जीवेषणा की तरफ अगर थोड़ी—सी भी ध्यान की
प्रक्रिया लौटे, थोड़ा—सा आपका होश बढ़े, तो सवाल साफ ही हो
जाएगा कि यह जीवन कहीं नहीं ले जा रहा है सिवाय मौत के। यह कहीं नहीं जा रहा है
सिवाय मौत के। जैसे सभी नदियां सागर में जा रही हैं, सभी
जीवन मौत में जा रहे हैं।
तब दूसरा बोध स्पष्ट होना चाहिए कि जो जीवन
मौत में ले जाता है, जो अनिवार्यरूपेण मौत में ले जाता है, अपरिहार्य
जिसमें मृत्यु है, मृत्यु से बचने का जिसमें कोई उपाय
नहीं, वह आकांक्षा के योग्य नहीं है, वह एषणा के योग्य नहीं है, वह कामना के योग्य
नहीं है।
ये दो बातें अगर गहन होने लगें आपके भीतर, इनकी सघनता बढ़ने लगे,
तो जीवेषणा की निर्जरा हो जाती है। और जिस दिन व्यक्ति जीने की
आकांक्षा से मुक्त होता है, उसी दिन जीवन का द्वार खुलता
है। क्योंकि जब तक हम जीवन की इच्छा से भरे रहते हैं, तब
तक हम इस बुरी तरह उलझे रहते हैं जीवन में कि जीवन का द्वार हमारे लिए बंद ही रह
जाता है, खुल नहीं पाता।
हम इतने व्यस्त होते हैं जीवित होने में, जीवित बने रहने में,
कि जीवन क्या है, उससे परिचित होने का
हमें न समय होता है, न सुविधा होती है। उस मंदिर के द्वार
अटके ही रह जाते हैं, बंद ही रह जाते हैं।
जिन्होंने जीवेषणा छोड़ दी, उन्होंने जीवन का राज
जाना। वे ही परम बुद्धत्व को प्राप्त हुए। और जिन्होंने जीवेषणा छोड़ दी, उन्होंने अमृत को पकड़ लिया, अमृत को पा लिया।
जिन्होंने जीवेषणा पकड़ी, वे मौत पर पहुंचे।
इतना तो तय है कि जो जीवेषणा से चलता है, वह मृत्यु पर पहुंचता
है। इससे उलटा भी सच है—लेकिन वह कभी आपका अनुभव बने तभी—कि जो जीवेषणा छोड़ता है,
वह अमृत पर पहुंचता है। इसको हम निरपवाद नियम कह सकते हैं। अब तक
इस जगत में जितने लोगों ने जीवेषणा की तरफ से दौड़ की, वे
मृत्यु पर पहुंचते हैं। कुछ थोड़े—से लोग जीवेषणा को छोड्कर चले, वे अमृत पर पहुंचे हैं।
उपनिषद, गीता, कुरान,
बाइबिल, धम्मपद, वे उन्हीं व्यक्तियों की घोषणाएं हैं जिन्होंने जीवेषणा छोड्कर अमृत को
उपलब्ध किया है।
मृत्यु के पार जाना हो, तो जीवन की इच्छा को छोड़
देना जरूरी है। यह बड़ा उलटा लगेगा। जीवन बड़ा जटिल है। जीवन निश्चित ही काफी जटिल
है और विरोधाभासी है, पैराडाक्सिकल है।
इसका मतलब यह हुआ कि जो जीवन को पकड़ता है, वह मृत्यु को पाता है।
इसका यह अर्थ हुआ कि जो जीवन को छोड़ता है, वह महाजीवन को
पाता है। यह बिलकुल विरोधाभासी लगता है, लेकिन ऐसा है। यह
विरोधाभास ही जीवन का गहनतम स्वरूप है।
आप करके देखें। धन को पकड़े और आप दरिद्र रह
जाएंगे। कितना ही धन हो, दखि रह जाएंगे। धन को छोड्कर देखें। और आप भिखमंगे भी हो जाएं, तो भी सम्राट आपके सामने फीके होंगे। आप शरीर को जोर से पकड़े। और शरीर
से सिर्फ दुख के आप कुछ भी न पाएंगे। और शरीर से आप तादाक्य तोड़ दें, शरीर को पकड़ना छोड़ दें। और आप अचानक पाएंगे कि शरीर को पकड़ने की वजह से
आप सीमा में बंधे थे, अब असीम हो गए।
यहां जो छीनने चलता है, उसका छिन जाता है। यहां
जो देने चल पड़ता है, उससे छीनने का कोई उपाय नहीं। यह जो
विरोधाभास है, यह जो जीवन का पैराडाक्स है, यह जो पहेली है, इसको हल करने की व्यवस्था ही
साधना है।
दो काम करें। जीवन ने क्या दिया है, इसकी परख रखें। क्या
मिला है जीवन से, क्या मिल सकता है, इसका हिसाब रखें। पाएंगे कि सब हाथ खाली हैं। आशा भी टूट जाएगी कि कल
भी कुछ मिल सकता है। क्योंकि जो अतीत में नहीं हुआ, वह
भविष्य में भी नहीं होगा। जो कभी नहीं हुआ, वह आगे भी कभी
नहीं होगा। और फिर देखें कि सब जीवन मृत्यु के सागर में उंडलते चले जाते हैं। कोई
आज, कोई कल। हम सब क्यू में खड़े हैं। आज नहीं कल, बारी आ जाती है और मृत्यु में उतर जाते हैं।
तो यह सारा जीवन मृत्यु में पूरा होता है, निश्चित ही यह मृत्यु का
ही छिपा हुआ रूप है। क्योंकि अंत में वही प्रकट होता है, जो
प्रथम से ही छिपा रहा हो। तो जिसे हम जीवन कहते हैं, वह
मौत है। और जीवेषणा को छोड़ेंगे, तो ही यह मौत छूटेगी। तब
हमें उस जीवन का अनुभव होना शुरू होगा, जिसका मिटना कभी
भी नहीं होता है।
उस जीवन को ही परमात्मा कहें, उस जीवन को मोक्ष कहें,
उस जीवन को आत्मा कहें, उस जीवन को जो
भी नाम देना हो, वह हम दे सकते हैं।
गीता दर्शन
ओशो
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