एक पुरानी कथा है। एक सम्राट संसार से
विरागी हो गया; संन्यास का भाव उठा। घर छोड़ा, राज्य छोड़ा,
दूर पहाड़ों में एकांतवास करने के मन से स्थान खोजने निकला--कहां
ठहरूं, कहां बसूं। नदी में एक नाव पर उसने यात्रा की।
दोनों तट सुंदर थे, अलौकिक थे, मन-लुभावने
थे। चुनाव करना कठिन था, इस तट पर बसूं या उस तट पर। सोचा,
लोगों से पूछ लूं।
बाएं तट पर बसे लोगों से पूछा। उन्होंने कहा, चुनाव का सवाल ही नहीं
है। बसना हो, यहीं बसना है। स्वागत है आपका! क्योंकि इस
हिस्से को स्वर्ग कहते हैं। और उस तरफ, नदी का जो दूसरा
किनारा है, वह नरक है। वहां भूल कर मत जाना। वहां दुख
पाओगे, सड़ोगे। वहां बड़े दुष्ट प्रकृति के लोग हैं।
सम्राट को किनारा तो स्वर्ग जैसा लगा, लेकिन स्वर्ग में रहने
वाले लोगों के मन में दूसरे किनारे बसे लोगों के प्रति ऐसी दुर्भावना होगी,
यह बात न जंची।
वह दूसरे किनारे भी गया। दूसरा किनारा भी
अति सुंदर था। एक से दूसरा किनारा ज्यादा सुंदर था। उसने लोगों से पूछा कि मैं
बसने का सोचता हूं, किस किनारे को चुनूं?
उन्होंने कहा, चुनाव का कोई सवाल ही नहीं है। बसना हो तो
यहीं बसो। इस तरफ देवता बसते हैं, उस तरफ दानव। भूल कर भी
उस तरफ मत बस जाना, अन्यथा सदा पछताओगे। फंस गए तो निकलना
भी मुश्किल हो जाएगा। महाक्रूर प्रकृति के लोग हैं। उन दुष्टों से तो परमात्मा
बचाए। उनकी तो छाया भी पड़ जाती है तो आदमी भटक जाता है। उस किनारे तो भूल कर भी
उतरना भी मत; नाव भी मत लगाना।
सम्राट बड़ी दुविधा में पड़ गया। दोनों किनारे
सुंदर थे, लेकिन
दोनों तरफ रहने वाले लोग असुंदर थे। दोनों तरफ स्वर्ग था, लेकिन रहने वाले लोग वंचित हो गए थे। क्योंकि जब तक दूसरे की बुराई
दिखाई पड़ती रहे, तब तक अपने भीतर छिपी भलाई को भोगने का
अवसर नहीं आता। और जब तक दूसरे के कांटे गिनने की आदत बनी रहे, तब तक अपने भीतर खिले फूल की सुगंध नहीं मिलती। कांटों को गिनने वाला
व्यक्ति धीरे-धीरे फूल की गंध लेने की कला ही भूल जाता है। नरक पर जिसकी आंखें लगी
हों, उसकी आंखों की क्षमता ही खो जाती है स्वर्ग को देखने
की। खुरदरे पत्थरों के साथ ही जो दिन-रात अपने हाथों को लगाए रहा हो, वह फिर हीरों को नहीं पहचान पाता। हीरे भी पत्थरों जैसे ही लगते हैं।
इससे उलटी बात भी सच है कि जिसने अपने भीतर
खिला हुआ फूल देखा हो, उसे सब तरफ फूल दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। क्योंकि व्यक्ति अंततः अपने
को ही सब तरफ झलकता हुआ पाता है। सारा अस्तित्व दर्पण है। उसमें हम विभिन्न रूपों
में अपने ही चेहरे देखते हैं। उस किनारे जो दिखाई पड़ता है वह अपना ही चेहरा है।
दुश्मन में जो दिखाई पड़ता है वह अपना ही चेहरा है। नरक में जलती हुई जो लपटें
दिखाई पड़ती हैं वह अपना ही चेहरा है।
सम्राट ने कहा, इन्हीं उपद्रवों से तो
बच कर भागना चाहा है साम्राज्य से। वह इस शांत पहाड़ की झील में बसे हुए लोगों में,
इस घाटी में बसे हुए लोगों में भी वही का वही द्वंद्व है।
तो नाव को बढ़ाता आगे चला गया। उसने कहा, अब तो वहीं रुकूंगा जहां
आदमी न हो। क्योंकि जहां तक आदमी है वहां तक मन रहेगा। और जहां तक मन है वहां तक
संसार से बाहर जाने का कोई उपाय नहीं। मन ही तो संसार है। जहां तक मन है वहां तक
द्वैत रहेगा, द्वंद्व रहेगा, विरोध
रहेगा, पक्षपात रहेगा, अपना-पराया
रहेगा, मैंत्तू रहेगा। नदी दिखाई न पड़ेगी, किनारे महत्वपूर्ण रहेंगे--अपना किनारा, पराया
किनारा। वह दूर का किनारा, दुश्मन का किनारा। वह बढ़ता
गया। ऐसा समय आया, कोई लोग न मिले, बस्ती समाप्त हो गई। अब वह बस सकता था। लेकिन उसने कहा, अब भी मैं बसूंगा तो किसी एक किनारे पर बसूंगा। मैं भी आदमी हूं। अभी
छूट नहीं गया हूं, छूटने की कोशिश कर रहा हूं। बंधन तोड़
रहा हूं, थोड़े ढीले हुए हैं, लेकिन
जंजीरें खुल नहीं गई हैं। अगर एक किनारे पर बसूंगा, कौन
जाने दूसरा किनारा मुझे भी बुरा दिखाई पड़ने लगे!
मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलताएं हैं। तुम
जहां हो, उसे
महिमावान सिद्ध करने के लिए अनिवार्यरूपेण तुम्हें, तुम
जहां नहीं हो, वहां की निंदा करनी पड़ती है। तुम जो हो,
उस अहंकार की तृप्ति के लिए दूसरों का खंडन करना होता है।
अहंकार को एक ही रास्ता पता है अपने को बड़ा
करने का, वह
है दूसरों को छोटा करना। आत्मा का रास्ता अहंकार को पता नहीं है। आत्मा का रास्ता
है अपने को बड़ा करना। और मजा यह है कि जब कोई अपनी आत्मा को बड़ा करता है, तो दूसरे भी उसके साथ बड़े होते चले जाते हैं।
और जब अहंकार अपने को बड़ा करना चाहता है तो
उसे एक ही गणित मालूम है, दूसरे को छोटा करना। और दूसरी बात भी समझ लेने जैसी है, जितने दूसरे छोटे होते जाते हैं, उतने ही छोटे
तुम भी होते चले जाते हो। क्योंकि छोटे के साथ बड़े होने का उपाय नहीं है। छोटे के
साथ जीना हो तो तुम्हें भी छोटा होना पड़ेगा। बुरे आदमी के साथ जीना हो तो तुम्हें
भी बुरा होना पड़ेगा। और अगर तुमने सब में बुराई ही देखी है तो तुम भले कैसे रह
सकोगे? रहना तो बुरे लोगों के साथ होगा, जिनमें तुमने बुराई देखी है। तुम भी बुरे हो जाओगे।
शायद गहरे में तुम बुरे होने के लिए सुविधा
चाहते हो इसीलिए दूसरे में बुराई देखते हो। तुम दूसरे को छोटा बताते हो ताकि
तुम्हें अपना छोटापन अखरे न। तुम दूसरे को छोटा करते हो ताकि कम से कम छोटों में
तो बड़े दिखाई पड़ सको। जितने दूसरे छोटे हो जाएंगे उतना तुम्हें ऐसा लगता है, मैं थोड़ा बड़ा हूं।
लेकिन जिसने दूसरों को छोटा किया वह खुद भी छोटा
हो गया। तुम छोटे करने की चेष्टा कर ही नहीं सकते बिना छोटे हुए। क्योंकि तुम्हारा
प्रत्येक कृत्य तुम्हें निर्मित करता है। तुम्हारे प्रत्येक कृत्य की छाप तुम पर
पड़ जाती है। तुम जो करते हो, करते-करते वही तुम हो जाते हो।
सम्राट ने सोचा, रुक जाऊं इस किनारे।
दोनों किनारे सुंदर हैं। किसी भी किनारे रुकना हो सकता है। लेकिन क्या पता,
मनुष्य का मन! मैं भी कहीं ऐसा ही सोचने लगूं कि मेरा किनारा
सुंदर। क्योंकि मेरा किनारा है, सुंदर होना ही चाहिए।
मेरा किनारा और सुंदर न हो! और अपने किनारे को सुंदर बताने के लिए दूसरे के किनारे
को छोटा बताने लगूं।
तो सम्राट ने कहा, आदमी तो छूट गए, लेकिन किनारे अभी भी हैं। किनारे भी जहां छूट जाएं वहीं रुकूंगा। वह
नाव बढ़ाता चला गया। वह मूल उदगम पर पहुंच गया नदी के। वहां नदी ही समाप्त हो गई थी,
किनारे भी समाप्त हो गए थे। जिस पर्वत से नदी निकलती थी, वह पर्वत न इस किनारे था, न उस किनारे था,
बीच में खड़ा था। बीच में भी नदी के तल पर न था, नदी से बहुत ऊपर खड़ा था। उसने उस पर्वत के ही ऊपर अपना भवन बनाया। वह
वहीं रहा। उसने अपने भवन का नाम रखा: नेति-नेति। उपनिषद का प्राचीन वचन है: न यह,
न वह। न यह किनारा, न वह किनारा।
जब उसके मित्र प्रियजन आते उससे मिलने, उसके दर्शन करने,
तो वे सभी पूछते कि इस भवन का नाम नेति-नेति किस कारण? तो वह यह सारी कहानी कहता जो मैंने तुमसे कही।
जहां तक मनुष्य है, वहां तक तुम मन से बाहर
न हो सकोगे। मन के फैलाव का नाम ही तो मनुष्य है। हमारा शब्द "मनुष्य'
बड़ा बहुमूल्य है। वह मन से ही बना है। अंग्रेजी का "मैन'
भी "मन' का ही रूपांतर है। वह भी
मनुष्य का ही आधा हिस्सा है। मन का अर्थ है: चुनाव। मन का अर्थ है: इस किनारे,
उस किनारे; इस पक्ष में, उस पक्ष में। हिंदू, मुसलमान; जैन, ईसाई; ब्राह्मण,
शूद्र; भारतीय, चीनी--मन हमेशा तोड़ता है दो में। एक को पकड़ता है, एक से लड़ता है। मन बिना शत्रुता के नहीं जीता। इसलिए मन कभी शांत नहीं
हो सकता।
सबै सयाने एक मत
ओशो
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