एक छोटा-सा बच्चा अपने घर के बाहर खेल रहा
था। सुबह का सूरज निकला है। सूरज की स्वर्ण जैसी किरणें घर के बगीचे में बरस रही
हैं। सुबह की ताजी हवाएं हैं, तितलियां फूलों पर उड़ रही हैं और वह बच्चा घास में लेटा हुआ खेल रहा
है।
तभी उसे ख्याल आया है कि सूरज की इन नाचती
किरणों को काश! वह कैद कर ले, बंद कर ले, अपने पास सुरक्षित कर ले। वह
भीतर गया है और एक पेटी ले आया है। उसने सूरज की किरणों को बंद कर लिया है उस पेटी
में, हवाओं को बंद कर लिया है!
और फिर, खुशी से नाचता हुआ पेटी को लेकर भीतर अपनी
मां के पास पहुंच गया है और उसने कहा है कि तुझे पता भी नहीं है कि मैं पेटी में
क्या बंद कर लाया हूं। सूरज की नाचती हुई किरणें, सुबह की
हवाएं, वह सब इसमें बंद कर लाया हूं!
उसे पता भी नहीं कि जिसे उसने बंद किया है, वह बंद नहीं किया जा
सकता। उसे पता भी नहीं कि वह पेटी को भीतर ले आया है, सूरज
की किरणें बाहर ही रह गयीं हैं।
उसकी मां हंसने लगी और उसने कहा, खोल, अपनी पेटी को खोल, मैं भी देखूं, तू किन किरणों को पकड़ लाया है; क्योंकि मैंने
सुना नहीं है अब तक कि किरणें कोई पकड़कर ले आता है! और मैंने सुना नहीं है कि कोई
सुबह की हवाएं भी पेटियों में बंद हो जाती हैं!
उसने खुशी में और मां को चमत्कृत करने के
लिए पेटी खोली है और दंग खड़ा रह गया है। उसकी आंखों में आंसू आ गये हैं। उसकी पेटी
में तो घुप्प अंधकार है, वहां तो कोई भी सूरज की किरण नहीं है। वहां तो सुबह की कोई ताजी हवा
नहीं है। और वह रोने लगा है और कहने लगा है कि क्या! मैंने तो बंद किया था,
वे सब किरणें कहां गयीं?
मनुष्य भी सत्य के सागर के किनारे जीवन की
जिन हवाओं को, प्रभु की जिन किरणों को अनुभव करता है--सोचता है, शब्दों की पेटियों में, शास्त्रों में बंद कर
ले! बड़े श्रम से ये पेटियों बंद की जाती हैं, लेकिन जब भी
कोई उन पेटियों को खोलता है तो वहां कोरे शब्दों के अतिरिक्त, खाली पेटियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसे बंद करने का कोई भी
उपाय नहीं है।
बंद करने के रास्ते कोई भी हों--शब्द भी
अनुभवों को बंद करने की पेटियों से ज्यादा नहीं हैं। जीवन जो जानता है, शब्दों में हम उसे कैद
करके प्रकट करना चाहते हैं। कोशिश करते हैं कि उसे पकड़ लें, जो हमने जाना, उसे शब्दों में बांध दें। लेकिन
शब्द ही हाथ में रह जाते हैं। जिसे बांधा था, वह बंधन के
हमेशा बाहर है।
परमात्मा को किसी भी बंधन में बांधने का कोई
उपाय नहीं।
मौन में तो उसे कहा जा सकता है, शब्दों में कहने का कोई
मार्ग नहीं।
शून्य में तो उसके अनुभव को पाया जा सकता है, लेकिन शास्त्रों से उसे
निकाल लेने की कोई राह नहीं।
लेकिन हम शास्त्रों से जो कुछ उपलब्ध करते
हैं, सोचते
हैं, वह ज्ञान है। वे शब्द हैं कोरे। जिन्होंने उन शब्दों
को कहा था, उन्होंने सोचा होगा कि जो वे जान रहे हैं,
शायद शब्दों में बांध दिया जा सके। उनकी करुणा है इसके पीछे,
उनका प्रेम है इसके पीछे। मनुष्य-जाति भी उस सबको जान ले,
जो उसको ज्ञात हुआ है।
लेकिन नहीं, शब्दों में कुछ भी उतरकर नहीं आता है,
जैसे खाली कारतूस हों। ऐसे सभी शब्द खाली कारतूसों की तरह हैं,
जिनके भीतर कोई अनुभव बंधा हुआ नहीं आता है।
आपके पास अपना अनुभव हो तो शब्द भी सार्थक
हो जाते हैं, लेकिन आपके पास अपना अनुभव न हो तो शब्द खाली कारतूस हैं, उनमें कुछ भी नहीं है। उन शब्दों को इकट्ठा करते रहें, ब्रह्म को, अद्वैत को, आत्मा को, सच्चिदानंद को। इन सब शब्दों को
इकट्ठा करते रहें, इनका अंबार लगा लें, इनको तिजोरी में भर लें और आपको सिर्फ भ्रम पैदा होगा कि आपने कुछ जान
लिया है। आप कुछ जान नहीं सकेंगे। और यह भ्रम बाधा है। इसलिए मैंने कहा,
"ज्ञान नहीं ले जाता परमात्मा के द्वार तक, बल्कि यह प्रतीति ले जाती है कि मैं नहीं जानता हूं। '
ओशो
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