परमात्मा के संबंध में हम इस भांति सोचते
हैं, जैसे
उसे भी देखा जा सकता हो। जो देखा जा सकता है, वह संसार ही
रहेगा। परमात्मा कभी भी देखा नहीं जा सकता; जो देख रहा है
वह परमात्मा है।
इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
जो भी दिखाई पड़ता है उसका नाम ही संसार है
और जिसको दिखाई पड़ता है उसका नाम परमात्मा है। इसलिए परमात्मा कभी दिखाई नहीं पड़
सकता है।
लेकिन कोई कहता है कि मैंने परमात्मा को
देखा। बड़ी भूल कर रहा है। एक तो परमात्मा दिखाई नहीं पड़ सकता, वह खुद परमात्मा है
जिसको दिखाई पड़ता है। दूसरी बात, जहां परमात्मा का अनुभव
होता है--दिखाई तो वह पड़ता नहीं, क्योंकि मैं वही हूं,
आप वही हैं--लेकिन जब इस स्वयं का अनुभव होता है, तब मैं भी वहां शेष नहीं रह जाता है, वहां मैं
भी गिर जाता है।
तो जो कहता है, मैंने परमात्मा को देखा,
वह दोहरी भूल कर रहा है। एक तो वह यह कहता है कि परमात्मा कोई
चीज है मुझसे अलग, जो दिखाई पड़ गई। यह झूठ है। दूसरी भूल
वह यह कर रहा है कि वह कह रहा है, मैंने देखा। मैं तो
बचता नहीं वहां, जहां परमात्मा का अनुभव होता है। इसलिए
इससे ज्यादा असत्य कोई बात नहीं हो सकती कि कोई कहे, मैं
परमात्मा को देखा हूं।
लेकिन राम और कृष्ण देखे जा सकते हैं, बुद्ध और महावीर देखे जा
सकते हैं। सच में ही बुद्ध और महावीर नहीं देखे जाएंगे, न
राम और कृष्ण। लेकिन मनुष्य की कल्पना बहुत समर्थ है। कल्पना इतनी समर्थ है कि जो
नहीं है, वह भी देखा जा सकता है। अगर कोई ठीक से कल्पना
करे, तो प्रतीतियां हो सकती हैं स्वप्नवत, और उसी को लोग ईश्वर का साक्षात्कार समझ लेते हैं।
अगर कोई निरंतर धारणा करे, निरंतर कामना करे,
निरंतर कल्पना करे, निरंतर पुकारे और
चिल्लाए और रोए, और चौबीस घंटा स्मरण करे--कृष्ण का,
कृष्ण का, कृष्ण का, तो चित्त में एक छवि बननी शुरू हो जाएगी। उस छवि को इतना प्रगाढ़ रूप
मिल सकता है कि वह छवि बाहर भी दिखाई पड़ने लगे। वह प्रोजेक्शन होगा, वह प्रक्षेपण होगा। वहां कोई होगा नहीं, लेकिन
दिखाई पड़ सकता है। और अगर किसी के पास कवि का हृदय हो, तब
तो बहुत आसान है।
तृषा गयी एक बूँद से
ओशो
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