की सारी स्त्रियां मुझे न मिल जाएं, तब तक मेरी कोई तृप्ति
नहीं।
आप भोग न सकेंगे सारी स्त्रियों को, वह सवाल नहीं है;
लेकिन मन की कामना इतनी विक्षिप्त है।
जब तक सारे जगत का धन न मिल जाए, तब तक तृप्ति नहीं है।
धन की भी खोज आदमी इसीलिए करता है। क्योंकि धन से कामवासना खरीदी जा सकती है;
धन से सुविधाएं खरीदी जा सकती हैं, सुविधाएं
कामवासना में सहयोगी हो जाती हैं।
लोभ कामवासना का फैलाव है। इसलिए लोभी
व्यक्ति कामवासना से कभी मुक्त नहीं होता। यह भी हो सकता है कि वह लोभ में इतना पड़
गया हो कि कामवासना तक का त्याग कर दे। एक आदमी धन के पीछे पड़ा हो, तो हो सकता है कि वर्षों
तक स्त्रियों की उसे याद भी न आए। लेकिन गहरे में वह धन इसीलिए खोज रहा है कि जब
धन उसके पास होगा, तब स्त्रियों को तो आवाज देकर बुलाया
जा सकता है। उसमें कुछ अड़चन नहीं।
यह भी हो सकता है कि जीवनभर उसको ख्याल ही न
आए वह धन की दौड़ में लगा रहे। लेकिन धन की दौड़ में गहरे में कामवासना है।
सब लोभ काम का विस्तार है। इस काम के
विस्तार में, इस लोभ में जो भी बाधा देता है, उस पर क्रोध
आता है। कामवासना है फैलता लोभ, और जब उसमें कोई रुकावट
डालता है, तो क्रोध आता है।
काम,
लोभ, क्रोध एक ही नदी की धाराएं हैं। जब
भी आप जो चाहते हैं, उसमें कोई रुकावट डाल देता है,
तभी आप में आग जल उठती है, आप क्रोधित
हो जाते हैं। जो भी सहयोग देता है, उस पर आपको बड़ा स्नेह
आता है, बड़ा प्रेम आता है। जो भी बाधा डालता है, उस पर क्रोध आता है। मित्र आप उनको कहते हैं, जो
आपकी वासनाओं में सहयोगी हैं। शत्रु आप उनको कहते हैं, जो
आपकी वासनाओं में बाधा हैं।
लोभ और क्रोध से तभी छुटकारा होगा, जब काम से छुटकारा हो।
और जो व्यक्ति सोचता हो कि हम लोभ और क्रोध छोड़ दें काम को बिना छोड़े, वह जीवन के गणित से अपरिचित है। यह कभी भी होने वाला नहीं है।
इसलिए समस्त धर्मों की खोज का एक जो मौलिक
बिंदु है, वह
यह है कि कैसे अकाम पैदा हो। उस अकाम को हमने ब्रह्मचर्य कहा है। ब्रह्मचर्य का
अर्थ है, कैसे मेरे जीवन के भीतर वह जो दौड़ है एक
विक्षिप्त और जीवन को पैदा करने की, उससे कैसे छुटकारा
हो। कृष्ण कहते हैं, ये तीन नरक के द्वार हैं।
हमें तो ये तीन ही जीवन मालूम पड़ते हैं। तो
जिसे हम जीवन कहते हैं, कृष्ण उसे नरक का द्वार कह रहे हैं।
आप इन तीन को हटा दें, आपको लगेगा फिर जीवन में
कुछ बचता ही नहीं। काम हटा दें, तो जड़ कट गई। लोभ हटा दें,
फिर क्या करने को बचा! महत्वाकांक्षा कट गई। क्रोध हटा दें,
फिर कुछ खटपट करने का उपाय भी नहीं बचा। तो जीवन का सब उपक्रम
शून्य हुआ, सब व्यवहार बंद हुए।
अगर लोभ नहीं है, तो मित्र नहीं बनाएंगे
आप। अगर क्रोध नहीं है, तो शत्रु नहीं बनाएंगे। तो न अपने
बचे, न पराए बचे, आप अकेले रह
गए। आप अचानक पाएंगे, ऐसा जीवन तो बहुत घबड़ाने वाला हो
जाएगा। वह तो नारकीय होगा। और कृष्ण कहते हैं कि ये तीन नरक के द्वार हैं! और हम
इन तीनों को जीवन समझे हुए हैं।
हमें खयाल भी नहीं आता कि हम चौबीस घंटे काम
से भरे हुए हैं। उठते—बैठते, सोते—चलते, सब तरफ हमारी नजर का जो फैलाव है,
वह कामवासना का है।
गीता दर्शन
ओशो