क्योंकि जीवन विरोध से निर्मित है; और जीवन के होने का और कोई
ढंग नहीं। श्वास बाहर जाती है, फिर भीतर वापस लौटती है। पूछा
कभी--ऐसा क्यों? जब भीतर ही जाना है श्वास को तो बाहर ले जाने
की जरूरत क्या? लेकिन अगर श्वास भीतर ही रह जाए, बाहर न जाए, तो मौत घटेगी, जीवन नहीं। श्वास अगर बाहर ही रह जाए, भीतर न आए,
तो भी मौत घटेगी, जीवन नहीं। जीवन गति है--दो
विरोधों के बीच गति है; दो तटों के बीच सरिता का प्रवाह है।
श्वास बाहर जाती है, भीतर आती है; भीतर आती है, बाहर जाती है--प्रतिपल प्राणायाम
भी हो रहा है, प्रत्याहार भी हो रहा है।
श्वास का बाहर जाना प्राणायाम है, श्वास का भीतर आना प्रत्याहार
है। और ऐसी ही लयबद्धता तुम्हारी चेतना में भी सध जाए, ऐसी
ही गति तुम्हारी चेतना में भी थिर हो जाए, ऐसे ही तुम बाहर
अनंत तक फैल जाओ और ऐसे ही तुम भीतर शून्य तक पहुंच जाओ--भीतर हो शून्य, बाहर हो अनंत--ये दोनों तुम्हारे कूल-किनारे हो जाएं, इनके बीच तुम सतत प्रवाहित होओ, तो ही तुम भगवत-स्वरूप
हो पाओगे। क्योंकि भगवान का यही स्वरूप है--भीतर शून्य, बाहर
पूर्ण।
यह सारा अस्तित्व परमात्मा का प्राणायाम है।
सृष्टि है प्राणायाम, प्रलय है प्रत्याहार। एक श्वास बाहर गई, सृष्टि
हुई; श्वास भीतर लौटी, प्रलय हुआ।
इसे तुम अगर ठीक से समझ पाओ तो जीवन में सब जगह
दिखाई पड़ेगा। जन्म है प्राणायाम,
मृत्यु है प्रत्याहार; जन्म में तुम फैलते
हो, मृत्यु में सिकुड़ जाते हो, वापस
लौट जाते हो। और जीवन जन्म और मृत्यु के किनारों के बीच है। जन्म जीवन नहीं;
मृत्यु भी जीवन नहीं। जन्म और मृत्यु के बीच जो प्रवाहित है,
जो अज्ञात नृत्य कर रहा है छंद में, लय में
लीन है--वही है जीवन।
मन की आकांक्षा है तर्कयुक्त होने की और जीवन
है विरोधयुक्त, इसलिए जीवन अतक्र्य है। और जिन्होंने तर्क से जानना चाहा वे भटके और कभी
पहुंचे नहीं।
तर्क तो यही कहेगा: प्राणायाम और प्रत्याहार
तो विरोध हो गया--कुछ एक कहें! ज्ञान और भक्ति तो विरोध हो गया--कुछ एक कहें! शून्य
और पूर्ण तो विरोध हो गया--कुछ एक कहें!
ध्यान रखना, जीवन सदा ही विरोधी है; क्योंकि जीवन विरोधों से बड़ा है; जीवन विरोधों
को आत्मसात कर लेता है। तर्क बड़ा छोटा है; छोटी बुद्धि का
उपाय है; वह एक को ही समा पाता है, तो विपरीत बाहर छूट जाता है।
इसलिए बुद्ध ने अगर शून्य कहा, तो यह अर्थ न था कि पूर्ण
उसमें समाया नहीं है। लेकिन बुद्ध को मानने वालों ने कहा कि जब शून्य है तो पूर्ण नहीं
हो सकता। और जब शंकर ने कहा पूर्ण, तो यह अर्थ न था कि शून्य
उसमें समाया नहीं है। लेकिन शंकर के मानने वालों ने कहा, जब
पूर्ण है तो शून्य कैसे हो सकता है।
यहीं तो अनुयायी भटक जाता है। अनुयायी जीता है
तर्क से और बुद्धि से। और जो जानते हैं,
उन्होंने विरोध को एक साथ जाना है। लेकिन वे भी विरोध को एक साथ कहने
में अड़चन अनुभव करते हैं, क्योंकि समझाना है तुम्हें। अगर
विरोध एक साथ कहे जाएं, तो तुम्हें लगता है बड़ी असंगति हो
गई। तुम्हारा मन चेष्टा ही करता रहता है तर्कबद्ध, सरणीबद्ध
गणित की। और जीवन किसी गणित को मानता नहीं; जीवन सब गणित की
सीमाओं को तोड़ कर बहता है। जीवन तो बाढ़ है।
भज गोविन्दम मूढ़मते
ओशो
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