शास्त्रों में जो है, उसे ही आप कभी नहीं पढ़ते
हैं। शास्त्र में जो है, उसे नहीं; आप जो पढ़ सकते हैं, उसे ही पढ़ते हैं।
इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा।
यदि आप गीता को पढ़ते हैं, या उपनिषद को पढ़ते हैं,
या बाइबिल को, या किसी और शास्त्र को,
तो क्या आप सोचते हैं, जितने लोग पढ़ते
हैं वे सब एक ही बात समझते हैं? निश्चित ही जितने लोग
पढ़ते हैं, उतनी ही बातें समझते हैं। शास्त्र से जो आप
समझते हैं, वह शास्त्र से नहीं, आपकी
ही समझ से आता है। स्वाभाविक है। जितनी मेरी समझ है, जो
मेरे संस्कार हैं, जो मेरी शिक्षा है, उसके माध्यम से ही मैं समझ सकूंगा।
तो जब आप गीता को समझ लेते हैं, तो यह मत समझना कि कृष्ण
के वचन आपने समझे। आपने अपने ही वचन समझे हैं। इसीलिए शास्त्र में भला सत्य हो,
लेकिन शास्त्र के पढ़ने से सत्य उपलब्ध नहीं होता। इसे समझ लेना
ठीक से। शास्त्र में भला सत्य हो, लेकिन शास्त्र समझने से
सत्य उपलब्ध नहीं होता। हां, सत्य उपलब्ध हो जाए तो
शास्त्र समझ में आ जाता है। क्यों?
कृष्ण ने जिस चेतना की स्थिति में वचन कहे
हों गीता में, जब तक वैसी चेतना की स्थिति उपलब्ध न हो, कृष्ण
के वचन नहीं समझे जा सकते हैं। जो भी आप समझेंगे, वह आपका
अपना ही होगा। यही वजह है कि शास्त्रों पर इतना विवाद है। गीता पर हजार टीकाएं
हैं। या तो कृष्ण पागल रहे होंगे, अगर उनके एक ही साथ
हजार अर्थ हों; या उनका एक ही अर्थ रहा होगा। लेकिन जो
हजार-हजार टीकाएं हैं, वे तो कहती हैं, हजार-हजार अर्थ हैं। निश्चित ही ये टीकाएं कृष्ण की गीता पर नहीं,
इनके लिखने वालों की बुद्धि की सूचनाएं हैं। ये उनके अपने विचार
का प्रतिफलन हैं। अन्यथा हजार अर्थ नहीं हो सकते कृष्ण की गीता में। सच तो यह है
कि जितने लोग गीता पढ़ेंगे, उतने ही अर्थ हो जाएंगे। तो जो
अर्थ आप समझ रहे हैं, वह गीता का है, इस भूल में मत पड़ना। वह आपका अपना है।
तो जब आप शास्त्र को पढ़ते हैं, आपको सत्य उपलब्ध नहीं
होता, जो आप जानते हैं, उसका ही
कोई अर्थ उपलब्ध होता है। और वह सत्य नहीं है। कोई सत्य को जान ले तो शास्त्र को
समझ सकता है, लेकिन शास्त्र को समझ कर सत्य को नहीं समझ
सकता। यही वजह है कि दुनिया के ये सारे धर्मग्रंथ एक ही सत्य को कहते हैं, लेकिन इनके मानने वाले आपस में लड़ते हैं, इनके
मानने वालों में विरोध है। दुनिया में सत्य के नाम पर इतने संप्रदाय हैं। सत्य एक
है और संप्रदाय अनेक हैं। क्या इससे यह समझ में नहीं आता कि संप्रदाय हम बनाते हैं,
सत्य नहीं बनाता? और जैसे-जैसे दुनिया
में विचार बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे उतने संप्रदाय हो जाएंगे
जितने लोग हैं। क्योंकि विचार हरेक व्यक्ति को अपना मत पैदा करवा देता है।
तो मैंने जो कहा कि शास्त्रों के पढ़ने से
सत्य नहीं मिलेगा, उसका अर्थ आप समझ लेना। आप उतना ही समझ सकते हैं जितनी आपकी चेतना की
स्थिति है, उससे ज्यादा नहीं। इसलिए शास्त्र पढ़ कर आप
अपना ही अर्थ जानते हैं, शास्त्र का अर्थ नहीं जानते।
शास्त्र में भला सत्य हो, शास्त्र के अध्ययन से सत्य नहीं
मिलेगा।
अमृत की दशा
ओशो
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