... लस्ट फार लाइफ का अर्थ ठीक से समझ लें। हम
जीना चाहते हैं। लेकिन यह जीने की आकांक्षा बिलकुल अंधी है। कोई आपसे पूछे,
क्यों जीना चाहते हैं, तो उत्तर नहीं
है। और इस अंधी दौड़ में हम पौधे, पक्षियों, पशुओं से भिन्न नहीं हैं। पौधे भी जीना चाहते हैं, पौधे भी जीवन की तलाश करते हैं।
मेरे गांव में मेरे मकान से कोई चार सौ कदम
की दूरी पर एक वृक्ष है। चार सौ कदम काफी फासला है। और मकान में जो नल का पाइप आता
है, वह अचानक
एक दिन फूट पड़ा, तो जमीन खोदकर पाइप की खोजबीन करनी पड़ी
कि क्या हुआ! चार सौ कदम दूर जो वृक्ष है, उसकी जड़ें उस
पाइप की तलाश करती हुई पाइप के अंदर घुस गई थीं, पानी की
खोज में।
वैज्ञानिक कहते हैं कि वृक्ष बड़े हिसाब से
अपनी जडें पहुंचाते हैं—कहां पानी होगा?
चार सौ कदम काफी फासला है और वह भी लोहे के पाइप के अंदर पानी बह
रहा है। लेकिन वृक्ष को कुछ पकड़ है। उसने उतने दूर से अपनी जड़ें पहुंचाईं। और ठीक
उन जड़ों ने आकर अपना काम पूरा कर लिया, कसते—कसते
उन्होंने पाइप को तोड़ दिया लोहे के। वे अंदर प्रवेश कर गईं और वहां से पानी पी रही
थीं; वर्षों से वे उपयोग कर रही होंगी।
वृक्ष को भी पता नहीं कि वह क्यों जीना
चाहता है। अफ्रीका के जंगल में वृक्ष काफी ऊंचे जाते हैं। उन्हीं वृक्षों को आप
यहां लगाएं, उतने
ऊंचे नहीं जाते। ऊंचे जाने की यहां कोई जरूरत नहीं है। अफ्रीका में जंगल इतने घने
हैं कि वैज्ञानिक कहते हैं, जिस वृक्ष को बचना हो,
उसको ऊंचाई बढ़ानी पड़ती है। क्योंकि वह ऊंचा हो जाए, तो ही सूरज की रोशनी मिलेगी। अगर वह नीचा रह गया, तो मर जाएगा।
वही वृक्ष अफ्रीका में ऊंचाई लेगा तीन सौ
फीट की। वही वृक्ष भारत में सौ फीट पर रुक जाएगा। जीवेषणा में यहां संघर्ष उतना
नहीं है।
वैज्ञानिक कहते हैं, जिराफ़ है, ऊंट है, उनकी जो गर्दनें इतनी लंबी हो गई हैं,
वह रेगिस्तानों के कारण हो गई हैं। जितनी ऊंची गर्दन होगी,
उतना ही जानवर जी सकता है, क्योंकि इतने
ऊपर वृक्ष की पत्तियों को वह तोड़ सकता। सुरक्षा है जीवन में, तो गर्दन बड़ी होती चली गई है।
चारों तरफ जीवन का बचाव चल रहा है। छोटी सी चींटी
भी अपने को बचाने में, खुद को बचाने में लगी है। बड़े से बड़ा हाथी भी अपने को बचाने में लगा
है। हम भी उसी दौड़ में हैं।
और सवाल यह है—और यहीं मनुष्य और पशुओं का
फर्क शुरू होता है कि हमारे मन में सवाल उठता है—कि हम जीना क्यों चाहते हैं? आखिर जीवन से मिल क्या
रहा है जिसके लिए आप जीना चाहते हैं?
जैसे ही पूछेंगे कि मिल क्या रहा है, तो हाथ खाली मालूम पड़ते
हैं। मिल कुछ भी नहीं रहा है। इसलिए कोई भी विचारशील व्यक्ति उदास हो जाता है,
मिल कुछ भी नहीं रहा है।
रोज सुबह उठ आते हैं, रोज काम कर लेते हैं;
खा लेते हैं; पी लेते हैं; सो जाते हैं। फिर सुबह हो जाती है। ऐसे पचास वर्ष बीते, और पचास वर्ष बीत जाएंगे। अगर सौ वर्ष का भी जीवन हो, तो बस यही कम दौड़ता रहेगा। और अभी तक कुछ नहीं मिला, कल क्या मिल जाएगा?
और मिलने जैसा कुछ लगता भी नहीं है। मिलेगा
भी क्या, इसकी
कोई आशा भी बांधनी मुश्किल है। धन मिल जाए, तो क्या
मिलेगा? पद मिल जाए, तो क्या
मिलेगा? जीवन रिक्त ही रहेगा। जीवेषणा अंधी है, पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है। और इसलिए जीवेषणा से उठने का जो
पहला प्रयोग है, वह आंखों के खोलने का प्रयोग है कि मैं
अपने जीवन को देखूं कि मिल क्या रहा है! और अगर कुछ भी नहीं मिल रहा है, यह प्रतीति साफ हो जाए, तो जीवेषणा क्षीण होने
लगेगी।
मैं जीना इसलिए चाहता हूं कि कुछ मिलने की
आशा है। अगर यह स्पष्ट हो जाए कि कुछ मिलने वाला नहीं है, कुछ मिल नहीं रहा है,
तो जीने की आकांक्षा से छुटकारा हो जाएगा, उसकी निर्जरा हो जाएगी।
गीता दर्शन
ओशो
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