मेरा संदेश संक्षिप्त है--ऐसे संक्षिप्त , ऐसे सारे शास्त्र भी
उसमें समा जाते हैं। और किसी एक परंपरा के शास्त्र ही नहीं, सभी परंपराओं के शास्त्र समा जाते हैं। और अध्यात्मवादियों के शास्त्र
ही नहीं, भौतिकवादियों के शास्त्र भी समा जाते हैं।
मैं ऐसा धर्म देना चाहता हूं, जो आस्तिक और नास्तिक
दोनों के लिए समान रूप से उपलब्ध हो। अब तक तो सारे धर्म आस्तिक को उपलब्ध रहे हैं;
जो मान सके उसको उपलब्ध रहे हैं। लेकिन उसका क्या जो न मान सके?
क्या उसे छोड़ ही दोगे? क्या उसके लिए
परमात्मा तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं होगा? तब तो यह
पृथ्वी पूरी की पूरी धार्मिक कभी भी न हो सकेगी। तब तो कुछ कमी बनी ही रहेगी। तब
तो कुछ लोग अधार्मिक होने को मजबूर ही रहेंगे।
फिर,
जो मान सकता है उसके जीवन की क्रांति भी कुनकुनी होती है। उसके
जीवन की क्रांति में बड़ी ऊर्जा नहीं होती । एक अर्थों में उसकी क्रांति नपुंसक
होती है। वह मान सकता है, इसलिए मान लेता है। उसके मानने
में कोई संघर्ष नहीं होता। उसके मानने में कोई अभियान नहीं होता। उसके मानने में
सत्य की कोई खोज, गवेषणा नहीं होती।
असली खोज तो वह करता है जो नहीं मान पाता है; जिसके भीतर से
"नहीं' का स्वर उठता है। क्रांति तो वहीं घटित होती
है। इस जगत् के जो परम धार्मिक लोग थे, वे वे ही थे,
जो नास्तिकता से गुजरे। जिन्होंने आस्तिकता से शुरू किया उनकी
आस्तिकता हमेशा लचर रही, कमजोर रही, लंगड़ी रही। मनुष्य यदि धार्मिक नहीं हो पाया तो इसी लचर आस्तिकता के
कारण। विश्वास करो . . . जो कर सके, ठीक; लेकिन जो न कर सके वह कैसे करे? विश्वास कोई
करने की बात है? हो जाए तो हो जाए। न हो तो फिर क्या?
क्या परमात्मा तक पहुंचने का द्वार बंद ही हो गया? यह तो अन्याय होगा।
मैं एक ऐसा धर्म देना चाहता हूं, जो श्रद्धा का भी उपयोग
करे और संदेह का भी; जो कहेः श्रद्धा से भी पहुंचा जा
सकता है और संदेह से भी पहुंचा जा सकता है। क्योंकि सभी रास्ते उस तक ले जाते हैं।
ज्योति से ज्योति जले
ओशो
No comments:
Post a Comment